आज से कुछ वर्ष पूर्व जब इस देश में आना हुआ था तब सड़कों में भारी मात्रा में वाहन होने के बावजूद गज़ब की शांति महसूस हुआ करती थी. कायदे से अपनी -अपनी लेंन में चलतीं, बिना शोरगुल के लेन बदलतीं, ओवेरटेक करती गाडियां मुझे अक्सर आश्चर्य में डाल दिया करतीं कि आखिर बिना हॉर्न  दिए यहाँ का यातायात इतना सुगम तरीके से कैसे चला करता है. पहले पहल मुझे लगा कि यह शायद यहाँ के शिष्टाचार में शामिल है कि बिना वजह हॉर्न  नहीं बजाना है. यदि बजाया इसका मतलब सामने वाले का अपमान किया है. परन्तु धीरे धीरे पता चला कि यह सिर्फ शिष्टाचार ही नहीं है बल्कि यहाँ का कानून भी है कि जब तक आपको सड़क पर चलते किसी वाहन को किसी खतरे के प्रति सावधान न करना हो, आप  हॉर्न नहीं बजा सकते, आपकी गाड़ी यदि खड़ी अवस्था में है तो हॉर्न  बजाना जुर्म है और उसके लिए आपको जुर्माना या सजा हो सकती है. यहाँ तक कि कुछ इलाकों में विशेष तौर पर हॉर्न  बजाना सख्त मना है. 
अभी कुछ समय पहले एक समाचार पत्र में पढ़ा कि एक कार चालक को एक बुजुर्ग के सड़क पार करते समय, अपनी कार को रोककर हॉर्न  बजाने पर कोर्ट ने दोषी पाया और उसपर भारी जुर्माना लगया गया. यानि कहने का तात्पर्य यह है कि ब्रिटेन (और ज्यादातर सभी पश्चिमी देशों ) के यातायात के नियमों के अनुसार सड़क पर  हॉर्न बजाना कानूनी जुर्म है. आप  हॉर्न  का प्रयोग चलती गाड़ी में सिर्फ तभी कर सकते हैं जब आपको आसपास की किसी गाड़ी को अपनी उपस्थित को लेकर आगाह करना हो या उसे किसी खतरे के प्रति चेताना हो.

अब हम जैसे देशों के मूल निवासियों के लिए यह कानून सुकून दायक तो था परन्तु समझ से बाहर था. आखिर हम जिस देश से आए थे वहाँ तो हॉर्न  बजाना नागरिक के मूल अधिकार जैसा था. बल्कि वाहनों के पीछे बड़े- बड़े अक्षरों में लिखा होता है कि “कृपया हॉर्न बजाएं” बल्कि यदि कोई बिना  हॉर्न बजाये चले तो उसे झिडकी सुनाई जा सकती है कि “गाड़ी में हॉर्न  नहीं है क्या ?” और तो और बिना  हॉर्न बजाये कार, बस, ट्रक तो क्या, साइकिल चलाना भी संभव नहीं है. फिर  यह परम्परा कोई आज की नहीं है.  हॉर्न का इतिहास हमारे देश में बहुत पुराना है. शायद नारद मुनि ने इसकी शुरुआत की हो. वह हमेशा अपने प्रकट होने से पहले अपनी वीणा के सुरों और नारायण -नारायण की ध्वनि से अपने आने की चेतावनी दिया करते थे. फिर उनसे प्रेरणा लेकर धरती पर मानव ने जानवरों के सींगों से भोंपू बनाने शुरू किये होंगे और इसका प्रयोग वह आपस में एक दूसरे को सन्देश देने के लिए किया करते थे. फिर धीरे धीरे इन भोपुओं का प्रयोग संगीत में होने लगा परन्तु मुख्य उद्देश्य फिर भी आपस में एक दूसरे को अपनी उपस्थिति से आगाह कराना ही रहा और इसी उद्देश्य के साथ वाहनों में हॉर्न  स्थापित करने का और उसका प्रयोग करने का नियम बना होगा. बरहाल विभिन्न देशों की लोकतांत्रिक गहनता को देखते हुए इस  हॉर्न के नियम कायदे भी विभिन्न रहे. जहाँ पश्चिमी देशों में इसके प्रयोग पर सख्ती बरती गई वहीँ दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में इसे बड़ी दिलेरी और सहजता से लिया गया जहाँ अपनी उपस्थिति को लेकर हॉर्न का प्रयोग लगभग मौलिक अधिकार समझा जाता है.
परन्तु वक्त ने करवट ली और ग्लोबलाइजेशन का असर इस भोंपू व्यवस्था पर भी पड़ने लगा.
जहाँ अब  भारत जैसे देशों में भी कुछ खास इलाकों में  हॉर्न बजाने को लेकर कुछ नियम बना दिए गए हैं वहीँ लन्दन जैसे शहर में पहले की अपेक्षा अब हॉर्न  की काफी आवाजें सुनाई देने लगीं हैं. आप एक सेकेण्ड के लिए ट्रैफिक लाईट पर रुके रह जाओ, पीछे से लोग  हॉर्न बजाने लगते हैं, ज़रा सी कम गति से वाहन चलाओ हॉर्न  सुनाई दे जाता है. और हॉर्न  ही नहीं बल्कि उसके साथ कुछ शील -अश्लील टिप्पणियाँ भी उछल कर सुनने को मिल जाती हैं. जहाँ यह शहर मशहूर था इस बात के लिए कि यहाँ एक आदमी के सड़क पार करने के लिए, रुकी हुई गाड़ियों की लंबी लाइन लग जाया करती है, वहीँ अब गाड़ी धीमी तक करने पर, कोई भी हॉर्न बजा देता है. अब यह पता नहीं ग्लोबलाइजेशन का असर है या वाकई यहाँ के लोग भी बेसब्रे होते जा रहे हैं. जो भी हो पर हॉर्न संस्कृति अपना रूप बदल रही है और साथ ही इस शहर का यातायात भी. 
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