कविता

होरी खेलन चल दिए श्री मुसद्दी लाल कुर्ता धोती श्वेत चका चक, भर जेब में अबीर गुलाल. दबाये मूँह में पान, कि आज़ नही छोड़ेंगे संतो भौजी को तो, आज़ रंग के ही लौटेंगे. और फिर भोली छवि भौजी की, अंखियन में भर आई बिन गुलाल लाल भए गाल, होटन पे मुस्की सी छाई. आने लगी याद लड़कपन की वो…

कहने को तो ये भीड़ है सड़कों पर कदम मिलते लोगों का रेला भर पर इसी मैं छिपी है संपूर्ण जिंदगी किसी के लिए चलती तो किसी के लिए थमती किसी के लिए आगाज़ भर तो किसी को अंजाम तक पहुँचाती इस रेले मैं आज़ किसी के पेरो को लग गये हैं पंख कि नौकरी का आज़ पहला दिन है…

मैं तो हरदम तेरे संग ही रहूंगी कभी उतर कर तेरे ख़यालों में बन कविता तेरे शब्दों में उकरूँगी या फिर बन स्याही तेरी कलम की तेरे कोरे काग़ज़ पर बिखरुंगी यूँ ही हरदम तेरे संग रहूंगी हो शामिल सूर्यकिरण में कभी बन आभा तेरे चेहरे पर उभरूँगी थक कर सुसताने बैठेगा  जब तू बन पवन तेरे बालों में  फिरूंगी जेसे भी हो बस तेरे…

खुशनुमा सी एक शाम को यूं ही बैठे, मन पर पड़ी मैली चादर जो झाड़ी तो, गिर पड़े कुछ मुरझाये वो स्वप्नफूल, बरसों पहले दिल में दबा दिया था जिनको. पर जैसे दिल में कहीं कोई सुराग था, की हौले हौले सांस ले रहे थे सपने, पा कर आज अंशभर ऊष्मा ली अंगडाई, उमंग खिलने की फिर से जाग उठी…

समेटे हर लम्हा खुद में हर ख्वाब का इन पर बसेरा है झुकती हैं जब हौले से ये शर्मो हया की वो बेला है जो उठ जाएँ कुछ अदा से मन भंवर ये बबला हो जाये ये पलकें हैं प्यारी पलके न बोले पर सब कह जाएँ जो दो पल झपकें ये पलकें तन मन सुकून यूं पा जाये जो…

काव्य का सिन्धु अनंत है शब्द सीप तल में बहुत हैं। चुनू मैं मोती गहरे उतर कर ऊहापोह में ये कवि मन है। देख मुझे यूँ ध्यान मगन पूछे मुझसे मेरा अंतर्मन, मग्न खुद में काव्य पथिक तुम जा रहे हो कौन पथ पर तलवार कर सके न जो पराक्रम कवि सृजन यूँ सबल समर्थ हो भटकों को लाये सत्य…

दुनिया का एक सर्वोच्च गणराज्य है उसके हम आजाद बाशिंदे हैं पर क्या वाकई हम आजाद हैं? रीति रिवाजों के नाम पर कुरीतियों को ढोते हैं , धर्म ,आस्था की आड़ में साम्प्रदायिकता के बीज बोते हैं। कभी तोड़ते हैं मंदिर मस्जिद कभी जातिवाद पर दंगे करते हैं। क्योंकि हम आजाद हैं…. कन्या के पैदा होने पर जहाँ माँ का…

होली के सच्चे रंग नही अब यहाँ खून की है बोछर दीवाली पर फूल अनार नही अब मानव बम की गूँजे आवाज़ ईद पर गले मिलते नही क्यों गले काटते हैं अब लोग क्रिसमस पर अब पेड़ नही लाशों का ढेर सजाते हैं क्यों लोग हो लोडी,ओडम या तीज़,बैशाखी अब बजते हैं बस द्वेष राग सस्ती राज़नीति मैं बिक गये…

माँ!आज़ ज्यों ही मैं तेरे गर्भ की गर्माहट में निश्चिंत हो सोने लगी मेने सुना तू जो पापा से कह रही थी। और मेरी मूंदी आँखें भर आईं खारे पानी से। क्यों माँ! क्यों नही तू चाहती की मैं दुनिया में आऊँ ? तेरे ममता मयी आँचल में थोड़ा स्थान मैं भी पाऊँ ? भैया को तेरी गोद में मचलते…

धागे जिंदगी के कभी कभी उलझ जाते हैं इस तरह की चाह कर फिर उन्हें सुलझा नही पाते हैं हम. कोशिश खोलने की गाँठे जितनी भी हम कर लें मगर उतने ही उसमें बार बार फिर उलझते जाते हैं हम. धागों को ज़ोर से खीचते भी कुछ भय सा लगने लगता है वो धागे ही टूट ना जाएँ कहीं यूँ…