हमारे देश में ९० % लोग अपनी आजीविका से संतुष्ट नहीं हैं, उनकी क्षमता और कौशल कुछ और होते हैं, वह कोशिश व काम किसी और के लिए करते हैं और बन कुछ और ही जाते हैं. नतीजा यह होता है कि वे अपने काम से झुंझलाए रहते हैं और इस मजबूरी में अपनाये अपने आजीविका के साधन के लिए किसी न किसी को कोसते नजर आते हैं. 

सपनों को हक़ीक़त में बदलना मुश्किल अवश्य हो सकता है पर नामुमकिन नहीं। इसके लिए सबसे ज्यादा जरुरी है की सपने देखे जाएँ, उन्हें गंभीरता से लिया जाए , तभी उन्हें सच करने के लिए हम कोई कोशिश कर सकते हैं, पहले ही उन्हें सपने कह कर टाल देने से उन्हें हक़ीक़त बंनाने की संभावना ही ख़त्म हो जाती है. 

जिंदगी, कैरियर और आजीविका को लेकर हमारी सोच और शिक्षा व्यवस्था कुछ ऐसी है कि लगता है, सपनो और रुचियों के साथ चल कर आजीविका नहीं कमाई जा सकती  आजीविका कमाने के लिए या तो रुचियों और सपनो को त्यागना होगा या फिर रुचियों को अपनाया तो आजीविका हाथ नहीं आएगी। और यह जद्दोजहद बचपन से ही शुरू हो जाती है. बच्चा माँ की गोद से उतर भी नहीं पाता और उसे खिलौनों की जगह रंगीन पेन्सिल और किताबें लाकर दे दी जातीं हैं. उसे उसकी पसंद के खेल खेलने देने की जगह अपनी सुविधा और अपनी इच्छा के काम करने के लिए कहे जाते हैं. घर में मेहमानों के आने पर या तो उन्हें उनकी नोज , ईयर कहाँ है? ये क्विज खेलने की आज्ञा होती है या फिर कोई अंग्रेजी की कविता सुनाने का आदेश होता है. कहने का मतलब यह कि  बोलने, चलने के लायक होते ही, पहले घरवाले और फिर शिक्षा व्यवस्था उसकी आजीविका का माध्यम तय कर देते हैं. और उसके बाद शुरू होती वह अंधी चूहा दौड़ जिसमें कमोवेश हर बच्चे को दौड़ने के लिए मजबूर कर दिया जाता है.

धीरे धीरे उस बच्चे में भी यही धारणा पनपने लगती है कि यदि उसकी कोई रूचि है तो वह उसे सिर्फ अय्याशी  के तौर पर ही पूरी कर सकता है अन्यथा आजीविका के लिए उसे इसी अंधी दौड़ में शामिल होना होगा। रुचियों के माध्यम से वह अपनी आजीविका कभी पूरी नहीं कर सकता और न ही अपनी जिम्मेदारियों को निभा सकता है और यही उसकी नियती है.

इस रास्ते पर चलते हुए फिर शुरू होता है ,  समाज , व्यवस्था और अपनी जिम्मेदारियों पर दोषारोपण का दौर.- यह देश ऐसा है , यह समाज बेकार है, तुम्हारी खातिर मैंने यह किया, इसकी खातिर यह त्याग दिया, जिंदगी बेकार हो गई वगैरह वगैरह और हम पूरी जिंदगी जिम्मेदारियों और फ़र्ज़ को निभाने की बजाय उन्हें ढोते रहते हैं. या फिर  इस देश में यह संभव नहीं यह कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं. 
पर क्या वाकई इतना मुश्किल होता है अपनी रूचि को ही अपनी आजीविका बनाना ? 
माना कि हमारे देश में बहुत सी समस्याएं हैं, बहुत सी जिम्मेदारियां हैं परन्तु फिर भी अपनी थोपी हुई आजीविका के साथ हम उनका किसी न किसी तरह निर्वाह करते हैं, जी जान से मेहनत करते हैं, यथा संभव उनमें सामंजस्य बैठाने की कोशिश करते हैं.  परन्तु अपनी रुचियों को हमेशा पिछली सीट पर रखते हैं उसकी कोई अहमियत हमारी जिंदगी में नहीं होती, हम उसे गंभीरता से लेते ही नहीं, वह हमारे लिए सिर्फ मजे की चीज होती है, जिसकी असली जिंदगी में जगह सबसे आखिर में आती है. 
यहाँ बात कठिनाइयों, मजबूरियों से ज्यादा प्राथमिकता और सोच की आती है. रूचि को आजीविका में बदलने और उसे सिर्फ मौज मस्ती की एक वस्तु के रूप में रहने देने के बीच एक बारीक सी रेखा होती है जिसे समझना बहुत जरुरी होता है. और यदि आपमें अपनी रूचि को लेकर वह गंभीरता और पेशन है तो कोई वजह नहीं कि आप अपनी रूचि को अपनी आजीविका का साधन न बना सकें। हो सकता है कुछ समय लगे परन्तु आज नहीं तो कल आप अवश्य अपनी इच्छा का कार्य करने में सफल होते हैं और इसके लिए कभी कोई देर नहीं होती। आप अपने शौक को कभी भी आजीविका में परिवर्तित कर सकते हैं, जरुरत सिर्फ पूरे ज़ज़्बे की है. 
क्योंकि सिर्फ किसी को सजने संवरने का शौक है और वह कुछ नेता, अभिनेताओं की नक़ल कर लेता है इसका मतलब यह नहीं कि वह अभिनेता बन जाएगा। या यदि कोई तेज रफ़्तार से गाड़ी चलाता है तो वह रेसर बन जाएगा। यदि आप अपनी रूचि को अपना करियर बनाना चाहते हैं तो इस राह चलते शौक से एक कदम आगे बढ़कर आपको इसे गंभीरता से अपनाना होता है. इस शौक और अपने कौशल को व्यवसाय में तब्दील करने के लिए आपको वह सब जुगत लगानी होती है जो आप अपनी आजीविका के माध्यम के लिए लगाते हैं. 
दुनिया के हर देश में हर तरह के इंसान बसते हैं. और अधिकतर हर इंसान का लक्ष्य पैसा कमाना ही होता है. सबकी अपनी अपनी मजबूरियाँ और जिम्मेदारियां होती हैं जिन्हें पूरा करने के लिए हर एक के सामने कुछ स्थापित विकल्प होते हैं. परन्तु यदि आप अपनी रूचि को अपना व्यवसाय बनाना चाहते हैं तो उन रुचियों को व्यवसाय के अनुसार और उसके स्तर तक परिमार्जित करने की जरुरत होती है, सिर्फ खाली समय में की गई मस्ती को रूचि का नाम देकर आजीविका कमाने के ख्वाब देखने से बात नहीं बनती। 
जरुरत सोच बदलने की है. आने वाले वक़्त के अनुसार अपनी रुचियों को परिमार्जित करने की है,. उसे समाज की जरुरत के अनुसार लाभदायक बनाने की है और उन्हें व्यावसायिक तौर पर गंभीरता से लेने की है. 
क्योंकि यह जान लीजिये कि आने वाला समय या तो मशीनो का होगा या रचनात्मक इंसानों का उसमें मशीनी मानव के लिए कोई जगह नहीं होगी।