कुछ अंगों,शब्दों में सिमट गई 
जैसे सहित्य की धार 
कोई निरीह अबला कहे, 
कोई मदमस्त कमाल.
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दीवारों ने इंकार कर दिया है 

कान लगाने से 
जब से कान वाले हो गए हैं 
कान के कच्चे.

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काश जिन्दगी में भी 
गूगल जैसे ऑप्शन होते 
जो चेहरे देखना गवारा नहीं 
उन्हें “शो नेवर” किया जा सकता 
और अनावश्यक तत्वों को “ब्लॉक “

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 कोई सांसों की तरह अटका हो 
 ये ठीक नहीं 
 एक आह भरके उन्हें रिहा कीजिये.
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मेरे हाथों की लकीरों में कुछ दरारें सी हैं 

शायद तेरे कुछ सितम अभी भी बाकी हैं.


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हाथ फैला के सामने वो रेखाओं को बांचते हैं 
एक लकीर भी सीधी जिनसे खींची नहीं जाती.

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