सुनो! पहले जब तुम रूठ जाया करते थे न,
यूँ ही किसी बेकार सी बात पर
मैं भी बेहाल हो जाया करती थी
चैन ही नहीं आता था
मनाती फिरती थी तुम्हें
नए नए तरीके खोज के
कभी वेवजह करवट बदल कर
कभी भूख नहीं है, ये कह कर
अंत में राम बाण था मेरे पास।
अचानक हाथ कट जाने का नाटक …
तब तुम झट से मेरी उंगली
रख लेते थे अपने मुहँ में,
और खिलखिला कर हंस पड़ती थी मैं….
फिर तुम भी झूठ मूठ का गुस्सा कर
ठहाका लगा दिया करते थे।
पर अब न जाने क्यों …..
न तुम रुठते हो
न मैं मनाती हूँ
दोनों उलझे हैं
अपनी अपनी दिनचर्या में
शायद रिश्ते अब
परिपक्व हो गए हैं हमारे
आज फिर सब्जी काटते वक़्त
हाथ कट गया है
ऐ सुनो! तुम आज फिर रूठ जाओ न
एक बार फिर मनाने को जी करता है
OMG! Kya feelings ubhaari hain aapne…………. dil ko chhoo gayi ek ek line…………. sachchi…………
baar baar padhne ka jee karta hai….. bahut shandar kavita……….
ऐ सुनो! तुम आज फिर रूठ जाओ न
एक बार फिर मनाने को जी करता है
kya khoob likha hai …..badhaai
आज की आपा-धापी भरे जीवन में गुम मनः-स्पंदन को बखूबी उकेरा है आपने,,,,
ऐ सुनो! तुम आज फिर रूठ जाओ न
एक बार फिर मनाने को जी करता है
प्यार, मनुहार, इजहार की यह अदा अत्यंत निराली है
ऊंगली न कटे किसी बार
सिर्फ बहाना ही रहे हर बार
तो अच्छा लगता है
मन को फबता है।
कटे न कभी हाथ भी
और छूटे न झूठे को
साथ भी
यही मन को फबता है।
बहुत बढ़िया
lijiye……. main phir aa gaya….. padhne….
kya karun…..?????????
aapne likha hi itna achcha hai….
itni achchi lagi ki ek baar phir aa gaya padhne………. aapne to ultimate kavita likhi hai….. yeh….. ki baar baar padhne ko mann kar raha hai……
शायद रिश्ते अब
परिपक्व हो गए हैं हमारे
बहूत ही कमाल का लिखा है … समय के साथ रिश्तों में भी नया PAN आना बहूत जरूरी होता है ..
sahaj aur sunder.
वो तो रूठा है मना लेंगे
वो तो रोता है मना लेंगे
वो तो बिगडा है बना लेंगे
फिर भी न माना तो …न माना तो देके खिलौना बहला लेंगे….
sach kaha Mahfooz bhai ne, ye un kavitaon me se hai jise jitni baar padha jaye kam hai..
lijiye ab phir aa gaya……….
kya karun man hi nahi maanta hai…..
sab aapki galti hai……. itna achcha likha hai aapne ki….. baar baar aane ko man kar raha hai………
आप सभी की खुबसूरत और होसला बढाने वाली प्रितिक्रियाओं का बहुत बहुत शुक्रिया….मुझे इस तरह की कवितायेँ लिखने का कोई तजुर्बा नहीं था पर आप लोगों के स्नेह और प्रोत्साहन के अपार प्रसन्नता हो रही है..एक बार फिर आप सभी का तहे दिल से आभार.
और महफूज़ साहब! आपका खासतौर पर शुक्रिया इतनी प्रशंशा करने का..आभार
अनोखा अन्दाज ………….लाज़वाब!
शिखा ,
बहुत ही प्यारी रचना…मान मनुहार करती सी… पढ़ते पढ़ते लगा कि
इन्द्रधनुष के सारे रंग बिखर गए हों.
सुरमई रंग लिए हुए .
शायद रिश्ते अब
परिपक्व हो गए हैं हमारे
लेकिन ये भी एक सच है..
पर अपने मन कि बात कहने का अंदाज़ बहुत सुन्दर है..
बधाई
एहसास को शब्दों में पिरोया है आपने
वाह !!
Thank you………. lekin main phir main aa gaya……..
kya karun? aapne likha hi itna achcha hai…. hehehehe….
शायद रिश्ते अब
परिपक्व हो गए हैं हमारे
आज फिर सब्जी काटते वक़्त
हाथ कट गया है
ऐ सुनो! तुम आज फिर रूठ जाओ न
एक बार फिर मनाने को जी करता है
वाह…
बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति है।
बधाई!
ek manovaigyaanik drishtikon
rachnaa meiN aapki lekhan kshamtaa
ujaagar ho rahi hai
badhaaee
शिखा ,ये कविता पढ़कर किसका अंगुलियाँ काटने का जी नहीं चाहेगा ,इतना ही सीधा सच्चा होता है प्यार ,कोई शब्दों की जादूगरी नहीं ,कोई वाक्य अभिव्यंजना नहीं ,सीधे सीधे दिल को धक् धक् कर देने की तकनीक ,मैं ये कह सकता हूँ ,ये अब तक की आपकी सर्वश्रेष्ठ रचना है |सिर्फ इतना कहूँगा ये केवल कविता नहीं है ,ये प्यार है जिन्हें भी लगता हो रिश्तों में प्यार की तासीर कम हो गयी है ,आयें इसे पढें और चखें ,दावा है फिर से एक दूसरे को जीने लगेंगे |
आखिरी पंक्ति जो शेफाली जी को पसंद आई है मैं वहां तक आते ही चौंक जाता हूँ. कविता का शिल्प बेहतर है. बधाई !
wah! main phir aa gaya padhne……….. ek ek lafz is kavita mein jeevant hain………..
बहुत ही सीधी , सच्ची सी बात कह दी है शिखा जी आपने
क्यूंकि उम्र के एक पड़ाव में ये भी वक़्त आता है, जब मन तो मिलते हैं
लेकिन, दूरियां बढती जाती हैं, ये time ka तकाजा है,
या जो भी हो, बड़े ही सुन्दर ढंग से आपने सभी के मन की
बात रख दी, बहुत बहुत बधाई स्वीकारें
baise aapke ye rang dekh kar achcha laga
kuch alag sa experiment kiya aapne, aur usme safal bhi hue
गौरव वशिष्ट
bahu
बहुत प्यारी ख्वाहिश है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को प्रगति पथ पर ले जाएं।
Waah! main phir……. aa gaya………… itna sunder likha hai aapne ki main phir aa gaya……..
शिखा जी,
सच में वक़्त के साथ रिश्तों में कितना बदलाव आ जाता है, बिल्कुल सोच से परे होता है| समझ भी नहीं पाते कि ''कब हम जीवन जीते जीते जीना छोड़ महज जी रहे होते|''
मन की गहराइयों से सभी प्रौढ़ नारी के मन की बात आपने कह दी है…
पर अब न जाने क्यों …..
न तुम रुठते हो
न मैं मनाती हूँ
दोनों उलझे हैं
अपनी अपनी दिनचर्या में
शायद रिश्ते अब
परिपक्व हो गए हैं हमारे
आज फिर सब्जी काटते वक़्त
हाथ कट गया है
ए सुनो!
तुम आज फिर रूठ जाओ न
एक बार फिर मानाने को जी करता है
बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें!
बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति है।
बधाई!
शिखा जी,
जिन कमसमझी/नादानियोंस प्यार, प्यार बन जाता है उन्हें यूँ पढ़ना बड़ा ही सुखद लगा।
रिश्तों को परिपक्व होने से बचाने के लिये सचेत करती कविता बहुत ही अच्छी लगी।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
रूठ जाओ न … वाह
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