काव्य

  हम गुजरे तो खुली गली, तँग औ तारीक़ में बदल गयी इस कदर बदलीं राहें कि, मंजिल ही बदल गई . शाम को करने लगे जब, रोशन सुबहों का हिसाब. जोड़ तोड़ कर पता लगा कि असल बही ही बदल गई. झक दीवारों पर बनाए, स्याही से जो चील -बिलाव देखा पलट जो इक नजर वो इमारत ही बदल…

इस आदम कद दुनिया में, लोगों का सैलाब है पर इंसान कहाँ हैं? रातों के अंधेरे मिटाने को, बल्ब तो तुमने जला दिए पर रोशनी कहाँ है? तपते रेगिस्तानों में भी बना दी झीलें तुमने पर आंखों का पानी कहाँ है? सजाने को देह ऊपरी, हीरे जवाहरात बहुत हैं पर चमकता ईमान कहाँ है? इस कंक्रीट के जंगल में मकान…

कभी उस दुखी दिखती, बिसूरती औरत के कलेजे में  झाँक कर देखना जिसे तुमने कह दिया कि सुखी तो है फिर भी रोती है क्या कमी है जो आँचल खारे पानी से भिगोती है. कभी ज़रा प्यार से देखना उसका कंधा दबा कर शायद फिर सच्चे लगें तुम्हें उसके वो आँसू जिन्हें तुमने खारिज कर दिया मगरमच्छी बता कर. ज़रा उसके…

आज भी जब हो जाते हैं मन के विचार गड्डमड्ड डिगने लगता है आत्मविश्वास डगमगाने लगता है स्वाभिमान नहीं सूझती कोई राह उफनने लगता है गुबार छूटने लगती है हर आस तो दिल मचल कर कहता है तुम कहाँ हो ? यहाँ क्यों नहीं हो? फिर एक किरण आती है नजर भंवर में जैसे मिल जाती है डगर भेद सन्नाटा…

  वो जो आसमां में रोशनी सी चमकी है अभी, शायद तुम ही हो जिसकी रूह मुस्कुराई है। निहारा है जो बड़ी बड़ी गोल गोल आंखों से, तो शायद ये आब मेरी पलकों में उतर आई है। ये जो मेरे दिल में अचानक से हूक उठती है कभी, तुम्हारी ही रुबाई है जो मेरे शब्दों में कविताई है। हो न…

क्या अब भी होली की टोली घर घर जाया करती है ? क्या सांझ ढले अब भी  महफ़िल जमाया करती है। क्या अब भी ढोलक की थापों पे ठुमरी, ख्याल सजाये जाते हैं ? “जोगी आयो शहर में व्योपारी” क्या अब भी गाये जाते हैं। क्या अबीर गुलाल की बिंदी हर माथे पे लगाई जाती है ? क्या गुटके रेता…

हाँ मैंने देखा था उसे उस रोज़ जब पंचर हो गया था उसकी कार का पहिया घुटने मोड़े बैठा था गीली मिट्टी में जैक लिए हाथ में घूर रहा था पहिये को और फिर बीच बीच में आसमान को शायद वहीँ से कुछ मदद की आस में गंदे नहीं करने थे उसे अपने हाथ पर गालों पर लग चुकी थी ग्रीस जतन में…

अधिकार हमने ले लिए सम्मान अभी बाकी है। बलिदान बहुत कर लिए, अभिमान अभी बाकी है। फर्लांग देहरी दिए बढ़ा, आसमाँ पे अपने कदम। खोल मन की सांकले, निकास अभी बाकी है। रूढ़ियों के घुप्प अंधेरे चीर बनकर ‘शिखा’ स्त्रीत्व से चमकता, स्वाभिमान अभी बाकी है।…

तू शिव है मैं शक्ति नहीं तू सत्य है मैं असत्य सही तू सुन्दर है मैं असुंदर वही पर कुछ है जो भीतर है गुनता है पर दिखता नहीं तूने कभी पूछा नहीं मैंने भी तो कहा नहीं कदाचित प्रेम है तभी तुलता नहीं।…