भाषा – मेरे लिए एक माध्यम है अभिव्यक्ति का. अपनी बात सही भाव में अधिक से अधिक दूसरे  तक पहुंचाने का. अत: मैं यह मानती हूँ कि जितनी भी भाषाओं का ज्ञान हो वह गर्व की बात है परन्तु तब तक, जब तक किसी भाषा को हीन बना कर वह गर्व न किया जाये। 

यूँ जरुरत के वक़्त भाषा को किसी भी रूप में, कैसे भी इस्तेमाल किया जाए, मतलब भाव प्रकट करने  से होना चाहिए। आपकी बात सामने वाले तक सही अर्थ में पहुंचे, भाषा का मुख्य उद्देश्य यही है इस बात से मुझे कदापि इनकार  नहीं। परन्तु किसी भी भाषा के अनावश्यक, उपयोग के समर्थन में, मैं नहीं हूँ.


भाषाई नियम भी यही कहता है कि आप किसी भी भाषा में बात शुरू करें, परन्तु यदि सामने वाला दूसरी भाषा में जबाब दे रहा है और आपको उसकी वह भाषा आती है तो आपको आगे के संवाद उसी भाषा में करने चाहिए।
मैं अधिकतर इसी नियम का पालन करती हूँ. लेकिन कभी कभी बैठे बिठाए खुराफ़ात का दिल भी कर ही आता है. ऐसे में फेसबुक बड़ा कारगार सिद्ध होता है.
कुछ भाषा के विद्वान वहां हमेशा ही मिल जाया करते हैं. और उससे भी बड़ा सौभाग्य होता है, जब वे बड़ी शान से मैसेज बॉक्स में प्रकट होते हैं तथा अंग्रेजी में संवाद शुरू करते हैं,  अंग्रेजी भी ऐसी कि यदि अंग्रेजी खुद पढ़ ले तो “ओये बल्ले बल्ले करने लगे”- अत: मैं जबाब देती हूँ हिंदी में।  तुरंत वहां से फिर सवाल आता है अंग्रेजी में ही “आप लन्दन में रहती हैं” ? इस वाक्य के पीछे से आवाज आती है – “लगती तो नहीं… हुंह”। । मेरा भी मन पीछे से मुझे धक्का मार कर कहता है बोलो बोलो – नमक हलाल का वो डायलॉग – “हाँ जी एकदम रहती हूँ, लन्दन में ही, इवन आई कैन टॉक इंग्लिश, आई कैन वाक इंग्लिश, आई कैन लीव अंग्रेज बिहाइंड”।  पर दिमाग झिड़कता है- नहीं शिखा रानी ! सुधर जाओ, अनजानों से ज्यादा मज़ाक ठीक नहीं,तमीज़ से पेश आओ और मैं पूछती हूँ – आपको हिंदी नहीं आती ? 
वहां से जबाब आता है – “नो नो आई लव हिंदी, माय ग्रूमिंग इन हिंदी, आई राइट्स हिंदी पोएम, हिंदी में किताबें भी हैं बट इन माय कम्पूटर नो हिंदी डेट्स व्हाई”।

अब मैं उनकी हिंदी में बात न करने की मजबूरी समझती हूँ और नमस्कार कर लेती हूँ. क्योंकि मजबूरी तो मेरी भी है मुझे इतनी अंग्रेजी जो नहीं आती :(.