बहुत याद आता है गुजरा ज़माना सान कर दाल भात हाथों से खाना। वो लुढ़कती दाल को थाली में टिकाना, गरम गरम दाल में उंगलियां डुबाना, फिर “उईमाँ” चिल्लाकर, रोनी सूरत बनाकर, जली उँगलियों को मुँह तक ले जाना। खूब सारा भात परोस कर लाना, उसमें से आधा भी न खा पाना, मम्मी की नजरों से फिर खुद को बचाकर,…

यदि बंद करना है तो जाओ पहले घर का एसी बंद करो. हर मोड़ पर खुला मॉल बंद करो २४ घंटे जेनरेटर से चलता हॉल बंद करो. नुक्कड़ तक जाने लिए कार बंद करो बच्चों की पीठ पर लदा भार बंद करो. नर्सरी से ही ए बी सी रटाना बंद करो घर में चीखना चिल्लाना बंद करो. बच्चों से मजदूरी करवाना बंद करो कारखानों का प्रदुषण फैलाना…

अब उन पीले पड़े पन्नो से उस गुलाब की खुशबू नहीं आतीजिसे किसी खास दो पन्नो के बीच दबा दिया करते थे जो छोड़ जाता थाअपनी छाप शब्दों परऔर खुद सूख कर और भी निखर जाता था ।अब एहसास भी नहीं उपजते उन सीले पन्नो से जो अकड़ जाते थे खारे पानी को पीकरऔर गुपचुप अपनी बात कह दिया करते थे।भीग कर लुप्त हुए शब्द भी, अब कहाँ कहते…