अब देखिये उसी के चलते हाल में हमारे कोयला मंत्री जी ने सारे आम आपत्तिजनक बयान दे डाला. आखिर अभिव्यक्ति की आजादी जो है हमारे यहाँ.कोई भी, कहीं भी, किसी को भी, बिना सोचे समझे कुछ भी कह सकता है.वो तो उनकी भलमनसाहत थी कि उसके बाद उन्होंने माफी मांग ली. नहीं भी मांगते तो क्या फरक पड़ता आखिर मजाक करने की भी आजादी है और हमारे नेताओं का तो सेन्स ऑफ़ ह्यूमर वैसे भी काफी मजबूत है इस मामले में । जैसे बोफोर्स ,चारा आदि घोटाले लोग भूल गए ऐसे ही कोयला घोटाला भी भूल जायेंगे। क्यों नहीं ..आखिर भूलने की भी आजादी है हमारी जनता को.अब तो लगता है कि कुछ कहावतों को बदलने की भी आजादी लेनी पड़ेगी – जैसे – कोयले की दलाली में हाथ काले होना ..अब शायद होगा कोयले की दलाली में हाथ ही क्या दिल दिमाग सब काले होना.
यूँ इस आजादी के नमूने नेताओं के बयानों और कार्यकलापों में ही नहीं देखने में आते जगह जगह हर क्षेत्र में देखने को मिल जाते हैं.पता चला कि यू पी के एक शहर का रेलवे प्लेटफोर्म इसलिए इतना गन्दा रहता है क्योंकि वहां के कर्मचारियों ने उसकी सफाई का ठेका किसी और को ४०००रु में दे रखा है और बाकी तनख्वाह(१५०००रु ) घर में बैठकर आराम से खाते हैं. आखिर आजाद हैं वो भी. सरकार को क्या उन्होंने तो तनख्वाह दे दी. अब उसका वो जो भी करें .और दूसरे ठेकेदार भी आजाद, उन्हें कौन सा सरकार ने रखा है. काम करें ना करें.और सरकार भी आजाद उन्होंने तो अपना काम किया, कर्मचारी नियुक्त किये, वेतन भी दिया अब और वो क्या कर सकते हैं.बाद में इसकी चर्चा एक मित्र से की तो पता चला ये तो चतुर्थ दर्जे के कर्मचारी हैं/ यह काम तो एक राज्य के अध्यापक तक करते हैं(अपना पढाने का काम किसी और को ठेके पे दे देने का). किसी तरह बात पचाई आखिर आजाद देश के नागरिक तो सभी हैं. हमने भी सोचा छोडो यार हम भी थोड़ी आजादी ले लें दिमाग से, और घूम आयें कहीं.सोचा भारत की शान ताज महल देख आया जाये. यूँ पहले भी कई बार देखा था पर अब तो ७ आश्चर्यों में भी शुमार हो गया है शायद छठा कुछ अलग हो.
परन्तु शहर में घुसते ही हर तरह की आजादी बिखरी हुई मिली .सड़क पर फैले कचरे के रूप में, कहीं भी खुदी हुई बंद सड़क के रूप में, सड़क बंद के होने पर किस रास्ते जाना है उसकी कोई सूचना के ना होने के रूप में, ऑटो, रिक्शा , ऊँट गाड़ी, घोड़ा गाड़ी सब मन मर्जी के पैसे मांगने के रूप में ..सब के सब आजाद. हर तरफ आजादी ही आजादी बेशुमार.
अब आप अगर इस आजादी के आदी हैं तो निभा लेंगे नहीं तो मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी की तर्ज़ पर आपको इसे एन्जॉय करने के अलावा कोई चारा नहीं है.सो हमभी इसे एन्जॉय करते ताज की टिकट खिड़की तक पहुंचे जहाँ कम से कम चार तरह की पंक्तियाँ थीं सो वक़्त कम लगा पर उसके बाद ताज में घुसने के लिए २ पंक्तियाँ एक पुरुष के लिए जो बेहद लम्बी थी और एक महिलाओं के लिए जो बहुत ही छोटी थी.पहली बार अपने महिला होने पर सुकून मिला और पहुँच गए तुरंत चेक पोस्ट तक.जहाँ एक टॉर्च जैसी चीज को सिर्फ आपके शरीर पर घुमाया जा रहा था. पर ये क्या…वहां ड्यूटी तैनात महिला ने भी अपनी काम करने की आजादी को अपनाया और बड़े रौब से बोलीं.. इस बच्चे को जेंट्स (११ साल का लड़का ) की लाइन में भेजिए. मैं इसकी चेकिंग नहीं कर सकती.हम हैरान परेशान कि बच्चे को अकेले कम से कम १ घंटे की पुरुषों की पंक्ति में अकेले हम कैसे भेज दें उसपर सूर्य महाराज भी पूरी आजादी से चमक रहे थे. और जब १४ साल से कम उम्र के बच्चों की टिकट नहीं है तो उन्हें अपने अविभावक के साथ किसी भी पंक्ति में लगने का अधिकार होना चाहिए. फिर बेशक आप चेकिंग के समय उन्हें दूसरे कूपे में भेज दें. सारी दुनिया में यही होता है. और यहाँ तक कि दिल्ली मेट्रो तक में यही देखा हमने. जहाँ पुरुष , महिलाओं की पंक्तियाँ बेशक अलग थीं पर नाबालिक बच्चों को अपने साथ रखने का अधिकार तो था.पर वहां वो महिला कुछ ज्यादा ही आजाद थीं. हाथ खड़े करके एलान कर दिया मैं जेंट्स की चेकिंग नहीं करुँगी. हमें पहली बार अपने बच्चे का जेंट्स (बड़े हो जाने का ) होने का एहसास हुआ .डर गए कहीं अभी ये मोहतरमा हम पर कोई और इल्जाम ना ठोक दें. तभी एक सुरक्षाकर्मी को हमारी स्थिति पर तरस आया और वह बच्चे को दूसरी तरफ पुरुष सुरक्षा जांच के लिए ले गया यह कहता हुआ कि आइन्दा नियमों का ध्यान रखियेगा.हमने उसे कृतज्ञता से देखा और यह भी कि कुछ विदेशी बड़े आराम से बिना पंक्ति के सुरक्षा जांच के लिए पहुँच गए. आखिर अथिति देवो भव: को मानने वाला है देश हमारा . और ये सवा सौ प्रतिशत आजादी भी उन्हीं की देन हैं तो इतना हक़ तो उनका बनता ही है .मन में एक ख़याल आया कि क्या अपना पासपोर्ट दिखाने से हमें भी वह हक़ मिल सकता था? अब बेशक आपको वो विदेशी वाला टिकट नहीं मिले पर और दूसरी बहुत सी सुविधा थीं जिनपर अपनी आजादी का प्रयोग करके हमने गौर ना करने की भूल की थी .जैसे बाहर कुछ लोग बड़ी ही निर्भीकता से कहते पाए गए थे देख लीजिये साहब .लाइन बहुत बड़ी है हमें दीजिये कुछ पैसे बिना लाइन के अन्दर पहुंचा देंगे. वर्ना बहुत कड़ी धूप है १ घंटा खड़ा रहना पड़ेगा परेशान हो जायेंगे अन्दर पानी भी नहीं मिलता. मुझे समझ में नहीं आया कि यह प्रशासन के लोग हैं या दलाल ताज दिखाने ले जा रहे हैं या उससे डराने.और स्थानीय पुलिस और सुरक्षा कर्मियों की सुरक्षा में घिरे यह देवदूत आजाद देश में पूरी तरह आजाद होने का जीता जागता सबूत पेश कर रहे थे.अब आपने यह सुविधा नहीं ली तो भुगतिए.उसके बाद वहां मौजूद पानी,जलपान आदि पर भी इसीतरह की कुछ आजादियाँ थीं. जितना सामान दुकानों के अन्दर नहीं था उससे ज्यादा बाहर फैला पड़ा था और साइड में पड़े कुछ कूड़े दान भी अपनी आजादी का जश्न मना रहे थे.
वहां हमने मान लिया कि उत्तर प्रदेश में कोई रोक टोक किसी चीज पर नहीं है वहां हाथी जैसे खूबसूरत पशु के साथ जिन्दा इंसानों के बुत बड़े शान से खड़े कर दिए जाते हैं. उनपर करोड़ों फूंका जाता है. तो यहाँ की साफ़ सफाई या रख रखाव के लिए पैसा भला कहाँ से आएगा अब पैसा कोई पेड़ पर तो उगता नहीं. महामहिम ने भी कह दिया है.परन्तु फिर हमें बताया गया कि दुनिया की सबसे खूबसूरत इस इमारत के परिसर की देखभाल का जिम्मा उत्तर प्रदेश सरकार का ना होकर ,केंद्र सरकार का है. अब एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि जब दिल्ली मेट्रो में लोगों की भीड़ को छोड़कर सभी व्यवस्थाएं बेहतरीन ढंग से काम कर सकती हैं तो फिर देश के सर्वाधिक प्रसिद्द जगह पर व्यवस्था का यह हाल क्यों.पर शायद यही विभिन्नता हमारे देश की खासियत है यहाँ कोस कोस पर पानी और वाणी ही नहीं इंसान और व्यवस्था भी बदल जाती है.
बधाइयाँ … लड़का बड़ा हो गया है … 😉
This is consequence when mobcracy is practiced in the name of democracy and merit is ignored in the name of social justice and secularism…
क्यूँ कीचड़ उछाल रही हो ~! हमरे प्रदेशवा पर !
अगर ये कहती कि ताज-महल पिछले ५०० साल से(लगभग)
बैसे ही खड़ा है जैसा अलाम्पन्हा खड़ा कर गए थे! तो बात बनती!
इतनी सरकारे आई गयी लेकिन ताजमहल बही खड़ा है! ये अचीवमेंट हैं!
बरना हम तो ऐसे हैं कि स्टेडियम हो या हाईवेज हों, पता ही नही लगने देते
कि कहा गए!
कमियां निकालनी खूब आती हैं! कोई मंत्री अपने दिल कि बात भी नही कह सकता!
अभी ८५ साला तो नही हुए हमरे एन.डी.टी कि तरह! कितनी होप बाकि है अभी!!
तुम सब एन. आर. आई हमारी व्यवस्था में खामियां ही ढूंढ़ते हो!
हमें अवार्ड मिलना चाहिए कि इतनी सारी अव्यवस्था के बाबजूद सब कुछ व्यवस्थित
तरीके से चल रहा है!
लिखा अच्छा है इसमें कोई शक नही!
हम अब आज़ाद हैं उससे भी ज़्यादा आज़ाद ख़्याल हैं, इसलिए किसी को मिल जाती है आज़ादी अपनी बुद्धि का प्रकाश बांटने को, जिसे सुनकर चाहे जो भी हाय-तौबा मचे वे तो अपनी बात को जस्टिफ़ाई कर ही देते हैं।
** अगर आप अपना पास्पोर्ट आदि दिखाती तों आपको फिर विदेशियों वाला रेट चार्ज करने की उनकी आज़ादी से गुजरना पड़ता आपको।
*** समस्या है, और इसका निदान भी होना चाहिए। पर उनकी इसे न करने की भी तो आज़ादी है।
आज़ादी है भई…………….
और हम लोगों को (जो भारत में ही रहते हैं )ये सब झेल कर मुस्कुराने की और कविताएं रचने की आज़ादी है…
और क्या चाहिए 🙂
अनु
यही तो हम भी कह रहे हैं…हम जैसा कोई कहाँ.
बहुत ही अच्छा और सामयिक विश्लेषण |
सही कह रही हैं आप!
आजाद तो नहीं मगर स्वछन्द जरूर हैं सब!
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है, ऐसी आज़ादी के लिये हमने बरसों तपस्या की होगी…
Bahut achchha likha hai shikha ji,
Hamare saath bhi "andar paani nahi milega" waala kaand kai baar hua tha… Dono bachchon ke saath hum to ghabra hi gaye the bhari march ki dhoop me…
Sahi kaha bhool jaayenge saare ghotalon ki tarah koyla bhi…
अब एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि जब दिल्ली मेट्रो में लोगों की भीड़ को छोड़कर सभी व्यवस्थाएं बेहतरीन ढंग से काम कर सकती हैं तो फिर देश के सर्वाधिक प्रसिद्द जगह पर व्यवस्था का यह हाल क्यों.पर शायद यही विभिन्नता हमारे देश की खासियत है यहाँ कोस कोस पर पानी और वाणी ही नहीं इंसान और व्यवस्था भी बदल जाती है.
बहुत सटीक बात काही आपने।
आ-गिरा (आगरा)का सिर्फ कुछ हिस्सा जैसे सदर बाज़ार और मोल रोड ही थोड़ा बहुत साफ सुथरा है वरना दूसरे चित्र से भी बदतर हालात आगरा के अंदरूनी हिस्सों मे देखने को मिलेंगे।
सादर
सही है अब आज़ादी तो आज़ादी है फिर चाहे इंसान की हो या कूड़ेदान की 🙂 यथार्थ का आईना दिखती बढ़िया पोस्ट।
हाँ शिखा. गज़ब आज़ादी मिली है सबको 🙁 ताज के पीछे की गन्दगी, सामने की गन्दगी देख के हम भी बहुत उदास हुए थे 🙁 हमें भी दलाल ने यही कहा था ….मथुरा के कृष्ण जन्म स्थान की लम्बी लाइन के पीछे भी ऐसे ही दलाल घूम रहे थे बिना चैकिंग के और बिना लाइन में लगे अन्दर भेजने के लिए. बहुत शानदार पोस्ट है, तस्वीरें भी.
उत्तर प्रदेश में घूमते ही आप व्यंग्यकार बन गईं! यह धरती कितनी सृजनशील है!!
'आज़ादी को पूरी उच्छ्रिन्खलता / धींगामस्ती के साथ जी रहा है भारतीय समाज. आगरा ही क्या लगभग प्रत्येक शहर की ऐसी ही जी उकता देने वाली स्थिति है. कामगार वर्ग हो या नौकरीपेशा वर्ग 'ऊपर' की कमाई के प्रति विशेष लगाव 'शिष्टाचार' का रूप ले चुका है. अफ़सोस भी होता है चिंता भी, पर क्या किया जा सकता है ? वस्तुस्थिति का सम्यक विश्लेषण करता विचारपूर्ण आलेख. बहुत अच्छा लगा.
ये कूड़े,ये कचरे, ये मलबों की दुनिया,
ये नेता से ज़्यादा दलालों की दुनिया,
ये देसी, विदेशी सवालों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!!
मेरा अनुभव तो यही कहता है एक भारतीय जो विदेशी नागरिक बन चुका है उसके लिए अधिक परेशानी है. वहाँ के लोग आपको देख कर विदेशी समझेंगे और यहाँ के लोग आपको विदेशी का दर्जा नहीं देंगे. आखिर हम गोरी चमरी वाले जो नहीं.
किसी किताब में पढ़ा था "जैसे हंसों में राजहंस श्रेष्ठ होता है, एकदम जगमग सफ़ेद, वैसे ही मनुष्यों में गोरे होते हैं"
जिन्होंने दुनिया देखी हो उनके लिए अव्यवस्था दिखेगी…जो गाँव देहात से ताज देखने आते हैं उनके लिए तो कोई परेशानी नहीं है ताज में…. एक बार हम भी गए थे… शुक्र है कि उस दिन महिला पुरुष की कतार बराबर थी…. अपने उत्तरदायित्वो को निभाने की आज़ादी के अलावे सब आज़ादी मना रहे हैं हम….
पहली बात हमने अब तक विदेशी नागरिकता नहीं ली है:)अभी तक भारतीय हैं.
दूसरी बात – मुझे भी ऐसा ही कुछ लगा था पहले. इसलिए मैंने लिखा भी"अब आप अगर इस आजादी के आदी हैं तो निभा लेंगे"
परन्तु बात देसी, विदेशी होने की उतनी नहीं है,क्योंकि वहां जो दलाल बेख़ौफ़ घूम रहे थे वे सभी को वही ऑफर दे रहे थे :).मीनाक्षी और वंदना जी के कमेन्ट पर गौर किया जाये. वो तो खालिस हिन्दुस्तानी हैं पर उनके भी अनुभव यही हैं.
देश भ्रमण के बाद देश विदेश का फर्क अचानक ज्यादा महसूस होने लगता है . वर्ना यहाँ तो टोलरेंस डेवेलप हो चुकी है.
वैसे यह देश जुगाड़ पर ही चल रहा है .
bahut बढ़िया धाराप्रवाह व्यंग लेख लिखा है .
पूरा देश ही ठेकेदारी पर चल रहा है. सरकार ही देख लो, 5 साल के लिए जिसका टेंडर खुलता है, देश डकार लेता है…
निन्यानवे बेईमान.
अंग्रेजों के जमाने में अनुशासन बहुत जबरदस्त था,समय की सख्त पाबंदी थी,स्कूलों में शिक्षा का स्तर एवं मूल्यांकन काबिले गौर था,कानून व्यव्स्था सुदॄढ़ थी,रेलवे का नेटवर्क जो वो बिछा गये बस वही है आज तक,तमाम सारी नामचीन इमारतें,शहर,बिजली परियोजनाएं,डैम सब उनके ही द्वारा या तो निर्मित हैं या डिज़ाइन्ड हैं | यही सब हम सबकी जुबानी अक्सर सुना करते हैं ।
फिर ऐसा क्या चाहिए था कि हम लोगों ने आज़ादी के लिए तमाम तकलीफें सही ,हज़ारों लाखों जाने कुर्बान की |क्या आवश्यकता थी इस सब की | लेकिन नहीं, वह थी पीड़ा, कि कोई दूसरा देश हम पर राज कर रहा है, हमारा अपनी जिंदगियों पर कोई नियंत्रण नहीं था ,गुलाम कहलाते थे हम लोग, सारी दुनिया में | और उस समय के लोगों ने कल्पना की थी कि आजादी के बाद हम अपने ऊपर स्वयं राज करेंगे और देश और देशवासियों के जीवन का गुणात्मक विकास करेंगे | फिर ऐसा क्या हुआ कि, हम आज तक अपने संकल्प में सफल नहीं हुए और गाहे बगाहे अभी भी अंग्रेजों को याद कर लेते हैं |
इसका सीधा सा एकमात्र कारण यह है कि हम लोगों ने आजादी का अर्थ निरंकुशता ,स्वछंदता, निर्भयता समझ लिया और देश को अपने बाप की जागीर समझ ली | इसका (स्वराज) सीधा सा समीकरण कुछ यूँ होना चाहिए था –सबसे पहले स्व-अनुशासन, फिर सर्व- अनुशासन, फिर स्व-शासन, और यह अंत में अपने आप हो जाता सु-शासन |
अगर हम गुड गवर्नेंस की बात करते हैं तो नागरिक के तौर पर हमारी भी जिम्मेदारी बनती है की हम सरकार की नीतियों का, योजनाओं का, खासकर सरकार की मंशा का समर्थन करें और यदि नेता ,नीति,नीयत किसी पर भी शंका हो तो उसका पुरजोर विरोध करें |
बड़े शर्म की बात है, लोग कहते हैं, और सच भी तो है की हमें तो सड़क पर भी चलना नही आता ,हमारे आचरण से दूसरे को क्या तकलीफ हो सकती है इसका ख्याल करना नही आता | अधिकार क्या हैं हमारे , इसका खूब भान है हमें, दायित्वों को जैसे भूले ही रहते हैं | आज हमारे देश की सारी समस्याओं के केवल दो ही समाधान हैं एक जनसंख्या नियंत्रण और दूसरा शतप्रतिशत सभी का शिक्षित होना | सारी समस्याएँ किसी ना किसी प्रकार से इन्ही दो समाधानों से हल हो सकती हैं | और अंत में, चूँकि हमने डेमोक्रेसी का चयन अपनी मर्जी से किया था तो उसमे निहित मूल्यों को भी संजोना होगा |
अरे हमारे प्रिय देश में स्वतंत्रता का अर्थ है दुसरे की नाक में दम करना . जाने कौन सा अंग्रेज वो मुहावरा बना गया था "योर फ्रीडम एंड्स व्हेयर माई नोज बिगिन्स ". रही बात नियम कानूनों को मानने वाली तो ये सब स्वतंत्रता का जश्न मानाने में बाधक है और साफ सफाई की बात मत कीजिये , हम कुछ भी करे ये हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है . वैसे वो वाली स्वतंत्रता अरे वही अभिव्यक्ति वाली का प्रयोग भी केवल टांग खिचाई और लगाई बुझाई के लिए सर्वथा उपयुक्त है . आपने कुशलता से इसकी पोल खोली है . आनंदित हुए .
अभिव्यक्ति की आजादी का भीषण उपयोग कड्डाला। 🙂
125 % आज़ादी…
आपको जो दिक्कतें पेश आई उसके लिए कोई माफी नहीं माँगेगा…
पर इतना हुआ कि हम जैसे दब्बु संवेदनशील आपकी इस पोस्ट को
पढ़कर उद्वेलित ज़रुर हुए. आपने देखा होगा 'अन्ना' की मुहिम
या लड़ाई हमारी ये सारी छोटी-छोटी दिक़्क़तों के आगे कुछ भी नहीं…
ताज को तो पहले भी देखा है, अब के एक और प्रोग्राम बन रहा है तो
इतना फायदा आपके इस आलेख से ज़रूर हुआ है कि एक घंटा कड़ी
धूप में लाइन में खड़े रहने की तैयारी के लिए एक पूरा सर ढके वैसी
कोटन की केप ले लेंगे और पानी की बोतल भी…'चाँदनी में ताज' पर
थोक में शेरो-शायरी और कविताएं पढी है अब हम लिखेंगे 'कडी धूप
में ताज' और हम… और घर के बाहर की गंदगी के आप न सही, हम
तो आदि हो चुके है…
आलेख में शिखा जी आपकी पूरी संवेदनशीलता उमड़ कर आई है…और
विडम्बनाएं भी… और प्रगतिशील भारत के लिए आपकी जागरुकता, चिंता
और दर्द भी…
सवा सौ प्रतिशत आज़ादी ले कर सब जी रहे हैं …. आदी हो चुके हैं इस गंदगी के … अब यदि यह न हो तो शायद बीमार पड़ जाएँ …. शुद्ध हवा मिले तो शायद फेफड़े काम करना बंद कर दें …उनको लगेगा कि इस हवा में तो दम ही नहीं है ….
तीखा कटाक्ष व्यवस्था पर … बेटे के बड़े होने की बधाई :):)
सच कहा आपने, उसी २५ प्रतिशत अतिरिक्त से हर स्थान को गन्दा करते चलते हैं हम।
सच एक एक शब्द पूरी व्यवस्था पर प्रहार करता हुया।– तो आप भारत आ कर चली भी गयी। शुभ्कामनायें।
शिखा जी
अपने कोयला मंत्री जायसवाल जी ने एक और बयान दिया है शायद आप ने सुना नहीं की नई नई जीत और पत्नी का एक अलग ही मजा होता है पुराने होने पर वो बात नहीं रह जाती है , और आप के वहा पहुँचने तक तो हम बनाना रिपब्लिक भी बन गये , जब बनाना रिपब्लिक बन गये तो काहे के नियम कानून |
हाँ मैंने सुना अंशुमाला ! उसी बेहूदे बयान का जिक्र किया है मैंने यहाँ.
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के साथ कर्म की भी स्वतन्त्रता है । तभी तो सवासौ प्रतिशत आजादी है ।
स्वतंत्रता नहीं स्वछंदता पसंद है हमें तो…. ये उसी का परिणाम
1यह काम तो एक राज्य के अध्यापक तक करते हैं. किसी तरह बात पचाई आखिर आजाद देश के नागरिक तो सभी हैं.
2 निभा लेंगे नहीं तो मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी
भारत दर्शन पर आपका नकारात्मक विचार जिससे सहमति बना पाना बहुत मुश्किल ही नहीं नामुमकिन . १०१ वीं पोस्ट आपको समर्पित करने का प्रयास किया जायेगा . क्योकि मुझे गर्व है भारतीय होने पर . .
आप शायद गलत समझे ..यह विचार भारत दर्शन पर नहीं सिर्फ आगरा दर्शन पर हैं. और निजी अनुभव पर आधारित हैं .और भारतीय होने पर मुझे भी गर्व है.फिर भी आपकी भावनाओं को अगर ठेस पहुंची है तो क्षमाप्रार्थी हूँ. बाकी आप भी अपने विचारों के लिए स्वतंत्र है. आभार आपका.
यमुना जी की तस्वीर बयां कर रही है, भारत के अख़बार हर रोज लाखों करोड़ों के घोटालों से भरे हुए हैं. मास्टर जी फिर भी लेखका जी से नाराज हैं. भारतीय होने का हम सब को गर्व है, पर जो कमियां हैं उन पर बात करने का सब को हक़ है . धन्यवाद
बहुत सार्थक चिंतन कराती प्रस्तुति …
फिलहाल हम खुद को सुधारने और सुधरे हुये रहने की कोशिश मे है। आशा है सवा सौ लोग भी कभी तो जागेगे…… वो जगाने वाला सवेरा कभी तो आएगा।
यह स्वतन्त्रता नहीं स्वछन्दता है ।
आदरणीय शिखा जी,
सादर प्रणाम …
आपके विचारों से पूरी तरह सहमत …..मैम अक्सर इससे भी बुरी कंडीशन हों जाया करती हैं,ताजमहल ही नही सारनाथ में भी कुछ ऐसा ही महसूस कर सकती हैं |यू पी कि बात १००% सही हैं ….
पूरी तरह सहमत
khubsurat prastutu…
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