सामने मेज पर क्रिस्टल के कटोरे में रखीं गुलाब की सूखी पंखुड़ियाँ एक बड़ा कप काली कॉफी और पल पल गहराती यह रात अजीब सा हाल है. शब्द अंगड़ाई ले, उठने को बेताब हैं और पलकें झुकी जा रही हैं. *************** अरे बरसना है तो ज़रा खुल के बरसो किसी के सच्चे प्यार की तरह ये क्या बूँद बूँद बरसते हो…
जब से देश छूटा हिंदी साहित्य से भी संपर्क लगभग छूट गया और उसकी जगह (उस समय तो मजबूरीवश) रूसी, ग्रीक, स्पेनिश,अंग्रेजी आदि साहित्य ने ले ली. कभी कभार कुछ हिंदी की पुस्तकें उपलब्ध होतीं तो पढ़ ली जातीं। कई बार बहुत कोशिशें करके कुछ समकालीन हिंदी साहित्य खरीदा भी जिनमें कई तथाकथित चर्चित पुस्तकें भी शामिल थीं. परन्तु उनमें से बहुत…
अपने बाकी साथियों से कुछ अलग थी वो. हालाँकि काम वही करती थी. गाने भी वही गाती थी, चलती भी वैसे ही थी और नाचती भी वैसे ही थी. परन्तु न बोली में अभद्रता थी, न ही स्वभाव में लालच और न ही ज़रा सा भी गुस्सा या किसी तरह की हीन भावना उसके स्वभाव में एक सौम्यता थी, वाणी में विनम्रता और उसका…
सृष्टि की शुरुआत से ही दो तरह के मनुष्यों का उदय हुआ , एक नर और एक नारी। जो शारीरिक रूप से एक दूसरे से भिन्न थे. अत: उन्हें मानसिक और भावात्मक रूप से भी एक दूसरे से भिन्न मान लिया गया. जॉन ग्रे ने तो अपनी प्रसिद्द पुस्तक में यहाँ तक कह डाला कि स्त्री और पुरुष अलग अलग गृह के निवासी…
तुमने मांगी थी वह बाती, जो जलती रहती अनवरत करती रहती रोशन तुम्हारा अँधेरा कोना. पर भूल गए तुम कि उसे भी निरंतर जलने के लिए चाहिए होता है साथ एक दीये का डालना होता है समय समय पर तेल.वरना सूख करबुझ जाती है वह स्वयंऔर छोड़ जाती हैदीये की सतह पर भीएक काली लकीर……
बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा। न जाने क्यों नहीं लिखा। यूँ व्यस्तताएं काफी हैं पर इन व्यस्तताओं का तो बहाना है. आज से पहले भी थीं और शायद हमेशा रहेंगी ही. कुछ लोग टिक कर बैठ ही नहीं सकते। चक्कर होता है पैरों में. चक्कर घिन्नी से डोलते ही रहते हैं. न मन को चैन, न दिमाग को, न ही पैरों को.…
जी हाँ,मेरे पास नहीं है पर्याप्त अनुभव शायद जो जरुरी है कुछ लिखने के लिए नहीं खाई कभी प्याज रोटी पर रख कर कभीनहीं भरा पानी पनघट पर जाकर बैलगाड़ी, ट्रैक्टर, कुआं और बरगद का चबूतरा सब फ़िल्मी बातें हैं मेरे लिए “चूल्हा” नाम ही सुना है सिर्फ मैंने और पेड़ पर चढ़ तोड़ना आम एक एडवेंचर,एक खेल जो कभी नहीं…
होली पर दुनिया गुझिया बना रही है और हम यह – सुनिये…. सुनिये….. ज़रा अपने देश से होली की फुआरें आ रही थीं कभी फेसबुक पे तो कभी व्हाट्स एप पे गुझियायें परोसी जा रही थीं कुछों ने तो फ़ोन तक पे जलाया था और आज कहाँ कहाँ क्या क्या बना सबका बायो डाटा सुनाया था सुन सुनके गाथाएँ हमें भी जोश…
मैंने अलगनी पर टांग दीं हैं अपनी कुछ उदासियाँ वो उदासियाँ जो गाहे बगाहे लिपट जाती हैं मुझसे बिना किसी बात के ही और फिर जकड लेती हैं इस कदर कि छुड़ाए नहीं छूटतीं ये यादों की, ख़्वाबों की मिटटी की खुश्बू की उदासियाँ वो बथुआ के परांठों पर गुड़ रख सूंघने की उदासियाँ और खेत की गीली मिटटी पर बने स्टापू की…
जब से इस दुनिया की आधी आबादी ने अपने अस्तित्व की लड़ाई आरम्भ की तब से अब तक यह लड़ाई न जाने किन किन मोड़ों से गुजरी। कभी चाहरदिवारी से निकल कर बाहर की दुनिया में कदम रखने के लिए लड़ी गई, कभी शिक्षा का अधिकार मांगती, कभी अपने फैसले खुद करने के लिए लड़ती तो कभी कार्य क्षेत्र में समान अधिकारों की मांग…