“अरे तब तरबूज काट कर कौन खाता था. खेतों पर गए, वहीं तोड़ा घूँसा मार कर बीच में से, खड़ा नमक छिड़का और हाथ से ही खा लिया आखिर में रस बच जाता था तो सुढक़ लिए उसे यूँ ही.
-दावतें भी मीठी और नमकीन अलग अलग होती थीं. एक- एक बालक सेर -सेर भर रबड़ी खा जाता था. घर के बुजुर्ग बड़ी दावतों में छांट कर उन लौंडों को ले जाते थे जो छक के खा के आएं.
-बथुए का साग खेतों में फसल के बीच अपने आप उग आता था और उसे तोड़ने के लिए कोई मना नहीं करता था. गरीबों का साग था वो, अब की तरह हाट- बाजार नहीं मिला करता था.”

और न जाने कितने ही ऐसे किस्से थे पापा के पास जो ख़त्म ही नहीं होते थे और हम सुन सुन कर ये सोचा करते कि गाँव था या खाने की फैक्ट्री, लोग थे कि जंगली, खाना बदोश। कोई कहेगा? इस आज के बने -ठने, शहरी इंजिनियर को देख कर कि यह खेतों में बैठकर हाथ से तरबूज तोड़ कर उसका रस सुढकता होगा। आखिर कैसे हजम हो जाती होगी सेर भर रबड़ी ? पेट था कि कुआं।
पापा के किस्से हम बहनों को, जिन्होंने गाँव कभी देखे भी नहीं थे, उन्हें किसी दूसरी दुनिया की काल्पनिक कहानियाँ लगतीं. पर हम दम साधे, आँखें फैलाये सब सुनती रहतीं, सोचती रहतीं कि कभी पापा के वही वाले गाँव जायेंगे और ऐसे ही तरबूज और बथुआ तोड़ कर लायेंगे, फिर ऐसे ही खेतों में बैठकर ही खायेंगे पर पापा के किस्सों के बीच हस्तक्षेप करने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी। बस सोचते रहते कि क्या अब भी पापा इतना खा सकते हैं मौका मिले तो ?
पापा शायद हमारे मन की बात जान जाते थे गहरी सांस खींच कर कहते। अब न तो वैसे गाँव रहे न ही वैसे लोग. अब तो एक कटोरी रबडी न हजम हो किसी को, अरे हजम भी कैसे हो वैसी शुद्ध मिलती भी तो नहीं है. अब मिक्सी में पीसी उस चटनी में वो स्वाद कहाँ जो सिल बट्टे पर पीसी का हुआ करता था. अलग ही लेस हुआ करती थी उसकी तो.

पापा का “खाना तुलना पुराण” काफी देर तक चालू रहता और मम्मी बेचारी परेशानी में उसे जल्दी ही ख़तम करने की फिराक में होतीं कि सिल बट्टा तो घर में आ ही गया था अब कहीं कोई खेत -वेत ही खरीदने की सनक न चढ़ जाए खुमारी में.  वह कभी हमें पढने को कहकर, कभी खाना परसने को कहकर बैठक उठा देतीं।

यूँ पापा बहुत कम खाते थे और कम से कम तीन दिन तक तो बिना खाए रह सकते थे. पर खाने के जबरदस्त शौक़ीन थे और वही खाते थे जो उन्हें पसंद था. खाने के मामले में “ठीक है…. ” नहीं चलता था. कुछ उनकी पसंद का नहीं मिले तो वह सिर्फ सलाद खा कर रह जाते थे परन्तु “कुछ भी” कभी नहीं खा सकते थे. वहीं कभी किसी चीज पर मन चल गया तो पाताल से भी ढूंढवा कर मंगवा लिया करते थे.


जनवरी फरवरी के महीने में अलीगढ में नुमाइश लगा करती थी (अब भी लगती है) और नुमाइश का हलवा परांठा बहुत मशहूर हुआ करता था. एक बार नुमाइश ख़तम हो गई और पापा को हलवा परांठा खाने का मन हुआ. नुमाइश क्योंकि उठ चुकी थी इसलिए अब कोई हलवा परांठा नहीं बना रहा था. पूरे शहर में कहीं नहीं मिला। पर पापा को चाहिए अब तो चाहिए ही. कुछ मातहतों को यहाँ -वहां दौड़ाया, कुछ फ़ोन खटखटाए, कहीं से पता चला कि नुमाइश अलीगढ से तो उठ गई है पर फलाने शहर में जायेगी अभी, तो वहां शायद अब मिल जाए हलवा परांठा। आनन् फानन एक आदमी को किसी की मोटरसायकिल दिलवाई, उस शहर भेजा और वह वहां से तब कुछ किलो हलवा परांठा लेकर आया.क्योंकि अब वह उन सबमें भी बँटना था जिस -जिस को इस अभियान में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल किया गया था.  
फिर पापा के लिए उनका रईसी दस्तरखान सजा, पलंग पर साफ़, बिना क्रीज की चादर पर साफ़ बड़ा तौलिया बिछाया गया, एक छोटा तौलिया हाथ पोछने को साइड में रखा गया, बराबर की मेज नुमा ट्रॉली पर एक गिलास में पानी रखा गया और तब पापा ने उसमें से १०० ग्राम खाया तो सबको सुकून आया। वह तो शुक्र था कि यह मुआं हलवा परांठा कहीं मिल गया वर्ना अगला कदम शायद किसी हलवाई को घर पर बिठा कर बनवाना ही रह गया था. 

कुछ दिन पहले इल्फोर्ड लेन गई तो वहां एक दूकान पर लिखा देखा “वीकेंड स्पेशल कराची का हलवा परांठा” देख तो रहे होगे न आप ? लन्दन में भी मिलने लगा है. आइये दस्तरखान लगा दिया है मैंने। 
आज यह हलवा काट कर ही बोलेंगे -हैप्पी बर्थडे पापा….