कविता

कौन कहता है दर पे उसके, देर है- अंधेर नही, मुझे तो रोशनी की एक, झलक भी नही दिखती. मिलना हो तो मिलता है, ख़ुशियों का अथाह समुंदर भी, पर चाहो जब तो उसकी, एक छोटी सी लहर भी नही दिखती. हज़ारों रंग के फूल हैं, दुनिया के बगानों में, मगर मेरे तो नन्हें दिल की एक कली भी नही…

काश तुम -तुम ना होते, काश हम – हम ना होते. जब ये ठंडी हवा , गालों को छूकर बालों को उड़ा जाती, जब मुलायम ओस पर सुनहरी धूप पड़ जाती काश उस गीली ओस पर तब हम, तुम्हारा हाथ थामे चल पाते. जब कोई अश्क चुपके से, इन आँखों से लुढ़कने लगता, ये दिल किसी की याद में चुपके…

कभी देखो इन बादलों को! जब काले होकर आँसुओं से भर जाते हैं, तो बरस कर इस धरा को धो जाते हैं. कभी देखो इन पेड़ों को,  पतझड़ के बाद भी, फिर फल फूल से लद जाते हैं, ओर भूखों की भूख मिटाते हैं. कभी देखो इन नदियों को, पर्वत से गिरकर भी, चलती रहती है, अपना अस्तित्व खोकर भी…

हसरतों के चरखे पर, धागे ख़्वाबों के बुनते रहे यूँ ही हम गिरते रहे , यूँ ही हम चलते रहे. पहले क़दम पर फ़ासला था, कई कोसों दूर का, फिर भी हम हँसते हुए सीड़ी दर सीड़ी चड़ते रहे. ना जाने क्या खोया, जाने पाया क्या दोर’ए सफ़र फूल कांटें राह के, हालाँकि हम चुनते रहे. फूल तो मुरझा गए,…

ख्वाइशों की कश्ती में अरमानो की पतवार लिए जब हम निकले थे सपनो के समंदर में, तो सोचा न था वहाँ तूफ़ान भी आते हैं . कल्पना के पंख लगाये जब ये मन उड़ रहा था खुले आसमान में , तो ये मालूम न था कि वहाँ काले बादल भी छाते हैं… इस दिल के बगीचे में कुछ कोमल खुशबू…

क्या चाहा था, बहुत कुछ तो चाहा ना था क्या माँगा था खुदा से, बहुत कुछ तो माँगा ना था. जो मिला ख़ुशनसीबी थी पर थी, गम के आँचल से लिपटी, लगा बिन मांगे मोती मिला, पर था नक़ली वो मालूम ना था. हर सुख मिला पर था आँसुओं की आड़ में, हर फूल मिला पर था काटों के साथ…

ओरों की पूरी होते देख तमन्ना, हमने भी एक तमन्ना कर ली. ना जाने कितने ख्वाब देख डाले एक ही रात में, की ख्वाब देखने से ही हमने नफ़रत कर ली. खुशनसीब होते हों दुनिया के तम्न्नाई, हमने तो तमन्ना कर के ज़िंदगी बदल कर ली. जहाँ मैं सभी को हक़ है तमन्ना करने का, इस खुशफहमी ने भी आज़…

आज़ तो लगता है जैसे जहाँ मिल गया, ये ज़मीन मिल गई आसमान मिल गया. हों किसी के लिए ,ना हों मायने इसके, मुझे तो मेरा बस एक मुकाम मिल गया. एक ख्वाब थी ये मंज़िल ,जब राह पर चले थे, एक आस थी ये ख्वाइश जब ,मोड़ पर मुड़े थे, धीरे-धीरे ये एक मुश्किल इम्तहान हो गया, पर आज़…

फिर वही धुँधली राहें, फिर वही तारीक़ चौराहा. जहाँ से चले थे एक मुकाम की तलाश में, एक मंज़िल के एक ख्वाब के गुमान में पर घूम कर सारी गलियाँ आज़, फिर हैं मेरे सामने-  वही गुमनाम राहें , वही अनजान चौराहा. तय कर गये एक लंबा सफ़र, हल कर गये राह की सब मुश्किलातों को, पर आज़ खड़े हैं…

क्यों घिर जाता है आदमी, अनचाहे- अनजाने से घेरों में, क्यों नही चाह कर भी निकल पाता , इन झमेलों से ? क्यों नही होता आगाज़ किसी अंजाम का ,क्यों हर अंजाम के लिए नहीं होता तैयार पहले से? ख़ुद से ही शायद दूर होता है हर कोई यहाँ, इसलिए आईने में ख़ुद को पहचानना चाहता है, पर जो दिखाता…