ना जाने कितने मौसम से होकर

 गुजरती है जिन्दगी
झडती है पतझड़ सी 
भीगती है बारिश में 
हो जाती है गीली 
फिर कुछ किरणे चमकती हैं सूरज की 
तो हम सुखा लेते हैं जिन्दगी अपनी 
और वो हो जाती है फिर से चलने लायक 
कभी सील भी जाती है
जब कम पड़ जाती है गर्माहट
फिर भी टांगे रहते हैं हम उसे 
कड़ी धूप के इन्तजार में  
आज निकली है छनी सी धूप 

पर फिर से किसी ने सरका दिया है पर्दा 

मेरी जिन्दगी पर पड़ती हुई  धूप पे   .