इस आदम कद दुनिया में, लोगों का सैलाब है

पर इंसान कहाँ हैं?

रातों के अंधेरे मिटाने को, बल्ब तो तुमने जला दिए

पर रोशनी कहाँ है?

तपते रेगिस्तानों में भी बना दी झीलें तुमने

पर आंखों का पानी कहाँ है?

सजाने को देह ऊपरी, हीरे जवाहरात बहुत हैं

पर चमकता ईमान कहाँ है?

इस कंक्रीट के जंगल में मकान तो बहुत हैं

पर घर कहाँ हैं।

मकानों में, हवेलियों कमरे तो हैं अनगिनत

पर उनमें रहने वाले अपने कहाँ हैं।

उड़ान भर के छाप लिया पंजा चाँद पर

पर पाँव जमाने को ज़मीं कहाँ है।