गद्य

बाबू मोशाय बात ऐसी है कि हमें लगता है, जितने भी त्यौहार वगैरह आज हैं सब इत्तेफाकन और परिस्थिति जन्य हैं। तो हुआ कुछ यूं होगा कि एक परिवार में (पहले संयुक्त परिवार होते थे) किसी की किसी से ठन गई। महीना था यही फागुन का। नए नए टेसू के फूल आये थे। पहले लोग इन्हीं फूलों आदि के रंग…

ये जो लाल ईमारत देख रहे हैं न. तो यह लाल रंग बैल के खून से बनाया जाता था. अब बैल के खून से ही क्यों? सूअर या किसी और के खून से क्यों नहीं ? तो वह इसलिए कि बैल का खून सबसे महंगा होता था और तब रईसों की शान का यह एक दिखावा था. आज यह यूरोप…

यह साल खास था. कुछ अलग. अलग नहीं, बहुत अलग. इतना अलग कि मैं मुड़ मुड़ कर देखती रही, पूछती रही – “ ए जिन्दगी ! तुम मेरी ही हो न? किसी और से बदल तो न गईं? तुम ऐसी तो न थीं. न जाने कितना कुछ अप्रत्याशित घटा. कितने ही पल ऐसे आये जिन्हें दुनिया ख़ुशी कहती है. मैं…

“The Archies”- हुआ यह कि कुछ अमीर बच्चों ने जिद करी कि उन्हें इस क्रिसमस पर गिफ्ट में फिल्म चाहिए. तो उनके घरवाले गए एक बड़ी और सुन्दर दूकान पर और दुकानदार को बोला कि इन बच्चों को इनकी पसंद का गिफ्ट दे दे. पैसे की चिंता न करे. अब उस दुकानदार के पास उन बच्चों के लायक कोई चीज…

यह उस दौर की बात है जब न तो मोबाइल फ़ोन थे, न सोशल मीडिया और न ही पूरी दुनिया को एक क्लिक से जोड़ता हुआ इन्टरनेट. ले दे कर या काले चोगे वाला जम्बो टेलीफोन था, (जिसकी लोकल कॉल्स भी खासी महँगी थीं) या फिर दूरदर्शन. इनके इस्तेमाल पर भी माँ बाप का पहरा रहा करता था. तो बेचारे नए…

देशकाल, परिवेश जो भी हो. सभ्यता के प्रारंभ से ही मनुष्य प्रकृति की तरफ आसक्त था. वह जानता था कि प्रकृति सबसे महत्वपूर्ण है अत: प्रकृति को ही पूजता था. उसी के संरक्षण के लिए उसने अपनी आस्था से जुड़े त्यौहार और रिवाज बनाये जिससे कि लोग उनका पालन श्रृद्धा के साथ कर सकें. यही कारण है कि आज भी…

तब डबल बेड पर चार और लोगों के साथ सिकुड़े – सिकुड़े लेट कर सोने में जो सुकून आता था, आज किंग साइज़ के पलंग पर फ़ैल कर सोने में भी नहीं आता. वह सुकून आपसी विश्वास का था. इस विश्वास का कि आजू बाजू जो लोग हैं वे अपने हैं, साथ हैं और हमेशा साथ और यदि हम साथ साथ हैं…

वह होने को तो एक ड्यूप्लेक्स घर था तीन कमरों वाला पर उसे दो घरों के तौर पर किराये पर दिया गया था। लन्दन के इस तरह के देसी बहुल इलाकों में मकान मालिकों ने इसी तरह कर रखा है। 30-35 साल से यहाँ रह रहे हैं, कमा – बचा कर खूब सारे घर खरीद लिए और फिर उनके 2…

आज भी जब हो जाते हैं मन के विचार गड्डमड्ड डिगने लगता है आत्मविश्वास डगमगाने लगता है स्वाभिमान नहीं सूझती कोई राह उफनने लगता है गुबार छूटने लगती है हर आस तो दिल मचल कर कहता है तुम कहाँ हो ? यहाँ क्यों नहीं हो? फिर एक किरण आती है नजर भंवर में जैसे मिल जाती है डगर भेद सन्नाटा…

अंधेरों के दरवाजों में ताले नहीं होते. उनकी चाबियाँ भी नहीं होतीं. इसलिए उन्हें लॉक नहीं किया जा सकता. बस भेड़ा जा सकता है जो मिलते ही ज़रा सी नकारात्मकता की ठेल, खुल जाते हैं और फ़ैल जाता है सारा अँधेरा आपके मन मस्तिष्क पर. उसमें खो जाता है आपका अस्तित्व और गुम हो जाते हैं आप. नहीं दिखाई पड़ते किसी…