रो रो के धो डाले हमने, जितने दिल में अरमान थे।
हम वहाँ घर बसाने चले, जहाँ बस खाली मकान थे।
यूँ तो दिल लगाने की, हमारी भी थी आरज़ू,
ढूँढा प्यार का कुआँ वहाँ, जहाँ लंबे रेगिस्तान थे।
हम तो यूँ ही बेठे थे तसव्वुर में किसी के,
बिखरे टूट के शीशे की तरह कितने हम नादान थे।
एक अदद इंसान की चाह में, बरसों बिताए तन्हा यहाँ
पर पाते वहाँ इंसान कैसे, जहाँ सिर्फ़ कब्रिस्तान थे.
जला डाली “शिखा” कि हो रौशन उनकी राह मगर
पर इस नाजुक सी लौ के कहाँ वो कदरदान थे।
हम वहाँ घर बसाने चले, जहाँ बस खाली मकान थे।
यूँ तो दिल लगाने की, हमारी भी थी आरज़ू,
ढूँढा प्यार का कुआँ वहाँ, जहाँ लंबे रेगिस्तान थे।
हम तो यूँ ही बेठे थे तसव्वुर में किसी के,
बिखरे टूट के शीशे की तरह कितने हम नादान थे।
एक अदद इंसान की चाह में, बरसों बिताए तन्हा यहाँ
पर पाते वहाँ इंसान कैसे, जहाँ सिर्फ़ कब्रिस्तान थे.
जला डाली “शिखा” कि हो रौशन उनकी राह मगर
पर इस नाजुक सी लौ के कहाँ वो कदरदान थे।
बहुत पसंद आयी आपकी गजल !
गजल का पहला शेर ही आज के जीवन की
कितनी बड़ी सच्चाई बयां कर देता है !
सच में आज घर में रहने वाले बेघरों की संख्या बहुत ज्यादा है !
हम न जाने कितनी चीज़ों
को रोजाना टूटते बिखरते देखते है….अवाक्….खड़े हुए….!
ख्वाब, वादे, स्पर्श….अस्तित्व ….गहरी सोच और खूबसूरत एहसास से भरी गजल
शुभकामनाओं के साथ बधाई !
bahut hi khoosurat abhivyakti…
accha laga padh kar..
swapna manjusha 'ada'
bahut acchi gazal hai shikha ji………
har shabd aapke ehsason ko bayan karta hai jo aapne is gazal main daale hain…..
shikha ji,
gazal me upar ke do she'r umda he/ he to poori hi achhi kintu mujhe jyada vo do lage// dooba aour isake raag me utar gayaa, yaani jyada aanand aaya/ ab dekhiye ham jeso ko gazal me aanand dikhta he jabki vo hoti he dard se bhari..///kher../ badhhiya likhi he aapne/
सिखा जी आपकी गजल तो जैसे मेरी ही आवाज़ लगती है….मन को उद्वेलित करती है आपकी तमाम गजल….मुझे आपका ब्लॉग बहुत पसंद आया…मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है..
रचना बहुत अच्छी लगी….बहुत बहुत बधाई….बहुत उम्दा शेर
waah ! bahut khubsurat sher kahe hain aap ne…
dusra sher khaas pasand aaya
यूँ तो दिल लगाने की, हमारी भी थी आरज़ू,
ढूँढा प्यार का कुआँ वहाँ, जहाँ लंबे रेगिस्तान थे।
….
आपके ब्लॉग पर आना सफल रहा. बात दिल को छू गयी.
बेहतरीन ग़ज़ल के लिए शुक्रिया कुबूल करें.
Kya baat hai .."हम वहाँ घर बसाने चले, जहाँ बस खाली मकान थे.." Ahmed Salmaan Saahab hain, shaayad Canada mein rehate hain… unka do sher kuch issi 'concern' ko express karte hain, pesh hai – "ye kya ke suraj pe ghar banana, aur us-pe chaanv talaash karna, khaDe bhi hona toh dal-dalon mein aur apne paanv talaash karna, nikal ke shehron mein aa bhi jana chamakte khaabon ko saath le kar,
bulandd-O-balaa imaaraton mein fir apne gaanv talaash karna"… Achchaa laga aapka post.
यूँ तो दिल लगाने की, हमारी भी थी आरज़ू,
ढूँढा प्यार का कुआँ वहाँ, जहाँ लंबे रेगिस्तान थे।
वाह क्या गहरा सोचा है आप ने …
आशु
I got what you mean ,saved to bookmarks, very decent internet site.
Really informative blog article.Really thank you! Fantastic.