बहुत याद आता है गुजरा ज़माना
सान कर दाल भात हाथों से खाना।
सान कर दाल भात हाथों से खाना।
वो लुढ़कती दाल को थाली में टिकाना,
गरम गरम दाल में उंगलियां
डुबाना,
फिर “उईमाँ” चिल्लाकर, रोनी सूरत बनाकर,
गरम गरम दाल में उंगलियां
डुबाना,
फिर “उईमाँ” चिल्लाकर, रोनी सूरत बनाकर,
जली उँगलियों को मुँह तक ले जाना।
खूब सारा भात परोस कर लाना,
उसमें से आधा भी न खा पाना,
मम्मी की नजरों से फिर खुद को
बचाकर,
थाली में सिर झुका कर ड्रॉइंग
बनाना।
उसमें से आधा भी न खा पाना,
मम्मी की नजरों से फिर खुद को
बचाकर,
थाली में सिर झुका कर ड्रॉइंग
बनाना।
कभी थाली पर कोई नक्शा
बनाना,
बनाना,
कभी अपना नाम लिख कर मिटाना,
चावल के पहाड़ और दाल की नदी पर,
कटे खीरा, टमाटर के फूल लगाना।
बहुत याद आता है बचपन दीवाना
सान कर दाल भात हाथों से खाना।
बहुत सुन्दर कविता..
सचमुच….मुझे आटे का पहाड़ याद आ गया…मम्मी जब आता माड़तीं तो मैं उनसे उस आटे का पहाड़ बनवाती फिर उसके बीच में कुआं और उसमें पानी भी। फिर इस कुएँ के ऊपर आटा परत दर परत बिछाती और ऊँगली से गड्ढा बनाती…आह बचपन…
बहुत याद आता है बचपन दीवाना
सान कर दाल भात हाथों से खाना।
….मीठी यादें हैं बचपन की….
अब चाह कर वह बचपन नहीं जी सकते !
बचपन की मीठी यादों को ताज़ा करती हुयी सुन्दर रचना है …
दरअसल रचना न कह कर इसे दुबारा जीना कहना ठीक रहेगा .. जिसे पढ़ते हुए काल चित्र घूम जाता है ….
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन – गूगल का नया रूप में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर …. आभार।।
सुन्दर चित्रण।
Gazabbb Gazab….subah suibah itni pyaari kavita padhne ko mili ….Loved it 🙂
बहुत कुछ याद आ गया …. 🙂
उत्कृष्ट प्रस्तुति
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