हम गुजरे तो खुली गली, तँग औ तारीक़ में बदल गयी
इस कदर बदलीं राहें कि, मंजिल ही बदल गई .
शाम को करने लगे जब, रोशन सुबहों का हिसाब.
जोड़ तोड़ कर पता लगा कि असल बही ही बदल गई.
झक दीवारों पर बनाए, स्याही से जो चील -बिलाव
देखा पलट जो इक नजर वो इमारत ही बदल गई.
घोटा तजुर्बों का लगा के हम चल दिए थे ठसक के
कुछ कदम पर यूँ लगा, वक़्त की नजर ही बदल गई.
देर तलक तकते रहे लगाए टकटकी जिस बुर्ज को
गिरा वो भरभरा के, थी नींव की नीयत ही बदल गई.
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अपने बारे में कुछ कहना कुछ लोगों के लिए बहुत आसान होता है, तो कुछ के लिए बहुत ही मुश्किल और मेरे जैसों के लिए तो नामुमकिन फिर भी अब यहाँ कुछ न कुछ तो लिखना ही पड़ेगा न. तो सुनिए. मैं एक जर्नलिस्ट हूँ मास्को स्टेट यूनिवर्सिटी से गोल्ड मैडल के साथ टीवी जर्नलिज्म में मास्टर्स करने के बाद कुछ समय एक टीवी चैनल में न्यूज़ प्रोड्यूसर के तौर पर काम किया, हिंदी भाषा के साथ ही अंग्रेज़ी,और रूसी भाषा पर भी समान अधिकार है परन्तु खास लगाव अपनी मातृभाषा से ही है.अब लन्दन में निवास है और लिखने का जुनून है.
आपकी लिखी रचना सोमवार 5 दिसंबर 2022 को
पांच लिंकों का आनंद पर… साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
घोटा लगा के तज़ुरबों का, चल दिये…. वक्त की निगाहें बदल गयीं.. वाह
वाह!!!
परिवर्तन नियम हैं प्रकृति का …
बहुत सुंदर सृजन
बहुत अच्छी प्रस्तुति
आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!