विज्ञान कभी भी अपने दिमाग के दरवाजे बंद नहीं करता। बेशक वह दिल की न सुनता हो परंतु किसी भी अप्रत्याशित, असंभव या बेबकूफाना लगने वाली बात पर भी उसकी संभावनाओं की खिड़की बन्द नहीं होती। यही कारण है कि आज हम बिजली का बल्ब, हवाई जहाज या टेलीफोन जैसी सुविधाओं का सहजता से उपयोग करते हैं जिनकी इनके अविष्कार से पूर्व शायद कल्पना भी नहीं कि जा सकती होगी। विज्ञान अपने आसपास की हर शै को अपने साथ लेकर चलने में, और उसकी मदद लेकर व्यावहारिक समाधान ढूंढने में यकीन करता है।

इसलिए अगर कोई कहता है एलोपैथी से आयुर्वेद का कोई मतलब नहीं और नेचरोपैथी से एलोपैथी का कोई मतलब नहीं तो मेरी समझ से तो वह कतई नासमझ है और विज्ञान पर विश्वास करने वाला तो बिल्कुल भी नहीं है।

बात मेरे प्रथम प्रसव की है। बेटी का जन्म भारत में हुआ और एक महीने बाद ही हमें लंदन आना था। डॉक्टर से परामर्श कर के हम आ गए। यहाँ मुझे प्रसव के बाद वाली कुछ परेशानियाँ होने लगीं। यहाँ की डॉक्टर ने जाँच की, कुछ दवाएं भी दीं पर कुछ असर नहीं हुआ। फिर उन्हें शक हुआ कि हो सकता है कुछ प्लेसेंटा अंदर रह गया हो। एक्सरे आदि किये गए पर सब ठीक था। अंततः डॉक्टर ने, साथ गए पति से पूछा “घर में कोई बड़ा या कोई और मददगार है?” उनके न में जवाब देने पर वह बोलीं ” फिर आप ही एक सप्ताह तक रोज दिन में दो बार यह बना कर इन्हें खिलाइए। और उन्होंने हरीरा (प्रसव के बाद स्त्री को खिलाया जाने वाला एक तरह का काढ़ा नुमा पदार्थ जो गुड़ और कुछ खास तरह के मेवा डालकर बनाया जाता है) की तरह की एक विधि उन्हें समझा दी। यह नियम एक सप्ताह तक निभाया गया हालांकि मेरी समस्या 4-5 दिन में ही ठीक हो गई थी।

अब आप यह तर्क दे सकते हैं कि वह डॉक्टर कोई बुजुर्ग भारतीय रही होगी। तो जनाब वह भारतीय मूल की तो शायद थीं पर जन्म और नागरिकता से ब्रिटिश थीं और बुजुर्ग भी नहीं थीं।

तो कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी खुले दिमाग वाला, अक्लमंद इंसान किसी भी ऑल्टरनेटिव के लिए अपने दिमाग के दरवाजे बंद नहीं करता है। यदि किसी भी विषय का ज्ञाता, दूसरे किसी विषय को सिरे से निरस्त करता है या बेकार कहता है तो वह ज्ञाता तो हो ही नहीं सकता।