निशा नहीं शत्रु, बस सुलाने आती है, चली जाएगी
हो कितना भी गहन अन्धेरा, उषा अपनी राह बनाएगी
समय की डोर थाम तू, मन छोड़ दे बहती हवा में
वायुवेग के संग सुगंध फिर, तेरा जी महकाएगी.

कार्य नियत उसे उतना ही, है जितनी सामर्थ्य जिसकी
गांडीव मिला अर्जुन को ही, बने कृष्ण उसके ही सारथी
हर एक का जन्म धरा पर, हुआ एक अनूप उद्देश्य से
पूर्ण वह कैसे करना है, स्वयं प्रकृति तुझे समझायेगी.

चढ़ा कर्म की प्रत्यंचा तू, तान दे जीवन तिमिर पर
ले हौसला मिट्टी से फिर, बाँध ले लक्ष्य क्षितिज पर
है सत्य जो निमित्त, तेरी हथेलियों पर है लिखा
चल आस का आसन सजा, सिद्धि आप ही सध जायेगी.