हमारे समाज को रोने की और रोते रहने की आदत पढ़ गई है . हम उसकी बुराइयों को लेकर सिर्फ बातें करना जानते हैं, उनके लिए हर दूसरे इंसान पर उंगली उठा सकते हैं परन्तु उसे सुधारने की कोशिश भी करना नहीं चाहते .और यदि कोई एक कदम उठाये भी तो हम पिल पड़ते हैं लाठी बल्लम लेकर उसके पीछे…
लोकप्रिय प्रविष्टियां
देशकाल, परिवेश जो भी हो. सभ्यता के प्रारंभ से ही मनुष्य प्रकृति की तरफ आसक्त था. वह जानता था कि प्रकृति सबसे महत्वपूर्ण है अत: प्रकृति को ही पूजता था. उसी के संरक्षण के लिए उसने अपनी आस्था से जुड़े त्यौहार और रिवाज बनाये जिससे कि लोग उनका पालन श्रृद्धा के साथ कर सकें. यही कारण है कि आज भी…
कुछ अंगों,शब्दों में सिमट गई जैसे सहित्य की धार कोई निरीह अबला कहे, कोई मदमस्त कमाल. ******************* दीवारों ने इंकार कर दिया है कान लगाने से जब से कान वाले हो गए हैं कान के कच्चे. ********************* काश जिन्दगी में भी गूगल जैसे ऑप्शन होते जो चेहरे देखना गवारा नहीं उन्हें “शो नेवर” किया जा सकता और अनावश्यक तत्वों को…
पापा तुम लौट आओ ना, तुम बिन सूनी मेरी दुनिया, तुम बिन सूना हर मंज़र, तुम बिन सूना घर का आँगन, तुम बिन तन्हा हर बंधन. पापा तुम लौट आओ ना याद है मुझे वो दिन,वो लम्हे , जब मेरी पहली पूरी फूली थी, और तुमने गद-गद हो 100 का नोट थमाया था. और वो-जब पाठशाला से मैं पहला इनाम…
इसके बाद …हम अपने पाठ्यक्रम के चौथे वर्ष में आ पहुंचे थे …..और मॉस्को अपनी ही मातृभूमि जैसा लगने लगा था .वहां के मौसम , व्यवस्था ,सामाजिक परिवेश सबको घोट कर पी गए थे .अब हमारे बाकी के मित्र छुट्टियों में दौड़े छूटे भारत नहीं भागा करते थे , वहीं अपनी छुट्टियाँ बिताया करते थे या मोस्को का प्रसिद्द व्…