नवभारत में प्रकाशित 

क्या पुरुष प्रधान समाज मेंपुरुषों के साथ काम करने के लिए,उनसे मित्रवत  सम्बन्ध बनाने के लिए स्त्री का पुरुष बन जाना आवश्यक है ?.आखिर क्यों यदि एक स्त्री स्त्रियोचित व्यवहार करे तो उसे कमजोरढोंगी या नाटकीय करार दे दिया जाता है और यही  पुरुषों की तरह व्यवहार करे तो बोल्ड, बिंदास और आधुनिक या फिर चरित्र हीन .यूँ मैं कोई नारी वादी होने का दावा नहीं करती,ना ही  नारी वादियों के खिलाफ कुछ कहने की नीयत है. परन्तु विगत दिनों कुछ इस तरह का पढने का इत्तफाक  हुआ कि दिमाग का घनचक्कर बन गया.कई सवाल मष्तिष्क में घूं घूं – घां घां करने करने लगे.पहले सोचा जाने दो क्या करना है,  परन्तु दिमागी खटमल कहाँ शांत होने वाले थे तो सोचा चलो उन्हें निकालने का मौका दे ही दूं.
कुछ समय पहले एक मित्र की ऍफ़ बी वॉल पर “मंटो” का एक कथित वक्तव्य  देखा था .
एक महीना पहले जब आल इंडिया रेडिओ डेल्ही में मुलाजिम था ,अदबे लतीफ़ में इस्मत का लिहाफ शाया (प्रकशित ) हुआ था .उसे पढ़कर मुझे याद है मैंने कृशन चंदर से कहा था अफसाना बहुत अच्छा है मगर लेकिन आखिरी जुमला गैर सनाआना (कलात्मता रहित )है .अहमद नदीम कासमी की जगह अगर मै एडिटर होता तो इसे यक़ीनन हज्फ़(अलग ) कर देता .चुनांचे जबअफसानों  पर बात शुरू हुई तो मैंने इस्मत से कहा”आपका अफसाना लिहाफ मुझे पसंद आया ,बयान  में अलफ़ाज़ की बकद्रे-किफ़ायत इस्तेमाल करना आपकी नुमायाँ खुसियत (खास खूबी )रही है .लेकिन मुझे ताज्जुब  है कि इस अफ़साने के आखिर में आपना बेकार सा जुमला लिख दिया
इस्मत ने कहा “क्या अजीब सा है इस जुमले में “
मै जवाब में कुछ कहने ही वाला था के मुझे इस्मत के चेहरे पर वही सिमटा हुआ हिजाब (संकोच )नजर आया ,जो आम घरेलू लडकियों के चेहरे पर नागुफ्ती (तथाकथित अश्लील ) शै का नाम सुनकर नमूदार हुआ करता है .मुझे सख्त नाउम्मीदी हुई .इसलिए के मै लिहाफ के तमाम जुजईयात (पहलुओ )के मुताल्लिक उनसे बात करना चाहता था .जब इस्मत चली गयी तो मैंने दिल में कहा “ये तो कम्बखत बिलकुल औरत निकली “
(“
मंटो” इस्मत को याद करते हुए )”
यूँ मंटो के बारे में कुछ भी कहना संभव नहीं उनकी बयानगी की कायल मैं भी हूँ ..परन्तु यहाँ मेरा ध्यान खींचा एक सोच ने जो एक व्यक्ति की नहीं शायद पूरे समाज की है. आखिर क्या खराबी है औरत होने मेंजो मंटो को इतनी नाउम्मीदी हुई.क्या जरुरी है कि जिस तरह किसी विषय पर कोई खास शब्द पुरुष इस्तेमाल  करते हैं ..(मैं यहाँ उन शब्दों के कतई खिलाफ नहीं हूँ) ….वही शब्द औरत इस्तेमाल करे तभी वो बोल्ड है,खास है और पुरुष सोच पर, उसकी उम्मीद पर खरी उतरती है. वर्ना वो आम है. क्या स्त्रियोचित स्वभाव में रहकर वह कोई योग्यता नहीं रखती?अपना कोई मक़ाम नहीं बना सकती. क्या वह स्त्री रह कर खास नहीं हो सकती?आखिर यह मापदंड बनाये किसने हैं.कि बिना पुरुषयोचित व्यवहार किये एक स्त्री बोल्ड नहीं कहला सकती.आखिर ये किस कानून में लिखा है कि सेक्स की हिमायती और खुले आम अश्लील कहे जाने वाले शब्दों का प्रयोग किये बिना कोई महिला बोल्ड नहीं हो सकती?
क्यों हम एक स्त्री को पुरुष बना देना चाहते हैं औरत यदि वैसा नहीं बनती तो उसे कमजोर और अपने एहसास छुपाने वाली ढोंगी करार दिया जाने लगता है. हमारे साहित्य में भी ऐसे ही पुरुषवादी सोच के उदाहरण मिलते हैं जिनपर किसी स्त्री की सोच या विचार को जाने बिना अपनी ही सोच थोप दी जाती है और ऐलान  कर दिया जाता है कि यही सत्य है ऐसा ही होता है.कुछ दिन पहले एक मशहूर हिंदी लेखक का एक उपन्यास पढ़ रही थी – जिसकी भूमिका में ही कहा गया, कि ये कहानी उजागर करती है एक उच्च वर्गीय आधुनिक महिलाओं की मनोदशा को.और इस कहानी की नायिका एक ऐसी लड़की थी जिसे मेरे ख़याल से सेक्स के सिवा कुछ नहीं सूझता था. जो खुद अल्ल्हड़ होते हुए अपने से दुगनी  तिगुनी उम्र के अपने प्रोफ़ेसर के साथ शादी करती है. और फिर उसके बाद उसके संपर्क में जो भी पुरुष आता है उसके साथ हो लेती है.भले फिर वह घर में आया मेकेनिक हो या कार में बगल की सीट पर बैठा उससे तीन गुना छोटा उसका सौतेला बेटा.और इसे कहा जाता है आधुनिक स्त्री जो अपनी सेक्स की इच्छा को दबाती नहीं खुले आम पूरा करती है. अरे हद्द है ..कहीं कोई जानवर या मनुष्य में फर्क  है या नहीं. और जो स्त्री इस तरह के आकर्षण को मानने से इंकार कर दे उसे अपनी इच्छाओं को दबाने का, एक कुंठित सोच का करार दे दिया जाता है . उसे आधुनिक कहलाने का कोई अधिकार नहीं.
पुरुष बड़े गर्व से यह तर्क देते देखे जाते हैं कि जिसे तुम स्त्रियाँ अश्लीलता और उच्छंखल व्यवहार कहती हो. वह खूबसूरती हैजरुरत है जिन्दगी की. और इसे हम पुरुष जितनी सहजता से स्वीकार करते हैं तुम लोग क्यों नहीं करतीं क्यों छुपाती हो अपनी इच्छाएं मर्यादा की आड़ में? क्यों डरती हो अपनी भावनाओं और इच्छाओं की खुले आम अभिव्यक्ति से?. मुझे समझ में नहीं आता मैं इन सवालों का क्या जबाब दूं .बल्कि इसके एवज में कुछ सवाल ही उपजते हैं मेरे दिल में.क्यों वो यह समझते हैं कि जो उनकी निगाह में ठीक है वही ठीक है.वह कौन होते हैं स्त्री के स्वभाव और व्यवहार का पैमाना बनाने वालेऔर यदि उनकी बात मान भी ली जाये और स्त्रियाँ भी वैसा ही व्यवहार शुरू कर दें तो क्या होगा इस समाज का रूपसमाज की जगह फिर क्या जंगल नहीं होगाऔर हम सब जानवर कि जहाँ जब जो इच्छा हुई कर डाला, इंद्रियों  पर नियंत्रण जैसी  कोई चीज़ नहीं,विवेक क्या होता है पता नहीं. हम तो खुले विचारों को मानते हैं आधुनिक हैंबिंदास हैं.