तीन मध्यम वर्गीय १६- १७ वर्षीय बालाएं आधुनिक पश्चिमी पोशाक , एक हाथ में स्टाइलिस्ट बैग्स और दूसरे में ब्लेक बेरी.इस काले बेरी ने बाकी सभी मोबाइल को छुट्टी पर भेज दिया है आजकल. स्थान -महानगर की मेट्रो . शायद किसी कोचिंग क्लास में जा रहीं थीं या फिर आ रहीं थीं.पर उनकी बातों में कहीं भी लेश मात्र भी पढाई या उससे सम्बंधित किसी भी विषय का कोई सूत्र नहीं था.सीट पर बैठी एक बाला ने ही बात छेड़ी-
ए सुन – हूम आर यू गोइंग आउट विथ? नाओ अ डेज ?
जबाब दूसरी वाली ने दिया – अरे इसका मत पूछ यार ..शी इज सो लकी. गोट अ हैंडसम फैलो दिस टाइम
पहली – अच्छा..पर तेरा वो पहले वाला भी तो अच्छा था यार. रिच भी था.
अब जबाब तीसरी ने दिया – हाँ अच्छा था .पर अजीब था यार. उसे कहीं चलने को कहो तो मना कर देता था .फिर मैं किसी ओर के साथ डिस्क चली जाती थी तो वहां पहुँच जाता है .देयर वाज नो प्रायवेसी एट ऑल .मैं तो नहीं रह सकती ऐसे.
दूसरी – मेरा वाला तो मस्त है.
पहली – हाँ यार समझ में नहीं आता ये लोग इतने पज़ेसिव क्यों हो जाते हैं? कौन सा इनसे शादी करनी है यार.
आस पास इतनी भीड़ में कोई उनकी बात सुन भी सकता है इससे बेखबर बिंदास वे तीनो अपनी चर्चा में मशगूल थीं.
आप सोच रहे होंगे कि किसी नाटक का किस्सा आपको सुना रही हूँ .मुझे भी एक पल को यही लगा था कि शायद कोई नाटक या सपना देख रही हूँ.यहाँ वहां देखा भी सभी अपनी अपनी बातों में मशगूल थे. और मेट्रो की आवाज़ में ज्यादा दूर तक तो बात सुनाई भी नही दे सकती थी .तभी मेरी नजर मेरी बराबर की सीट पर बैठी महिला पर पड़ी वो मंद मंद मुस्करा रही थी अब वह उन लड़कियों की बात पर मुस्करा रही थी या मेरे चेहरे के हाव भाव पर ये मुझे नहीं पता .पर मुझे एहसास हुआ कि मैं कोई कल्पना नहीं कर रही ये वार्ता साक्षात मेरे सामने चल रही है.
और मैं सोच रही थी सच में समय बदल गया है. और ये लडकियां व्यावहारिक हैं.क्यों करें शादी ? आखिर क्या मिलेगा शादी करके? एक जिम्मेदारी भरा परिवार, कैरियर की श्रधांजलि, और एक पज़ेसिव पति.फिर जरुरत ही क्या इस झंझट की.अपना कमाएंगे, खायेंगे , और मस्त जिन्दगी जियेंगे ,कोई रोकने टोकने वाला नहीं. आखिर क्यों वे अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारें.शादी के बाद की जिन्दगी उनके वर्तमान स्टाइल से तो मैच करने से रही, फिर क्यों बिना वजह ओखली में अपना सर देना.
यही मानसिकता हो गई है आज हमारे आधुनिक महानगरीय समाज की. आर्थिक जरूरतों की पूर्ति के लिए आज स्त्री और पुरुष दोनों का धन अर्जित करना जरुरी है और इन परिस्थितियों में शादी के बाद घर की जिम्मेदारी कौन संभाले, ये सवाल उठ खड़ा होता है. कुछ समझदार लोग तो मिलजुल कर बाँट भी लेते हैं पर फिर समस्या आती है बच्चों की. अपनी अपनी व्यस्तताओं के चलते बच्चों की जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत उनकी नहीं होती.जहाँ रोज की भागम- भाग जिन्दगी में उनके पास आपस में दो घड़ी बिताने का वक़्त नहीं वहां बच्चे को कौन देखेगा.तो वह बच्चे की जरुरत को ही नकार देते हैं. हर रिश्ता किसी ना किसी जरुरत पर ही टिका होता है यह एक सामाजिक और मानसिक सत्य है.फिर जहाँ ना आर्थिक निर्भरता है किसी पर , ना भावात्मक और ना ही सामाजिक या पारिवारिक तो फिर किस आधार पर कोई रिश्ता जीवित रहे. और यही वजह है,कि वर्तमान परिवेश में शादियाँ टूटते वक़्त ही नहीं लगता.आखिर क्यों कोई बिना किसी बजह के एक दूसरे से समझौता करें. मैं ही क्यों? तू क्यों नहीं? की भावना रिश्ते की शुरुआत में ही हावी हो जाती है और नतीजा – या तो आज के युवा शादी ही नहीं करना चाहते , और जो कर लेते हैं उन्हें उसे तोड़ने में वक़्त नहीं लगता.तो क्या आपस के स्वार्थ कि बिनाह पर धीरे धीरे समाप्त हो जाएगी यह विवाह की व्यवस्था?.
अब चाहें तो हम इसे पश्चिमी समाज का असर कह सकते हैं .परन्तु मुझे नहीं लगता कि पश्चिमी समाज में कभी भी या आज तक भी विवाह या फिर बच्चों की पैदाइश को नकारा गया हो. हाँ रिश्तों को लेकर उन्मुक्तता जरुर है परन्तु रिश्तों की महत्ता भी कायम है .बेशक लिव इन रिलेशन शिप है परन्तु बच्चों की जिम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ा जाता.यूँ ही अपनी हर समस्या का ठीकरा हम पश्चिमी सभ्यता के सर पर नहीं फोड़ सकते.
जैसे पश्चिमी समाज की तर्ज़ पर हम भी नारी वाद का झंडा लेकर खड़े हो गए. जबकि उनकी और हमारी नारी वादी समस्याओं में कभी कोई ताल मेल था ही नहीं.उनकी समस्याएं अलग थीं और हमारी अलग.
देखा जाये तो स्त्रियों के सम्मान को लेकर हमारे भारतीय समाज में कभी कोई दो राय नहीं रहीं. आदि काल से ही जब से मानव ने समाज की व्यवस्था की, सुविधा के अनुसार व्यवस्था को दो भागों में बाँट लिया गया – पुरुष के हिस्से बाहर का काम आया और स्त्री के हिस्से घरेलू .कहीं, किसी के काम को लेकर कोई मन मुटाव नहीं था. किसी का काम कमतर या नीचा नहीं माना जाता था.दोनों ही पक्ष सम्मानीय थे.फिर हमने आर्थिक विकास करने शुरू किये और धन की लोलुपता बढ़ने लगी और समस्या यहीं से शुरू हुई .जब हर सफलता और योग्यता का मापदंड उसके आर्थिक अर्जन से होने लगा. घर में काम करने वाली स्त्री के योगदान को नकारा जाने लगा उसका अपमान किया जाने लगा. और धीरे धीरे स्त्री के स्वाभिमान ने आग पकड़ी और उसने भी आर्थिक निर्भरता की बिनाह पर अपनी योग्यता को सिद्ध करने की ठान ली. और फिर समस्या उत्पन्न हुई तालमेल की.अंग्रेजों के साथ आई अंग्रेजी नारीवाद की आंधी ने भारतीय स्त्रियों को भी प्रभावित किया और शुरू हुआ आधुनिकता का नया दौर. जिसमें कहीं भी किसी भी रिश्ते के लिए जगह नहीं थी .जरुरी था तो सिर्फ अर्थ अर्जन. स्त्री बाहर निकली तो उसे मिला नया आयाम , सामाजिक सम्मान. और परिणाम स्वरुप घरेलू स्त्रियों को अयोग्य करार दे दिया गया. घरेलू स्त्रियों में अपने काम और शिक्षा को लेकर हीन भावना घर करने लगी . और आज यह हालात है कि “हाउस वाइफ” शब्द “गुड फॉर नथिंग” जैसा समझा जाता है . आर्थिक रूप से संबल स्त्री आज हर तरह से सक्षम है .अत: वह किसी भी तरह का शोषण या समझौता बर्दाश्त करने को तैयार नहीं. उसे हर हाल में हर स्थान पर पुरुषों के बराबर का वर्चस्व चाहिए जिसके वह काबिल है और वह लेकर भी रहती है.पर इन सब बदलाव के एवज में हमें मिल रहे हैं बिखरे परिवार, असंवेदनशील रिश्ते,मर्यादाओं का हनन.
एक समय था जब हम सभ्य नहीं थे, सामाजिक नहीं थे. किसी तरह की कोई परिवार नाम की व्यवस्था हमारे समाज में नहीं थी.हम जानवरों की तरह जिससे चाहे सम्बन्ध बनाते थे और अपनी इच्छाओं और जरुरत की पूर्ति के बाद भूल जाते थे . क्या हम फिर जा रहे हैं उसी पाषाण युग की ओर.?? या फिर यह परिवेश है बदलते वक़्त की मांग और व्यावहारिकता.???.इसका फैसला तो वक्त ही करेगा.
आप सोच रहे होंगे कि किसी नाटक का किस्सा आपको सुना रही हूँ .मुझे भी एक पल को यही लगा था कि शायद कोई नाटक या सपना देख रही हूँ.यहाँ वहां देखा भी सभी अपनी अपनी बातों में मशगूल थे. और मेट्रो की आवाज़ में ज्यादा दूर तक तो बात सुनाई भी नही दे सकती थी .तभी मेरी नजर मेरी बराबर की सीट पर बैठी महिला पर पड़ी वो मंद मंद मुस्करा रही थी अब वह उन लड़कियों की बात पर मुस्करा रही थी या मेरे चेहरे के हाव भाव पर ये मुझे नहीं पता .पर मुझे एहसास हुआ कि मैं कोई कल्पना नहीं कर रही ये वार्ता साक्षात मेरे सामने चल रही है.
और मैं सोच रही थी सच में समय बदल गया है. और ये लडकियां व्यावहारिक हैं.क्यों करें शादी ? आखिर क्या मिलेगा शादी करके? एक जिम्मेदारी भरा परिवार, कैरियर की श्रधांजलि, और एक पज़ेसिव पति.फिर जरुरत ही क्या इस झंझट की.अपना कमाएंगे, खायेंगे , और मस्त जिन्दगी जियेंगे ,कोई रोकने टोकने वाला नहीं. आखिर क्यों वे अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारें.शादी के बाद की जिन्दगी उनके वर्तमान स्टाइल से तो मैच करने से रही, फिर क्यों बिना वजह ओखली में अपना सर देना.
यही मानसिकता हो गई है आज हमारे आधुनिक महानगरीय समाज की. आर्थिक जरूरतों की पूर्ति के लिए आज स्त्री और पुरुष दोनों का धन अर्जित करना जरुरी है और इन परिस्थितियों में शादी के बाद घर की जिम्मेदारी कौन संभाले, ये सवाल उठ खड़ा होता है. कुछ समझदार लोग तो मिलजुल कर बाँट भी लेते हैं पर फिर समस्या आती है बच्चों की. अपनी अपनी व्यस्तताओं के चलते बच्चों की जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत उनकी नहीं होती.जहाँ रोज की भागम- भाग जिन्दगी में उनके पास आपस में दो घड़ी बिताने का वक़्त नहीं वहां बच्चे को कौन देखेगा.तो वह बच्चे की जरुरत को ही नकार देते हैं. हर रिश्ता किसी ना किसी जरुरत पर ही टिका होता है यह एक सामाजिक और मानसिक सत्य है.फिर जहाँ ना आर्थिक निर्भरता है किसी पर , ना भावात्मक और ना ही सामाजिक या पारिवारिक तो फिर किस आधार पर कोई रिश्ता जीवित रहे. और यही वजह है,कि वर्तमान परिवेश में शादियाँ टूटते वक़्त ही नहीं लगता.आखिर क्यों कोई बिना किसी बजह के एक दूसरे से समझौता करें. मैं ही क्यों? तू क्यों नहीं? की भावना रिश्ते की शुरुआत में ही हावी हो जाती है और नतीजा – या तो आज के युवा शादी ही नहीं करना चाहते , और जो कर लेते हैं उन्हें उसे तोड़ने में वक़्त नहीं लगता.तो क्या आपस के स्वार्थ कि बिनाह पर धीरे धीरे समाप्त हो जाएगी यह विवाह की व्यवस्था?.
अब चाहें तो हम इसे पश्चिमी समाज का असर कह सकते हैं .परन्तु मुझे नहीं लगता कि पश्चिमी समाज में कभी भी या आज तक भी विवाह या फिर बच्चों की पैदाइश को नकारा गया हो. हाँ रिश्तों को लेकर उन्मुक्तता जरुर है परन्तु रिश्तों की महत्ता भी कायम है .बेशक लिव इन रिलेशन शिप है परन्तु बच्चों की जिम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ा जाता.यूँ ही अपनी हर समस्या का ठीकरा हम पश्चिमी सभ्यता के सर पर नहीं फोड़ सकते.
जैसे पश्चिमी समाज की तर्ज़ पर हम भी नारी वाद का झंडा लेकर खड़े हो गए. जबकि उनकी और हमारी नारी वादी समस्याओं में कभी कोई ताल मेल था ही नहीं.उनकी समस्याएं अलग थीं और हमारी अलग.
देखा जाये तो स्त्रियों के सम्मान को लेकर हमारे भारतीय समाज में कभी कोई दो राय नहीं रहीं. आदि काल से ही जब से मानव ने समाज की व्यवस्था की, सुविधा के अनुसार व्यवस्था को दो भागों में बाँट लिया गया – पुरुष के हिस्से बाहर का काम आया और स्त्री के हिस्से घरेलू .कहीं, किसी के काम को लेकर कोई मन मुटाव नहीं था. किसी का काम कमतर या नीचा नहीं माना जाता था.दोनों ही पक्ष सम्मानीय थे.फिर हमने आर्थिक विकास करने शुरू किये और धन की लोलुपता बढ़ने लगी और समस्या यहीं से शुरू हुई .जब हर सफलता और योग्यता का मापदंड उसके आर्थिक अर्जन से होने लगा. घर में काम करने वाली स्त्री के योगदान को नकारा जाने लगा उसका अपमान किया जाने लगा. और धीरे धीरे स्त्री के स्वाभिमान ने आग पकड़ी और उसने भी आर्थिक निर्भरता की बिनाह पर अपनी योग्यता को सिद्ध करने की ठान ली. और फिर समस्या उत्पन्न हुई तालमेल की.अंग्रेजों के साथ आई अंग्रेजी नारीवाद की आंधी ने भारतीय स्त्रियों को भी प्रभावित किया और शुरू हुआ आधुनिकता का नया दौर. जिसमें कहीं भी किसी भी रिश्ते के लिए जगह नहीं थी .जरुरी था तो सिर्फ अर्थ अर्जन. स्त्री बाहर निकली तो उसे मिला नया आयाम , सामाजिक सम्मान. और परिणाम स्वरुप घरेलू स्त्रियों को अयोग्य करार दे दिया गया. घरेलू स्त्रियों में अपने काम और शिक्षा को लेकर हीन भावना घर करने लगी . और आज यह हालात है कि “हाउस वाइफ” शब्द “गुड फॉर नथिंग” जैसा समझा जाता है . आर्थिक रूप से संबल स्त्री आज हर तरह से सक्षम है .अत: वह किसी भी तरह का शोषण या समझौता बर्दाश्त करने को तैयार नहीं. उसे हर हाल में हर स्थान पर पुरुषों के बराबर का वर्चस्व चाहिए जिसके वह काबिल है और वह लेकर भी रहती है.पर इन सब बदलाव के एवज में हमें मिल रहे हैं बिखरे परिवार, असंवेदनशील रिश्ते,मर्यादाओं का हनन.
एक समय था जब हम सभ्य नहीं थे, सामाजिक नहीं थे. किसी तरह की कोई परिवार नाम की व्यवस्था हमारे समाज में नहीं थी.हम जानवरों की तरह जिससे चाहे सम्बन्ध बनाते थे और अपनी इच्छाओं और जरुरत की पूर्ति के बाद भूल जाते थे . क्या हम फिर जा रहे हैं उसी पाषाण युग की ओर.?? या फिर यह परिवेश है बदलते वक़्त की मांग और व्यावहारिकता.???.इसका फैसला तो वक्त ही करेगा.
नवभारत.12oct2011 में प्रकाशित,
जरुरी था तो सिर्फ अर्थ अर्जन. स्त्री बाहर निकली तो उसे मिला नया आयाम , सामाजिक सम्मान. और परिणाम स्वरुप घरेलू स्त्रियों को अयोग्य करार दे दिया गया. घरेलू स्त्रियों में अपने काम और शिक्षा को लेकर हीन भावना घर करने लगी . और आज यह हालात है कि "हाउस वाइफ" शब्द "गुड फॉर नथिंग" जैसा समझा जाता है . आर्थिक रूप से संबल स्त्री आज हर तरह से सक्षम है .
Ekdam sahee vishleshan hai! Behad achha aalekh.
सोचने को मजबूर करता आलेख।
—–
कल 14/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
शिखा जी,
अब तो रिश्ते मजाक से होने लगे हैं और जो वाकया आपने अभी सुनाया है वो रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में होने वाली बातें हैं और लडकियां ही नहीं परन्तु लड़के भी ऐसी ही सोच रखने लगे हैं..
और रही बात सम्मान की तो यह सत्य है कि पहले समाज में दोनों पक्षों का बराबर सम्मान होता था और बाहरी हवा ने यहाँ दिल की आबो-हवा ही बदल दी और बाहर कार्य करना ज्यादा सार्थक लगने लगा..
बड़ी विडम्बना है भारत की, कि जिस पारिवारिक सूत्र पर हम कुछ साल पहले तक गर्व किया करते थे, आज हम मुंह छुपाने वाली स्थिति की ओर अग्रसर हैं..
वक़्त का तो पता नहीं पर हमारी तरफ से कोशिश ऐसी रहनी चाहिए की रिश्तों के लिए ऐसी निकृष्ट मानसिकता पर सवाल उठाएं जाएं और रोके भी जाएं..
बाकी जो होना है वो तो होगा ही…
आज का सच यही है,जो आपने लिखा है। यह एक ऐसा विषय है जिसमें "जीतने मुह उतनी बातें" वाला मुहावरा फिट होता है। इस विषय में हर किसी कि अपनी-अपनी सोच है और जो जैसा सोचता है। वह खुद को उस ओर सही साबित करते हुए अपना तर्क प्रस्तुत करेगा। नारी वादी लोग इसे सही कहंगे तो कुछ लोग उनके वीरुध खड़े हो जाएँगे। बहस जाम कर होगी मगर नतीजा कुछ नहीं निकलेगा। अतः इस मसले का कोई हल नहीं….. by the way आपने लिखा बहुत अच्छा है…कई सारे सवाल उठती है आपकी यह पोस्ट …..
समय बदल रहा है । समय के साथ सोच का बदलना भी स्वाभाविक है ।
परिस्थितियों से समझौता करना ही पड़ता है ।
दिल्ली में हूँ . वीकेंड पर मेट्रो की सवारी होगी . कान खोलकर जाऊंगा . देखो जी इस अर्थ युग में अर्जन करने वाले को महत्त्व मिलना तो तयशुदा ही है लेकिन मै मानता हूँ की गृहिणी के कार्य को किसी अर्थोपार्जन करने वाली महिला से कमतर आंकना ठीक नहीं है बढ़िय आलेख .
"house wife" should be replaced by "home maker".
no one can make one's house " a home" except his wife.
Ashwini Kumar Vishnu शिखा जी, गहराई से पड़ताल किए जाने योग्य विषय पर काफ़ी तटस्थता के साथ अपनी बात कही है आपने। हालाँकि आप भी जानती हैं कि 'ब्लैकबेरी जेनेरेशन' इस घोर विरोधाभासी देश की न आधी हक़ीक़त है न पूरा फसाना। दरअसल प्रगति और विकास की अवधारणाओं की तरह ही स्त्री-मुक्ति को भी सतही तौर पर रचा-सिरजा-पोसा जा रहा है। यह गैरजिम्मेदाराना स्त्री-सक्षमीकरण न सिर्फ़ स्त्री को बल्कि पुरुषवर्ग को, अंततः समाज को, सच कहा आपने (नव) पाषाण युग में धकेल रहा है । विचारपूर्ण प्रस्तुति है आज का लेख।
आधुनिक जीवन की विसंगतियों को उजागर करता लेख..उम्मीद करता हूँ कुछ लोगों की आँखे जरुर खुलेंगी इससे.
जागरूकता बढ़ाने के लिए धन्यवाद.
समय और सोच बडी तेजी से बदल रही है दीदी…कुछ लोग इसे प्रैक्टिकल होना भी कहते हैं..
एक छोटा सा उदाहरण मैं भी देता हूँ, वैसे वो इस विषय से तो सम्बंधित नहीं है फिर भी..
कुछ दो साल पहले की बात है..मैं और मेरी दोस्त दिव्या पटना के मौर्या लोक कोम्प्लेक्स में बैठे हुए थे…बाजू के टेबल पे कुछ लड़कियां बैठी थी +2 में पढ़ने वाली दिख रही थी सब..वो लोग अजीब अजीब बातें कर रही थी(ब्लॉग पे कैसे लिखू वो बातें) और उन्हें देख दिव्या ने मुझसे कहा देखो तो रे जब हम +2 में थे तो ऐसा बात करते थे रे कभी??? 😛 😛
दौड़ने के चक्कर में यह लोग कब मुंह के बल गिरेंगे … यह खुद भी नहीं जानते ! खुदा जाने किस ओर चले जा रहे है हम सब !
विचारपूर्ण आलेख।
परिवेशीय माँग नहीं , गुमराह आधुनिकता का लिबास है
अब तो ये नाटक रोज सुबह शाम देखने की आदत हो गयी है..वो कहते हैं ना
आगे आती थी हाले दिल पे हँसी
अब किसी बात पे नहीं आती!
वैसे आपके संवादों में थोड़ी शालीनता दिखाई दे रही है (या आपको शालीन लडकियां मिली होंगी) इस पूरी बात चीत में कई बार वो 'फोर लेटर वर्ड' भी इतनी सहजता से इस्तेमाल करती मिलती हैं मानो इस शब्द का कोई अर्थ ही नहीं है…
रही बात हाऊसवाइफ वाली तो आजकल उनको भी होममेकर कहा जाने लगा है!!
इस ईमानदार पोस्ट के लिए (आपकी सभी पोस्टों की तरह)धन्यवाद!!
बेहतरीन आलेख, शिखा !
आभार आपका !
आधुनिक जीवन की विसंगतियों
को उजागर करता लेख||
बधाई ||
http://dcgpthravikar.blogspot.com/2011/10/blog-post_13.html
वर्तमान मानवीय विसंगतियों को उजागर करता आपका यह आलेख प्रसंशनीय है , आपने बहुत सटीक तरीके से आज के दौर में इंसान के मनो मस्तिष्क ; उसके रहन – सहन , उसकी सोच में आये बदलावों और उस सोच के कारण पड़ने वाले प्रभावों को रेखांकित किया है ….आपका आभार
शिखा जी
जो सत्य आप दिखा रही है भारत में वो मात्र कुछ बड़े शहरों के कुछ वर्ग तक ही सिमित है पुरे भारत की हालत अभी ये नहीं है | छोटे शहरों और बड़े शहरों के माध्यम वर्ग के लडके लड़किया अभी भी शादी ब्याह और बच्चे, कैरियर तक के लिए माँ पिता के मर्जी पर निर्भर है | वैसे मै तो कहूँगी की चलो कम से कम भारत के युवाओ ने समझा तो की शादी और बच्चे एक बड़ी जिम्मेदारी है और इसके लिए लडके और लड़की दोनों को मानसिक ( भारत जसे बाल विवाह वाले देश में तो कहूँगी की शारीरिक रूप से भी ) रूप से तैयार होना चाहिए नहीं तो माँ बाप ने कर दी शादी और बंध गए एक दूसरे के गले और एक दूसरे को कोसते रही और जीते रहो | वैसे परिवार का टूटना और तलाक भी आज आम नहीं है देखिये राहुल महाजन एक पत्नी को पिटते है और फिर भी शादी बचाने का प्रयास किया जाता है जब सभी के सामने आ जाता है तब तलाक होता है दूसरी शादी में भी यही होता है पर फिर भी शादी बची है, करिश्मा की शादी के साथ तो क्या क्या नहीं हुआ फिर भी शादी बचा ली गई | ये उस उच्च वर्ग के उदाहरन है जहा कहा जाता है की तलाक आम बात है फिर भी पतियों से पीटने के और उसके बाहर अफेयर के खबरों के बाद भी शादी बचा ही ली गई माध्यम वर्ग तो शादी का टूटना भी पापा ही समझता है | पर जहा पति पत्नी कुत्ते बिल्लियों की तरह रोज एक दुसरे से लड़ते हो या मार पिट करते हो वह ये तलाक हो ही जाये तो अच्छा है |
बदलते परिवेश में थोड़ा असहज लगना स्वाभाविक है पर समाज अपनी लय निर्धारित कर देता है।
विचारणीय लेख …एक अजीब सा विरोधाभास नज़र आता है आज के हालातों में ….
अंशुमाला ! मैंने भी यहाँ महानगर की ही बात की है यह वाक्य देखो.
"यही मानसिकता हो गई है आज हमारे आधुनिक महानगरीय समाज की."
और यह सारी बातें जो मैंने यहाँ कहीं हैं कोई कल्पना नहीं प्रत्यक्ष उदहारण हैं जो मैंने १ महीने में वहां देखे सुने..और किसी खास वर्ग के नहीं आम वर्ग के हैं.
एक लड़की एक अच्छे खासे पड़े लिखे अच्छी नौकरी वाले से शादी नहीं करना चाहती,क्योंकि उसे लगता है कि शादी के बाद उसकी तुलना में उसका जॉब छोटा है इसलिए अगर समझौता करना पड़ा तो उसे ही करना पड़ेगा.
वहीँ एक युवा जोड़ा कई सालों तक अफेयर करने के बाद शादी करता है और ३ महीने बाद ही वे एक दूसरे पर भद्दे आरोप लगा कर अलग हो जाता है एक दूसरे को जेल भेजने पर आमादा हो जाते हैं.
एक लड़की ने अपनी मगनी इस लिए तोड़ दी उसका कहना था कि उसकी सास उससे बहुत सवाल जबाब करती है.
मुझे यकीन है इन महानगरों में रहने वाले बहुत से माता पिता मेरी इस बात से सहमत होंगे कि उन्हें अपने बच्चों की शादी के कितने पापड़ आजकल बेलने पड़ते हैं.
और जो आपका कहना है छोटे शहरों को लेकर. नैतिक रूप से वह भी ठीक नहीं लगता.
इसलिए पता नहीं क्या सही है क्या गलत.
महानगर में पलने – बढने वाली लड़कियों की मानसिकता से परिचय मिला ..
इस लेख में महानगर के लोगों की मानसिकता की बात विशेष रूप से उठायी गयी है ..
आज कल आस पास बहुत तलाक के किस्से दिखाई देते हैं ..जो महिलायें अच्छा ख़ासा कम रही हैं वो क्यों समझौते करेंगीं ? ज़रूरत है पुरुष अपनी मानसिकता बदले .. अब पहले वाला ज़माना नहीं है .. क्यों की तब स्त्री पुरुषों की मोहताज थी .. जैसे भी हो उसे निबाहना ही होता था ..
अब परिवार रूपी संस्था को बचाना है तो सोच बदलनी ही होगी …
आज भी जो स्त्रियां घरेलू हैं वो ज़िंदगी से समझौते करती हैं ..तलाक आज भी भारतीय परिवेश में अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता .. और इसका खामियाज़ा भी स्त्रियों को ही ज्यादा उठाना पड़ता है ..पर फिर भी तलाक की संख्या में बढ़ोतरी हुई है ..सोचने पर मजबूर करता अच्छा लेख .
इस लेख का गम्भीर चिंतन सोचने पर मज़बूर करता है। जिस तटस्थता से आपने विचार रखा है वह निश्चय ही क़ाबिलेतारीफ़ है।
मेरी समझ से आर्थिक स्वतंत्रता बहुत ज़रूरी है। इसने कई विकल्प दिए हैं आम नारी को जो सदियों से शोषण का शिकार रही हैं।
अच्छा लेख।
गंभीर विषय पर सुंदर तरीके से प्रकाश डाला आपने। पर एक बात यह कहना चाहूंगा कि बहुत गहरी हैं हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता की जडें…. ऐसे चुनिंदा लोगों के कारण यह नहीं उखडने वाला।
समय को निदर्शित करती हुई पोस्ट .
बहुत धन्यवाद.
रिश्तों का बंधन इन्हें पसंद नहीं ,अपनी स्वतंत्रता के लिये किसी के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ना भी पसंद नहीं ।
अब सामूहिक प्रगति नहीं ,अपनी-अपनी प्रगति का दौर है ।
दुखद है ये सब ।
समय बदल रहा है,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
स्त्री मुक्ति के नाम पर मांगी गयी आज़ादी अंततः पुरुषों के लिए ही लाभप्रद है . कहीं इस बहाने ही हम पाषाण युग की ओर तो नहीं बढ़ रहे ,काश कि हम यह समझ सके और एक संतुलित आज़ादी की मांग रखे अथवा इस ओर बढे .
एक संतुलित दृष्टिकोण रखा है आपने !
मनुष्य के पास चिंतन की शक्ति है तो वह भिन्न तरीकों से सोचता है। हर युग में ऐसा चिन्तन रहा है लेकिन भारतीय संस्कृति ही ऐसी है जहाँ के जीवन मूल्य शाश्वत हैं। सारी दुनिया की खाक छानकर वापस यहीं आना पड़ेगा। पुरुष और नारी के चिंतन में मूलभूत अन्तर रहता है। पुरुष नारी के अन्दर आनन्द तलाश करता है और नारी इसी कमजोरी का फायदा उठाती है। यह आदिकाल से होता आया है और होता रहेगा।
बहुत सार्थक चिंतनपरक आलेख…
बहुत कुछ देता हुआ…
सादर बधाई…
शिखा जी
मै भी आप की बातो से सहमत हूँ की बड़े महानगरो में युवा ये कर रहे है तभी मैंने कहा है कि
@जो सत्य आप दिखा रही है भारत में वो मात्र कुछ बड़े शहरों के कुछ वर्ग तक ही सिमित है |
और मै आप की बात को कल्पना नहीं मान रही हूँ , हमारे सामने तो कई उदहारण है जहा लड़किया संयुक्त परिवार क्या सास ससुर के साथ भी रहना नहीं चाहती है और पति की कमाई अच्छी खासी हो | साथ ही महानगरो क्या छोटे शहरों में भी युवाओ की शादी के लिए माता पिता को पापड़ बेलने पड़ते है क्योकि आज के समय में ऐसे लोगो कि संख्या बढ़ी है जो अपने बच्चो का विवाह स्वयं खोजते है किन्तु बच्चो की पसंद पूछ कर और उनके नखरे आप सोच भी नहीं सकती सभी को सर्वगुण संपन्न ही चाहिए |
@ और जो आपका कहना है छोटे शहरों को लेकर. नैतिक रूप से वह भी ठीक नहीं लगता.
और आप ने ये क्यों कहा मै ठीक से नहीं समझ पाई |
आलेख अच्छा है। लेकिन अंतिम पैरा में जो धारणा आप ने अभिव्यक्त की है। आरंभ में वैसा बिलकुल नहीं था। परिवार का भी काल के अनुसार विकास हुआ है। वह एक दिन अचानक नहीं टपक पड़ा। मुझे लगता है कि हर स्त्री को इस विषय पर किया गया मोर्गन के काम पर दृष्टि डालनी चाहिए। उन की पुस्तक एन्शियंट सोसायटी अवश्य पढ लेना चाहिए।
शिखा जी ,
आधुनिक बंजारा जीवन के कारण मैंने छोटे और बड़े दोनों शहरों को देखा है कसबे से नगर और नगर से महानगर तक (फर्रुखाबाद ,लखनऊ ,मेरठ ,गुडगाँव ). शुरू में जिन बातों से झटके लगते थे आज सामान्य लगती है , हर बात के मायने बदल गए है चाहे बात आधुनिकता ,शालीनता ,मर्यादा और स्वतंत्रता की हो इन शब्दों के अर्थ इस बात पर निर्भर करते है आप कहाँ खड़े है .
अंशुमाला!मेरा मतलब था कि मैं आपकी बात से बिलकुल सहमत हूँ.जो स्थिति आपने बयाँ की है वह भी चिंतनीय है.और ऐसे हालातों में तो अलग हो जाना ही बेहतर लगता है.
aaj ka aankhon dekha haal hai…….behad katu lekin utna hi sach bhi.
aapki baat poori tarah sach hai.
सारी समस्या इस बदलाव से शुरू होती है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे से विलग और स्वतंत्र होकर भी सामान्य जीवन जी सकते हैं। आधुनिक उदारवाद से निकली यह धारणा स्वतंत्रता, समानता, न्याय और अधिकार के मूल्यों पर टिकी हुई मानी जाती है। लेकिन कम से कम भारतीय सभ्यता और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि व्यावहारिक दृष्टि से स्त्री-पुरुष के मेल से बनने वाला परिवार ही एक स्वतंत्र और स्थिर इकाई के रूप में रह पाता है। इसके सदस्य प्रायः अपनी सभी आर्थिक, भौतिक और भावनात्मक जरूरतें एक दूसरे के योगदान से पूरी कर लेते हैं या इसके लिए संयुक्त प्रयास करते हैं।
स्त्री और पुरुष मिलकर ही एक घर बसा सकते हैं। यह बहुत बड़ा और महान काम है। गृहिणी के काम को तुच्छ समझने वाले या तो मूर्ख हैं या जंगली हैं।
कोई भी व्यक्ति यदि अकेले अपने आप को पूर्ण और स्थिर इकाई के रूप में स्थापित करना चाहता है तो उसे कुछ समय बाद दुष्कर जीवन जीना पड़ता है। चाहे वह इसे स्वीकारे या नहीं।
बेहद संवेदनशील मुद्दा है और चिन्तन करने को विवश करता है…………ये तो वक्त ही बतायेगा कि कल क्या होगा मगर आज के हालात मे सोच मे तो परिवर्तन आया ही है जो सबके सामने है…………एक गंभीर विषय्।
विचारपूर्ण -आपने दोनों पहलुओं की अच्छी समीक्षा की है ….
सच यही है आने वाले समय में ही हमारी सामाजिकता के पहलू और अधिक स्पष्ट हो सकेगें …
विचारणीय और बेहतरीन आलेख, शिखा जी!
sach ko bayan karta aalekh…aabhar
जहां जा रहे सभी, वहीं जा रहे हैं हम। रूकना और धक्के खाना सह नहीं पा रहे हैं हम।
सामंजस्य रख एक दुसरे के प्रति समर्पण रखना बहुत कारगर है ..सुन्दर लेख आप का
भ्रमर ५
सुविधा के अनुसार व्यवस्था को दो भागों में बाँट लिया गया – पुरुष के हिस्से बाहर का काम आया और स्त्री के हिस्से घरेलू .कहीं, किसी के काम को लेकर कोई मन मुटाव नहीं था. किसी का काम कमतर या नीचा नहीं माना जाता था.दोनों ही पक्ष सम्मानीय थे.फिर हमने आर्थिक विकास करने शुरू किये और धन की लोलुपता बढ़ने लगी और समस्या यहीं से शुरू हुई .जब हर सफलता और योग्यता का मापदंड उसके आर्थिक अर्जन से होने लगा.
Side-effects of extra modern thoughts 😛
u've picked a topic which is very common… Gals goin nuts.
समाज में अव्यवस्था कम करने के लिये नियमावलियों की आवश्यकता होती है। विवाह संस्था भी सम्बन्धों की ऐसी ही एक नियमावली है। कुछ लोग किसी नियम से असंतुष्ट भी होते हैं। विचारवान और परिपक्व समाज में नियम बदलते भी है, सुधरते भी हैं और स्थानापन्न भी होते हैं – परिवर्तन शाश्वत है, हमें पसन्द आये या न आये।
हमारे बच्चे किस दिशा में जा रहे हैं क्या इसके लिए सिर्फ वो ही ज़िम्मेदार हैं….हम नहीं…
क्या हम बच्चों को शुरू से ही अर्थ का पाठ पढ़ा कर ज़्यादा से ज़्यादा सेलरी पैकेज पाने के लिए तैयार नहीं करते…ऐसी पीढ़ी रोबोट बन कर जिस माहौल में काम करती है वहां रिश्ते से ज़्यादा करियर में आगे बढ़ने के प्रोफेशनली दिन-रात एक करने पर ज़ोर दिया जाता है…ऐसे में कौन किसकी सुनकर जीना चाहता है…अब ये फलसफा छाता जा रहा है कि जिस पल में जी रहे, उसे भरपूर जीओ, कल किसने देखा है…एक सर्वे में पढ़ा था कि लव मैरिज की तुलना में अरेंज्ड मैरिज ज़्यादा चलती है…इसी वजह से भारत में विदेशों की तुलना में अब तक तलाक बहुत कम होते रहे हैं…लेकिन अब भारत में भी महानगरों में शादियां टूटने का आंकड़ा बढ़ने लगा है…विषय विस्तार चाहता है, टिप्पणी में नहीं समा पाएगा…
जय हिंद…
बहुत अच्छी प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।
महत्वपूर्ण विषय का बड़ी निष्पक्षता से विश्लेषण ….
इस व्यावहारिकता को शत शत नमन.
कही न कही परिवार और समाज का कसूर भी है और हालात एक दिन मे नही बदले है. पहले समाज बिखरा.. फ़िर परिवार और अब एक पूरी पौध…
bahut hi achha lekh…akhbaar mein padhne ka alag hi maja hoga.
You analyze each and every point very carefully.. crystal clean logics.. specially about 'practicality'
Thought evoking post.. though I've been thinking about this since a long time.. me and some girls of my college had debates on 'being practical'.. (in a city like Ajmer! These girls may not be as frank as girls of metro cities.. but they think exactly like them! In their minds they debate both in favour and against of this kinda practicality. A wake up call!):-/
परिवर्तन तो नियम है … और ये बदलाव तो आना ही है समय के साथ साथ … बस इस बदलाव को सहज और समझदारी से लेना है …
सोचने को विवश करता लेख …
bilkul sahi farmaya apne shikhaji…yahi hal hai aaj ki mahanagreey sanskriti ka…sundar post..
बहुत ही खुबसूरत बात ..आपने यहाँ पोस्ट की है …मगर ..एक और भी बात है ..जीवन की सच्चाई मैं परिवर्तन ही संसार का नियम है ….लेकिन ….
हर कोई दुनिया बदलने की सोचता है …
मगर अपने आपको बदलने की नहीं सोचता ..
और यही मानसिकता ..आज की युवा पीढ़ी मैं दिखाई दे रही है ….
फिर भी …हमारे यहाँ तो नारी को देवी का स्वरुप मन जाता है …इस लिए ..देवी को अपनी मर्यादा खुद ही सम्ज़नी चाहिए ..तभी वो पूजनीय रहती है …
sunder
विषय तो बहुत गंभीर है लेकिन वर्तमान समाज का सच है. यूँ आपका विश्लेषण बहुत सटीक है. बहुत अच्छा लिखा है आपने, धन्यवाद. पेपर में प्रकाशित होने केलिए बधाई.
विषय तो बहुत गंभीर है लेकिन वर्तमान समाज का सच है. यूँ आपका विश्लेषण बहुत सटीक है. बहुत अच्छा लिखा है आपने, धन्यवाद. पेपर में प्रकाशित होने केलिए बधाई.
बहुत विचारोत्तेजक पोस्ट है आपकी.
समस्या की गंभीरता का अहसास कराती.
समय रहते चेतना आवश्यक है.
मेहनत से लिखी गई इस पोस्ट के लिए आभार.
धनतेरस व दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ.
दीपावली पर्व अवसर आपको और आपके परिजनों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ….
आदि काल से ही जब से मानव ने समाज की व्यवस्था की, सुविधा के अनुसार व्यवस्था को दो भागों में बाँट लिया गया – पुरुष के हिस्से बाहर का काम आया और स्त्री के हिस्से घरेलू .कहीं, किसी के काम को लेकर कोई मन मुटाव नहीं था. किसी का काम कमतर या नीचा नहीं माना जाता था.दोनों ही पक्ष सम्मानीय थे.फिर हमने आर्थिक विकास करने शुरू किये और धन की लोलुपता बढ़ने लगी और समस्या यहीं से शुरू हुई
आज यह हालात है कि "हाउस वाइफ" शब्द "गुड फॉर नथिंग" जैसा समझा जाता है
…..
चिंतन और लेखन जब दोनों उच्च होते हैं तो शिखा जी रूपी धारा बहती है
बहुत ही दुन्दर आलेख है इसपे क्या टिप्पडी करूँ मैं.
विचारणीय आलेख….ये कहाँ जा रहे हैं हम…
Bahut ache vichar hai,..very well written this post. thanks
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Bahut hi behtreen, thanks for sharing.
वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए अति सुन्दर…
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एक लड़के को बहुत गुस्सा आता था। उसके पिता ने उसे कीलों का एक Bag देते हुए कहा कि, “जब भी तुझे गुस्सा आए तो इसमें से एक-एक कील लेकर घर के पीछे जो Wooden Boundary है उसमें जाकर एक कील ठोक देना। Read Full article on… http://www.bhannaat.com/2016/05/word-spoken-in-anger-can-leave-wound.html
पुलिस Helmet ना पहनने वालों से Free हो तभी तो बाकी कामों पर ध्यान लगाएगी। अब यहाँ एक सवाल उठता है कि, लोग Helmet क्यों नहीं पहनते हैं…? Read Full article on… http://www.bhannaat.com/2016/04/do-you-wear-helmet.html
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उत्कृष्ट लेखन, शब्दो के इस ताना बाना को इतनी सहजता से बुनने के लिए साधुवाद
चिंतनशैली के सन्दर्भ में स्त्री और पुरुष में अधिक अंतर नहीं है आधुनिक जीवनशैली ही कुछ ऐसी है जो व्यक्ति को देह के स्तर से ऊपर उठने ही नहीं देती है और इसके लिये व्यक्ति विशेष को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि जीवन के आरम्भ से ही हम एक ऐसे वातावरण में पलते और विकसित होते है जहाँ चारित्रिक सद्गुणों, मानवीय संवेदनाओं और मनुष्य जीवन के गौरव को सांसारिक उपलब्धियों और अपूर्णीय लालसाओं की कीमत पर पूर्णतया तटस्थ बना दिया जाता है हमारी शिक्षा प्रणाली जो स्कूल व् घर के वातावरण पर बहुत ज्यादा निर्भर है और माता-पिता और शिक्षक के कंधो पर ही टिकी हुई है, इस और से पूरी तरह मुंह मोडे रखती है क्योंकि किसी के भी पास ऐसा करने या सोचने के लिये समय नहीं है और यदि है भी तो उसका स्वय का जीवन उस आदर्श से कोसो दूर है जो एक बच्चे की उस प्रछन्न जिजीविषा को जाग्रत कर सके जिस पर चलकर महान व्यक्तियों का निर्माण होता है
आदरणीय, अभिनन्दन , वाह बहुत अच्छा ब्लॉग व्यैक्तिक विकास ,हिंदी विचारों ,प्रेरक कहानियों ,बिज़नेस टिप्स के लिए मेरे वेबसाइट http://www.santoshpandey.in पर एक बार अवश्य पधारें धन्यवाद
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सुप्रभात
बहुत सुंदर लिंकों का सार्थक संयोजन।सभी रचनाकारों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।
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