घर में नहीं दाने अम्मा चली भुनाने – गज़ब का सटीक मुहावरा गढ़ा है किसी ने. और आजकल के माहौल में तो बेहद ही सटीक दिखाई दे रहा है. जिसे देखो कुछ न कुछ लौटाने पर तुला हुआ है. किसे? ये पता नहीं। अपने ही देश का, खुद को मिला सम्मान, अपने ही देश को, खुद ही लौटा रहे हैं. बड़ी ही अजीब सी बात लगती है।
कहने को हजार कमियां हैं. यह नहीं है , वह नहीं है. पर जो है वह लौटाना है. यानि ले दे कर सम्मान मिला है वह भी लौटाना है. हालाँकि यह सम्मान लौटाया कैसे और किसे जाता है मेरी समझ से तो बाहर है. सम्मान या तो अर्जित किया जाता है या खोया जाता है. पर लौटाना … वह भी वह चीज़, जिसपर सिर्फ आपका अकेले का अधिकार नहीं। एक रचनाकार / लेखक को कोई सम्मान मिलता है तो वह उसे या उसके व्यक्तित्व को नहीं दिया जाता बल्कि उसकी लिखी रचना को दिया जाता है. जिसे उस सम्मान के काबिल उसे पढ़ने और गुनने वाले लोग बनाते हैं. अत: उस पर मिले सम्मान को लौटा देना उस रचना का ही नहीं बल्कि उसके पाठकों का भी अपमान है. कि लो यह पकड़ो अपनी रचना जिसे तुमने सम्मान लायक समझा। यह तो ऐसा लगता है जैसे रचनाकार स्वयं यह कहे कि तुमने दे दिया तो दे दिया वरना मेरी रचना तो इस काबिल न थी. या कोई माँ अपना बच्चा हॉस्पिटल में जाकर लौटा आये कि लो, यह हॉस्पिटल बुरा है यहाँ पैदा हुआ बच्चा मुझे अब नहीं चाहिए।
कहने को हजार कमियां हैं. यह नहीं है , वह नहीं है. पर जो है वह लौटाना है. यानि ले दे कर सम्मान मिला है वह भी लौटाना है. हालाँकि यह सम्मान लौटाया कैसे और किसे जाता है मेरी समझ से तो बाहर है. सम्मान या तो अर्जित किया जाता है या खोया जाता है. पर लौटाना … वह भी वह चीज़, जिसपर सिर्फ आपका अकेले का अधिकार नहीं। एक रचनाकार / लेखक को कोई सम्मान मिलता है तो वह उसे या उसके व्यक्तित्व को नहीं दिया जाता बल्कि उसकी लिखी रचना को दिया जाता है. जिसे उस सम्मान के काबिल उसे पढ़ने और गुनने वाले लोग बनाते हैं. अत: उस पर मिले सम्मान को लौटा देना उस रचना का ही नहीं बल्कि उसके पाठकों का भी अपमान है. कि लो यह पकड़ो अपनी रचना जिसे तुमने सम्मान लायक समझा। यह तो ऐसा लगता है जैसे रचनाकार स्वयं यह कहे कि तुमने दे दिया तो दे दिया वरना मेरी रचना तो इस काबिल न थी. या कोई माँ अपना बच्चा हॉस्पिटल में जाकर लौटा आये कि लो, यह हॉस्पिटल बुरा है यहाँ पैदा हुआ बच्चा मुझे अब नहीं चाहिए।
हाँ समाज या व्यवस्था में किसी भी बुराई के खिलाफ विरोध करना हर व्यक्ति का अधिकार है और वह अपने अपने तरीके से उसे करने के लिए स्वतंत्र भी है परन्तु वहीँ एक खास क्षेत्र के सम्मानित नागरिक का यह भी कर्तव्य है कि वह अपने सबसे प्रभावी तरह से उसका विरोध करे जिसका कि कोई सार्थक परिणाम निकले। अब यदि सीमा पर कोई आपत्ति जनक वाकया होता है और एक सैनिक घर में बैठ कर अपनी डायरी में लिखकर कहे कि मैं इसका विरोध करता हूँ तो क्या फायदा। उसका तो फर्ज है कि सीमा पर जाकर लड़े. यानि तलवार के सिपाही को तलवार से और कलम के सिपाही को कलम से लड़ना चाहिए।
जो सम्मान कभी कृतज्ञ होकर प्राप्त किया था वह लौटाने से अच्छा होता कि कुछ ऐसा लिखा जाता जिससे लोगों को सोचने में नई दिशा मिलती। जिन लोगों की वजह से सम्मान मिला, वह मार्गदर्शन के लिए अपने प्रिय रचनाकार की ओर देखते हैं, तो बेहतर होता रचनाकार अपना वह फ़र्ज़ निभाते।
परन्तु हमारे यहाँ तो सिर्फ विरोध- विरोध चीखने का चलन है.
इधर सम्मान लौटाया गया उधर इन लौटाने वालों की किताबें लौटाने का अभियान चालू हो गया. अब कोई पूछे इनसे कि एक व्यक्ति के किये सजा, उस कृति को किस तरह दी जा सकती है जिसका इसमें कोई दोष नहीं। उस रचना या किताब का अपमान किस तरह किया जा सकता है जिसे कभी बेहतरीन कहकर पढ़ा गया और सम्मान के काबिल समझा गया.
खैर विरोध और फिर उसके विरोध में विरोध शायद यही बचा है अब बस करने को. हर बात पर बस राजनीति वह भी अप्रभावी और ओछी.
कहते हैं साहित्य समाज का आइना होता है. पर अब तो लगता है साहित्य सिर्फ रचनाकार की एक व्यक्तिगत मिलकियत है. इसका न समाज से कोई लेना है न उसके पाठकों से.
दुष्यंत आज होते तो शायद कुछ यूँ लिखते – ( दुष्यंत से माफी सहित )
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद है.
शर्त है कि तस्वीर नहीं बदलनी चाहिए
हां सम्मान लौटाने की प्रक्रिया मुझे भी अच्छी नहीं लगी, लेकिन रचनाकारों के लिये जिस तरह के अपशब्दों या उनकी लेखनी को निकृष्ट कहने का सिलसिला सोशल साइट्स पर चला, वो भी अच्छा नहीं लगा. पुरस्कार लौटाने की जगह भविष्य में दिये जाने वाले पुरस्कारों का बहिष्कार भी हो सकता था.
सम्मान लोटना ठीक नही आप कलम के सिपाही हो उसी तरह विरोध करो
टैगौर ने जब नाइटहुड की उपाधि लौटाई थी तो उन्होंने क्या किया था….राजनीति या विरोध। क्या व पढ़ने -गुनने वालों का अपमान था…
लेखक, गीतकार, संगीतकार , नायक : सब तो विरोध में हैं | क्यूँ ना एक "किस्सा कुर्सी का" एक बार फिर बनाई जाये |
मैं अवार्ड वापसी का समर्थन भले न करून पर इस फिल्म का समर्थन ज़रूर करूंगा |
तब तक तो जो आपने लिखा वही सही लग रहा है "सिर्फ हंगामा खड़ा करना ही मकसद है" |
सहमत हूँ आपसे . सम्मान को लौटाना अनादर का प्रतीक है। ऐसा करके ये लोग कोई महान कार्य नहीं कर रहे।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-11-2015) को "अब भगवान भी दौरे पर" (चर्चा अंक 2152) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जय मां हाटेशवरी….
आप ने लिखा…
कुठ लोगों ने ही पढ़ा…
हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े…
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना….
दिनांक 06/11/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ….
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है…
इस हलचल में आप भी सादर आमंत्रित हैं…
टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है….
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ…
कुलदीप ठाकुर…
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन लाशों के ढ़ेर पर पड़ा लहुलुहान… – ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है…. आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी….. आभार…
बहुत सही लिखा है शिखा दी
सम्मान वापस करने और गाली वापस करने में फ़र्क है वरना अब तक जूतम-पैगार भी शुरू हो गयी होती । भारतीय बुद्धिजीवियों (साहित्यकारों, वैज्ञानिक, कलाकारों) ने पूरी दुनिया को यह संदेश देने का प्रयास किया है कि भारत के लोग अब सहिष्णु नहीं रहे । असहिष्णुता का अर्थ है सन् 712 से लेकर अब तक जो हिंदू दबाया-कुचला जाता रहा है उसने अब अपने अस्तित्व पर चिंतन करने की ग़ुस्ताख़ी शुरू कर दी है । देश की स्थिति ख़राब है, अब अत्याचारियों की निरंकुशता ख़तरे में पड़ सकती है । भारत के लोग सोचने लगे हैं कि अब और पाकिस्तान या बांग्लादेश नहीं बनना चाहिये । हिंदुओं की यह चेतना तथाकथित बुद्धिजीवियों को नागवार गुज़र रही है ।
सम्मान प्राप्त साहित्यकारों ने आखिर लिखा ही क्या है, इस पर भी तो बात हो। कोई पाठक नहीं हैं इनके। इन लेखकों ने हिन्दी और हिन्दी भाषा का नुकसान ज्यादा किया है, साहित्य रचने के बजाय। पुरस्कार तो इनके नेक्सस से इन्हें मिलते गए। कौन पढ़ता है इनको। जिनको लोग पढ़ते हैं, उन्हें पुरस्कार की दरकार है भी नहीं।
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