असल ज्ञान वह मेरी पहली अनुबंधित नौकरी थी. अब तक छात्र जीवन को चलाने के लिए बहुत से पार्ट टाइम काम (ट्यूशन, अनुवाद आदि) किये थे पर अब मैं स्वयं छात्रा की श्रेणी से निकलते ही शिक्षिका की श्रेणी में आ गई थी. मास्को से टीवी पत्रकारिता में परास्नातक करने के पश्चात वहीं पी एच डी करने के आग्रह को ठुकराकर मैं वापस अपने देश लौट आई थी. कम उम्र का जूनून कहिये या इतने वर्ष अपने देश, अपनों से दूर शिक्षा का परिणाम – अब अपने ही देश में ऐसी नौकरी करके जीविका चलाने का मन था जिसमें समाज के साथ सीधा संपर्क कर के अपना कुछ योगदान दिया जा सके. अत: जब तक पत्रकारिता में नौकरी मिलती तब तक अपने गृह नगर में ही नए खुले एक स्कूल में शिक्षिका पद के लिए आवेदन कर दिया. वह एक स्थापित डिग्री कॉलेज की शाखा के रूप में अंग्रेजी माध्यम का एक नया माध्यमिक विद्यालय था और हाल फिलहाल में ही उसकी नई प्रधानाचार्य की न्युक्ति हुई थी. कहा जाता था कि वे उस शहर की नहीं हैं. काफी प्रगतिशील, काबिल और स्मार्ट हैं और आज के समयानुसार उस स्कूल की प्रगति के लिए प्रयासरत हैं. मेरी उम्मीद के विपरीत आवेदन के दूसरे ही दिन मुझे इंटरव्यू के लिए बुलावा आ गया. मैं अपनी बिना शैक्षिक अनुभव के अन्यंत्र प्रमाण पत्रों की फ़ाइल लेकर पहुंची तो प्रधानाचार्या ने एक नजर उनपर डाली. फिर मुझसे पूछा. “हमारी सेकण्ड क्लास की क्लास टीचर ,मेटरनिटी लीव पर हैं. आप वह क्लास संभाल सकती हैं? मैंने कहा “कोशिश कर सकती हूँ” फिर उन्होंने एक कागज पर एक फिगर लिखकर मेरे सामने की “सेलरी बस इतनी मिलेगी हाथ में, मंजूर हो तो कल से ही ज्वाइन कर लीजिये” कागज़ पर लिखी हुई संख्या, अनुबंध पर लिखी हुई संख्या की आधी थी. पर उस समय मुझे उस संख्या से कोई लेना देना नहीं था. जीविका चलाने के लिए मुझे पैसे की जरुरत नहीं थी. मुझे बस काम करना था, एक ऐसी नौकरी करनी थी जिसमें समाज में कुछ सुधार करने की संभावनाएं थीं और अपने आप को यह भरोसा दिलाना था कि ऐसी कोई नौकरी मुझे मिल सकती है बिना किसी जुगाड़ या शिफारिश के. अत: मैंने उन्हीं के सामने अनुबंध पर हस्ताक्षर कर दिए. वह बोलीं “ मुझे आशा है कि स्कूल की अन्य गतिविधियों में हमें आपके नए विचारों का सहयोग मिलेगा. मुझे आपसे काफी उमीदें हैं” मैंने “जी” में सिर हिलाया और नमस्ते कर घर वापस आ गई. दूसरे दिन स्कूल पहुंची, चपरासी ने मुझे मेरी क्लास तक पहुंचा दिया. वहां बाकी की सभी शिक्षिकाएं प्रशिक्षित, अनुभवी और परिपक्व थीं. मैं वहाँ सबसे कम उम्र तो थी ही साथ ही मुझे ऐसी व्यवस्था में, विधिवत क्लास लेने का न तो कोई अनुभव न था, न ही कोई प्रशिक्षण. रजिस्टर में हाजिरी भी कैसे लगानी है यह तक नहीं पता था. वो तो छोटे बच्चों की क्लास थी, अत: अपने बचपन की क्लास को याद किया. हमारी क्लास टीचर कैसे नाम बोलकर उपस्थिति लेती थी … वहीँ तरीका दोहराया और पहला चरण पार किया. विधिवत पढ़ाने का तरीका तो आता नहीं था. अत: मैंने बच्चों को जो पढ़ाया जाए, वह उनकी समझ में आये और वे चाव से पढ़ाई करें, इस उसूल को ध्यान में रखते हुए अपने तरीके से पढ़ाना शुरू कर दिया. इसमें मुझे रूस में की गई रूसी भाषा की पढ़ाई का अनुभव बहुत काम आया, जिसे हमें बिलकुल बच्चों की तरह ही, व्यवहारिक तरीके से पढ़ाया गया था. मैं स्कूल पहुँचकर सीधा क्लास में जाती. सारे पीरियड्स लेती, छुट्टी होती तो सीधा घर आ जाती. बीच में लंच ब्रेक में नर्सरी की दो टीचर के साथ बैठकर खाना खाती, जो थीं तो उसी स्कूल की अध्यापिकायें पर उनकी क्लास मुख्य परिसर से ज़रा हटकर थी. क्योंकि वे नर्सरी की टीचर थीं अत: बाकी की टीचर्स से शायद कम आंकी जाती थीं. वे बाकी की शिक्षिकाओं के साथ स्टाफ रूम में नहीं बैठती थीं और हमेशा अलग थलग ही रहती थीं. मुझे वैसे ही “बड़े” लोगों से स्वत: मिलने जुलने में हिचक होती है अत: नर्सरी की वे दो “कम बड़ी” टीचर्स मुझे सहज लगीं और मैं उनके साथ ही कभी कभार उठने बैठने लगी. कुछ महीने आराम से निकल गए. फिर पी टी एम आई और वह मेरे लिए बहुत सारी व्यवहारिक शिक्षा लेकर आई. मेरे पढ़ाने का तरीका रंग ला रहा था. बच्चे खुश थे. नयापन उन्हें भा रहा था और उनके अविभावक इस बात से खुश थे नई टीचर बच्चों की अंग्रेजी की क्लास में अंग्रेजी ही बोलती है. अब तक शायद उस स्कूल में ऐसा नहीं होता था कि बच्चे घर जाकर टीचर की तारीफ़ करते हों. ये बातें प्रधानाचर्या तक पहुँची तो उन्होंने मुझे शिक्षक दिवस के आयोजन लिए बच्चों से एक अंग्रेजी नाटक करवाने का आग्रह कर दिया. इतनी अनुभवी और काबिल शिक्षिकाओं को छोड़कर कल की आई एक अनुभवहीन, अशिक्षिका को इतनी बड़ी जिम्मेदारी मिलती देख अब “बड़ी” टीचर एसोसियेशन में खलबली मच गई. उसकी डॉन टीचर्स की ईगो मचलने लगी और फिर शुरू हुआ असल शिक्षा अभियान. बात – घमंडी है. सीनियर्स से हाथ जोड़ कर नमस्ते करने की जगह हेल्लो करती है, बच्चों को क्या सिखाएगी. ऐसे पढ़ाया जाता है? रिजल्ट में पता चलेगा. नर्सरी टीचर के साथ गुट बना लिया है. स्कूटी पर आती है, पैसे की धोंस दिखाती है. जैसे जुमलों के साथ बात बायकॉट तक पहुँच गई. और मैं नादान अपने में मस्त, मुझे किसी भी तरह यह बात नहीं सूझ सकती थी कि मुझ जैसी नौसिखिया और अदना सी इंसान से इन पढ़ी लिखी, अनुभवशील, बड़ी हस्तियों का सिंघासन डोल सकता है. मुझे इन बातों का एहसास तक नहीं हुआ कि गलती मेरी थी. मैंने ही अपने काम से काम रखा था. मैंने ही एसोशियेशन की डॉन की चापलूसी नहीं की थी और उनकी बैठकों में शामिल होने की बजाय उन “छोटी” नर्सरी टीचर्स के साथ बैठती थी. उसपर मेरा स्कूटी से आना और अच्छे कपड़े पहनना बच्चों के आकर्षण का कारण था. ये सब तो मुझे तब जाकर पता चला जब एक दिन मेरे अभिवादन के जवाब में एक डॉन शिक्षिका गंदा सा मुँह बनाकर पलट गई. उस दिन मेरे दिमाग की बत्ती जली कि कहीं कुछ चल रहा है जो मुझे जानना चाहिए. तब एक नर्सरी की शिक्षिका से मैंने पूछा. उसकी शादी होने वाली थी और वह जल्द ही नौकरी छोड़ने वाली थी अत: उसने मुझे वह सारी बातें बताईं जो उसने स्टाफ रूम से चलते- निकलते या अपनी शादी का निमंत्रण देते समय डॉन शिक्षिकाओं की आपसी चर्चा में सुनी थीं. बाकी चीजों के अलावा उन्हें मेरे पढ़ाने के तरीके से खास समस्या थी और शायद वे यही सब बातें लाग लपेट के साथ प्रधानाचार्या तक पहुंचा चुकी थीं. इसके कुछ समय बाद मेरी नौकरी दिल्ली के एक न्यूज चैनल में लग गई और मैंने अपने शिक्षिका पद से इस्तीफा दे दिया. प्रधानाचार्या को छोड़कर सबने चैन की सांस ली और अचानक से सबका व्यवहार मेरी तरफ अच्छा हो गया. परन्तु इस नौकरी से मेरे ज्ञान चक्षु खुल चुके थे. मैं पढ़ाने गई थी परन्तु बहुत कुछ स्वयं पढ़कर आई. जो शिक्षा मुझे देश- विदेश की सम्पूर्ण शिक्षा सोलह – सत्रह सालों में नहीं दे पाई वह मुझे शिक्षा व्यवस्था के इन ग्यारह महीनों ने दे डाली. मेरी समझ में आ गया था कि इस देश में अपना काम करना ही काम नहीं होता, उसके साथ बहुत से और काम होते हैं जो करने पड़ते हैं तभी आप कामकाजी कहला सकते हैं. और इस स्किल पर मुझे बेसिक से काम करना था. शिक्षा हमेशा पढ़ने से नहीं मिलती. कई बार पढ़ाने से भी मिलती है. (शिक्षक दिवस पर खास)