लरजती सी टहनी पर
झूल रही है एक कली
सिमटी,शरमाई सी
थोड़ी चंचल भरमाई सी  
टिक जाती है
हर एक की नज़र
हाथ बढा देते हैं
सब उसे पाने को 
पर वो नहीं खिलती
इंतज़ार करती है 
बहार के आने का
कि जब बहार आए
तो कसमसा कर 
खिल उठेगी वह 
आती है बहार भी 
खिलती है वो कली भी
पर इस हद्द तक कि 
एक एक पंखुरी झड कर 
गिर जाती है भू पर 
जुदा हो कर 
अपनी शाख से
मिल जाती है मिटटी में.
यही तो नसीब है 
एक कली का