पिछले दिनों गिरीश पंकज जी की एक ग़ज़ल पढ़कर कुछ यूँ ख़याल आये.
ये संघर्ष हद से गुजर न जाये देखना
औरत टूट कर बिखर न जाये देखना.
बैठा तो दिया है मंदिर में देवी बनाकर
वो पत्थर ही बन न जाये देखना
रोज उठती है,झुकती है,लचीली है बहुत
एक दिन अकड़ ही न जाये देखना.
नज़रों में छुपाये हैं हर आँख का पानी
बाढ़ बन कहीं बह न जाये देखना.
घर में रौशनी के लिए जो जलती है अकेली
वो “शिखा” भी कहीं बुझ न जाये देखना
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श्रद्धा पात्र से लेकर पूज्य देवी तक के सफ़र में हर बार औरत छली गई . अबला से सबला बनने के राह में अंधेरो से लड़ने के लिए "शिखा" का जलते रहना आवश्यक और महत्वपूर्ण है .कविता में द्वन्द साफ नजर आ रहा है .
रोज उठती है,झुकती है,लचीली है बहुत
एक दिन अकड़ ही न जाये देखना.
आपकी हर पोस्ट पढता हूँ. कुछ लिख नहीं पाता, यह ज़रूर है. समय का टोटा रहता है .यह पंक्ति बहुत अच्छी लगी.आपने हेडर बदला है.लेकिन पिछला हेडर ज्यादा बेहतर था.आपके ग्रीन सूट वाला.
इस जज्बे को सलाम!!
Amit Kumar Srivastava बहुत खूब..
परन्तु अंतिम पंक्ति से इत्तिफाक नहीं…..
"बुझने से पहले 'लौ' ने इतना उजाला कर दिया,
कि लौ लग गई सबकी उस 'लौ' से ,
और उस 'लौ' ने सबको मतवाला कर दिया
घर में रौशनी के लिए जलती है अकेली
किसी कोने, तम न होगा देखना………….
बहुत खूबसूरत रचना शिखा जी..
सादर.
घर में रौशनी के लिए जो जलती है अकेली
वो "शिखा" भी कहीं बुझ न जाये देखना
kya baat hai shikha ji .aap jaesi shikha sada prakash deti rahti hai.
shikha ji aap to har vidha me bahut sunder likh rahi hai
rachana
"बैठा तो दिया है मंदिर में देवी बनाकर
वो पत्थर ही बन न जाये देखना"
अक्सर ये होते देखा है … मंदिर की देवी बनने के चक्कर में … औरत को पत्थर बनते देखा है !
बहुत बढ़िया लिखा है …
रोज उठती है,झुकती है,लचीली है बहुत
एक दिन अकड़ ही न जाये देखना.
आधुनिकता को निशाना बनाकर यथार्थ व भारतीयता के धरातल पर लिखित यह रचना बहुत अच्छी लगी।
great presentation.ये वंशवाद नहीं है क्या?
नाचीज़ की रचना किसी काम तो आयी. इसी बहाने एक बेहद उम्दा-भावपूर्ण रचना का जन्म हो गया . यही है सृजन प्रक्रिया, एक दीप जलता है तो दूसरा भी भभक उठता है. जलती रहे रचना-शिखा. बधाई….
जो घर के लिए अकेली जलती हो वो भला कैसे बुझ सकती है ….
बैठा तो दिया है मंदिर में देवी बनाकर
वो पत्थर ही बन न जाये देखना …
ठोक – ठाक कर पत्थर बना ही दिया जाता है … फिर भी इस पत्थर से एक सोता निरंतर बहता है … बहुत खूबसूरत रचना
न बुझेगी, न अकड़ेगी, वह शाश्वत अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करती रहेगी।
बहुत भावप्रणव रचना!
जोत से जोत जलाते चलो, 'अमर ज्योति'
ये शिखा न बुझने वाली है …..मेरी आपत्ति!
कोई रूप शिखा ही नहीं यह है एक अमरता की ज्योति लिए साहित्य शिखा !
ये आलम शौक का देखा न जाए
ये बुत है या खुदा देखा न जाये! 🙂
बैठा तो दिया है मंदिर में देवी बनाकर
वो पत्थर ही बन न जाये देखना …
वाह ! कविताई में भी आप बाजी मार ले जाती हैं !
Totally Awesome!!
Loved it 🙂 🙂
बहुत सुन्दर. शिखा दैदीप्यवान रहे.
गहन भाव लिए उत्कृष्ट प्रस्तुति ।
सुंदर भाव..
बैठा तो दिया है मंदिर में देवी बनाकर
वो पत्थर ही बन न जाये देखना …
बहुत खूब … यही तो चाहता है अपना पुरुष समाज … बस बैठा के रखना चाहता है अपनी दासता में और देवी का नाम देता है …
shikha ji -bahut achchhe bhavon se bhari hai yah rachna .sarthak post .aabhar.
AB HOCKEY KI JAY BOL
नारी अब इतनी कमज़ोर भी नहीं रही की बिखर जाए , बह जाए , बुझ जाए .
मर्दों के कंधे से कन्धा मिलाकर अब
विकास की सीढ़ी चढ़ती जाएगी देखना !
सोचने पर मज़बूर करती सुन्दर रचना .
रोज उठती है,झुकती है,लचीली है बहुत
एक दिन अकड़ ही न जाये देखना.
बहुत बढ़िया
क्या बात है सीधे दिल से निकली है ….
अर्ज़ किया है …
बहुत चढ़ी है आंच पर अग्निपरीक्षा के खातिर
इस बरस वो ख़ाक ना हो जाए देखना
वाह, वाह!…औरत को यथा वत ही रहने देने में पुरुषों का पुरुषार्थ है!…उसे बदलने की कोशिश की गई तो…कुछ भी हो सकता है!….बहत सुन्दर और सार्थक रचना!
shikha to jalte diye ka naam hai…:)
badhai.. aur shubhkamnayen.. bahut aage jane ke liye..!!
बिलकुल सटीक द्वन्द….
घर में रौशनी के लिए जो जलती है अकेली
वो "शिखा" भी कहीं बुझ न जाये देखना….
इस सम्बन्ध में मेरा कहना है की जब तक भारतीयता जीवित है और घर पूरी तरह से मकान या बंगले में तब्दील नहीं हो जाते "शिखा" नहीं बुझेगी… वह घर से सारे समाज और देश को संस्कारित बनाये रखेगी… क्योंकि तमाम बहस और परिवर्तन के बीच भी उसे अपनी जिम्मेदारी का अहसास है….
बैठा तो दिया है मंदिर में देवी बनाकर
वो पत्थर ही बन न जाये देखना
बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
बैठा तो दिया है मंदिर में देवी बनाकर
वो पत्थर ही बन न जाये देखना
bahut khoob….
कल 15/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
क्या जलवेदार कविता है! वाह!
आखिर नारी को कबतक इतना कमजोर और शोषित बनाकर पेश किया जाता रहेगा? क्या नारी पुरुष की गुलाम है?
टूटने, बिखरने…फिर संभलने का क्रम तो हमारे जीवन में निरंतर चलता ही रहता है …सारी अनुभूतियाँ कभी कर्तव्यों की भेंट चढ़ जाती हैं …तो कभी ज़रूरतों की…लेकिन मन तो उड़ान भरना नहीं छोड़ता ना…
पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ …सुन्दर प्रस्तुति
ये संघर्ष हद से गुजर न जाये देखना
औरत टूट कर बिखर न जाये देखना.
MERA PRANAM AAPAKI BHAWANAON KO.
POWERFUL RISING THOUGHT.
Shandar.
वाह!!! क्या बात है बहुत खूब…बहुत ही सुंदर एवं सार्थक भाव संयोजन।
बेहतरीन
सादर
रोज उठती है,झुकती है,लचीली है बहुत
एक दिन अकड़ ही न जाये देखना.
bahut khoob….
lekin log usi ka intzaar karte hain….
fir doshi bhi usi ko bana dete hain….!!
मां के वात्सल्य से ही
रौशन है सारा जहाँ ।
औरत की गरिमा को
हमेशा बचाए रखना ।
…बेहतरीन रचना के लिए आभार ।
बैठा तो दिया है मंदिर में देवी बनाकर वो पत्थर ही बन न जाये देखना
बेहतरीन शेर कहा है आपने, वाह! ये शिखा घर के बाहर भी रौशन हो रही है जानकर बहुत अच्छा लगा।
औरत को भगवान ने शक्ति की भावना से बनाया हैं |इसीलिए उसे ज्यादा SQ/EQ दिया |उत्तम कविता |मन प्रफुल्लित हों गया
bade hi achchhe khayaal aae hain…
gazal behad achchhi ban padi hai, ban hi nahin padi hai ug aaee hai kisi bel ya paude ki tarah…
wah…………very touchy..!!
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