कभी यूँ भी तो हो कि हम तुम मिलें और कोई काम की बात न हो. बेशक तुम लो चाय, मैं कॉफ़ी, और बस मुस्कुराहट हो. हों बहाने, शिकायतें, मशवरें, बस न हो कोई भी मकसद. मुफलिसी हो, मशक्कत हो, या फिर हो मशरूफ़ियत. आएं, बैठें, बोलें – बतियाएं, पर ज़हन में कोई उम्मीद न हो. हाँ कभी यूँ भी…