जाने किसने छिड़क दिया है तेज़ाब बादलों पर, कि बूंदों से अब तन को ठंडक नहीं मिलती. बरसने को तो बरसती है बरसात अब भी यूँही, पर मिट्टी को अब उससे तरुणाई नहीं मिलती. खो गई है माहौल से सावन की वो नफासत, अब सीने में किसी के वो हिलोर नहीं मिलती. अब न चाँद महकता है, न रात संवरती…