हम गुजरे तो खुली गली, तँग औ तारीक़ में बदल गयी

इस कदर बदलीं राहें कि, मंजिल ही बदल गई .

शाम को करने लगे जब, रोशन सुबहों का हिसाब.

जोड़ तोड़ कर पता लगा कि असल बही ही बदल गई.

झक दीवारों पर बनाए, स्याही से जो चील -बिलाव

देखा पलट जो इक नजर वो इमारत ही बदल गई.

घोटा तजुर्बों का लगा के हम चल दिए थे ठसक के

कुछ कदम पर यूँ लगा, वक़्त की नजर ही बदल गई.

देर तलक तकते रहे लगाए टकटकी जिस बुर्ज को

गिरा वो भरभरा के, थी नींव की नीयत ही बदल गई.