Yearly Archives: 2012

सपाट चिकनी सड़क के किनारे  कच्चे फुटपाथ सी लकीर  और उसके पीछे  कंटीली झाड़ियों का झुण्ड  आजू बाजू सहारा देते से कुछ वृक्ष  और इन सबके साथ चलती  किसी के सहारे पे निर्भर  यह कार सी जिन्दगी  चलती कार में से ना जाने  क्या क्या देख लेती हैं  ये ठिठकी निगाहें. ******************** पल पल झपकती  पुतलियों के मध्य  पनपता एक दृश्य  श्वेत…

लन्दन की बारिश का यूँ तो कभी कोई भरोसा नहीं, और लन्दन वासियों की इसकी खासी आदत भी है।परन्तु कभी कभी जब किसी खास आयोजन में जाना हो यह मोहतरमा बिना किसी पूर्व सूचना के आ धमकें तो बहुत ही खला करती हैं।ऐसा ही कुछ हुआ 19अक्तूबर की शाम को जब हमें “एशियन कम्युनिटी ऑफ़ आर्ट्स” द्वारा प्रसिद्ध कथाकार तेजेंद्र  शर्मा के…

आजकल लगता है हिंदी सिनेमा का स्वर्णिम समय चल रहा है।या यह कहिये की करवट ले रहा है।फिर से ऋषिकेश मुखर्जी सरीखी फ़िल्में देखने को मिल रही हैं। एक के बाद एक अच्छी फिल्म्स आ रही हैं। और ऐसे में हम जैसों के लिए बड़ी मुश्किल हो जाती है क्योंकि फिल्म देखना वाकई आजकल एक अभियान हो गया है.अच्छी खासी चपत लग…

याद है तुम्हें ? उस रात को चांदनी में बैठकर  कितने वादे किये थे  कितनी कसमें खाईं थीं. सुना था, उस ठंडी सी हवा ने  जताई भी थी अपनी असहमति  हटा के शाल मेरे कन्धों से. पर मैंने भींच लिया था उसे  अपने दोनों हाथों से.  नहीं सुनना चाहती थी मैं  कुछ भी  किसी से भी. अब किससे करूँ शिकायत …

जबसे भारत से आई हूँ एक शीर्षक हमेशा दिमाग में हाय तौबा मचाये रहता है “सवा सौ प्रतिशत आजादी ” कितनी ही बार उसे परे खिसकाने की कोशिश की.सोचा जाने दो !!! क्या परेशानी है. आखिर है तो आजादी ना. जरुरत से ज्यादा है तो क्या हुआ.और भी कितना कुछ जरुरत से ज्यादा है – भ्रष्टाचार  , कुव्यवस्था, बेरोजगारी, गरीबी , महंगाई…

कुछ दिन पहले अनिल जनविजय जी की फेस बुक दिवार पर एसेनिन सर्गेई की यह कविता  .Я помню, любимая, помню (रूसी भाषा में ) देखि. उन्हें पहले थोडा बहुत पढ़ा तो था परन्तु समय के साथ रूसी भी कुछ पीछे छूट गई. यह कविता देख फिर एक बार रूसी भाषा से अपने टूटे तारों को जोड़ने का मन हुआ.अत:  मैंने इसका…

लन्दन का मौसम आजकल अजीब सा है या फिर मेरे ही मन की परछाई पड़ गई है उसपर.यूँ ग्रीष्म के बाद पतझड़ आने का असर भी हो सकता है.पत्ते गिरना अभी शुरू नहीं हुए हैं पर मन जैसे भावों से खाली सा होने लगा है. सुबह उठने के वक़्त अचानक जाने कहाँ से निद्रा आ टपकती है ऐसे घेर लेती है कि…

  कुछ अंगों,शब्दों में सिमट गई  जैसे सहित्य की धार  कोई निरीह अबला कहे,  कोई मदमस्त कमाल. ******************* दीवारों ने इंकार कर दिया है  कान लगाने से  जब से कान वाले हो गए हैं  कान के कच्चे. ********************* काश जिन्दगी में भी  गूगल जैसे ऑप्शन होते  जो चेहरे देखना गवारा नहीं  उन्हें “शो नेवर” किया जा सकता  और अनावश्यक तत्वों को…

मन की राहों की दुश्वारियां निर्भर होती हैं उसकी अपनी ही दिशा पर और यह दिशाएं भी हम -तुम निर्धारित नहीं करते  ये तो होती हैं संभावनाओं की गुलाम  ये संभावनाएं भी बनती हैं स्वयं  देख कर हालातों का रुख  मुड़ जाती हैं दृष्टिगत राहों पे कुछ भी तो नहीं होता हमारे अपने हाथों में  फिर क्यों कहते हैं कि आपकी जीवन रेखाएं …

अमूमन कहा जाता है कि दोस्त ऐसे रिश्तेदार होते हैं जिन्हें हम खुद अपने लिए चुनते हैं. परन्तु मुझे लगता है कि दोस्त भी हमें किस्मत से ही मिलते हैं.क्योंकि मनुष्य तो गलतियों का पुतला है इस चुनाव में भी गलती कर सकता है खासकर जब बात अच्छे और सच्चे दोस्तों की हो.तो ऐसे दोस्त किस्मत वालों को ही नसीब होते…