कविता

सुनो आज मौसम बहुत हसीं है  फिफ्टी फिफ्टी  के अनुपात में सूरज और बादल टहल रहे हैं चलो ना , हम भी टहल आयें जेकेट – नहीं होगी उसकी ज़रूरत हाँ ले चलेंगे अपनी वो नीली छतरी जिसपर  गिरती हैं जब बारिश की बूँदेंतो रंग आसमानी सा हो जाता है और टप टप की आवाज के साथ लगता है जैसे खुले आकाश के नीचे कर रहा हो कोई…

रात बहुत गहरी है  फलक पर सिमटे तारे हैं  एक बूढा सा चाँद भी  अपनी बची खुची चाँदनी, ओढ़े खडा है.  आस्माँ ने मुझे  दिया है न्योता, सितारों जड़ी एक चादर  बुनने का. इसके एवज में उसने  किया है वादा  शफक पर थोड़ी सी  जगह देने का.  पर मुझे तो पता है  शफ़क़ सिर्फ एक धोखा है  ये चाल है निगोड़े आस्माँ…

कल रात सपने में वो मिला था  कर रहा था बातें, न जाने कैसी कैसी  कभी कहता यह कर, कभी कहता वो  कभी इधर लुढ़कता,कभी उधर उछलता  फिर बैठ जाता, शायद थक जाता था वो  फिर तुनकता और करने लगता जिरह  आखिर क्यों नहीं सुनती मैं बात उसकी  क्यों लगाती हूँ हरदम ये दिमाग  और कर देती हूँ उसे नजर अंदाज  मारती रहती हूँ…

रिश्ते मिलते हों बेशक  स्वत: ही  पर रिश्ते बनते नहीं  बनाने पड़ते हैं। करने पड़ते हैं खड़े  मान और भरोसे का  ईंट, गारा लगा कर निकाल कर स्वार्थ की कील  और पोत कर प्रेम के रंग  रिश्ते कोई सेब नहीं होते  जो टपक पड़ते हैं अचानक  और कोई न्यूटन बना देता है  उससे कोई भौतिकी का नियम। या ग्रहण कर लेते हैं मनु श्रद्धा  और हो…

सुना है 21 दिसंबर को प्रलय आने वाली है ..पर क्या प्रलय आने में कुछ बाकी बचा है ?.भौतिकता इस कदर हावी है की मानवता गर्त में चली गई है, बची ही कहाँ है इंसानों की दुनिया जो ख़तम हो जाएगी।मन बहुत खराब है .. यूँ राहों पर कुलांचे भरती पल में दिखती पल में छुपती मृगनयनी वो दुग्ध.धवल सी चंचल चपल वो युव…

बंद खिड़की के शीशों से  झांकती एक पेड़ की शाखाएं  लदी – फदी हरे पत्तों से  हर हवा के झोंके के साथ  फैला देतीं हैं अपनी बाहें  चाहती है खोल दूं मैं खिड़की आ जाएँ वो भीतर  लुभाती तो मुझे भी है  वो सर्द सी ताज़ी हवा  वो घनेरी छाँव  पर मैं नहीं खोलती खिड़की  नहीं आने देती उसे अन्दर शायद…

कभी कभी कुछ भाव ऐसे होते हैं कि वे मन में उथल पुथल तो मचाते हैं पर उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए हमें सही शैली नहीं मिल पाती। समझ में नहीं आता की उन्हें कैसे लिखा जाये कि वह उनके सटीक रूप में अभिव्यक्त हों पायें। ऐसा ही कुछ पिछले कई दिनों से  मेरे मन चल रहा था।  अचानक कैलाश गौतम जी की…

देश में आजकल माहौल बेहद राजनीतिक हो चला है. समाचार देख, सुनकर दिमाग का दही हो जाता है.ऐसे में इसे ज़रा हल्का करने के लिए कुछ बातें मन की हो जाएँ. हैं एक रचना लिखने के लिए पहले सौ रचनाएँ पढनी पड़ती हैं।परन्तु कभी कभी कोई एक रचना ही पढ़कर ऐसे भाव विकसित होते हैं मन में, कि रचना में ढलने को…

याद है तुम्हें ? उस रात को चांदनी में बैठकर  कितने वादे किये थे  कितनी कसमें खाईं थीं. सुना था, उस ठंडी सी हवा ने  जताई भी थी अपनी असहमति  हटा के शाल मेरे कन्धों से. पर मैंने भींच लिया था उसे  अपने दोनों हाथों से.  नहीं सुनना चाहती थी मैं  कुछ भी  किसी से भी. अब किससे करूँ शिकायत …

मन की राहों की दुश्वारियां निर्भर होती हैं उसकी अपनी ही दिशा पर और यह दिशाएं भी हम -तुम निर्धारित नहीं करते  ये तो होती हैं संभावनाओं की गुलाम  ये संभावनाएं भी बनती हैं स्वयं  देख कर हालातों का रुख  मुड़ जाती हैं दृष्टिगत राहों पे कुछ भी तो नहीं होता हमारे अपने हाथों में  फिर क्यों कहते हैं कि आपकी जीवन रेखाएं …