नजरें. कुछ और कह रही
लब की अलग कहानी है
देते आगे से मिश्री और
पीछे हाथ में आरी है
कोई बड़ा हुआ है कैसे
और कोई कैसे चढ़ा हुआ है
खींचो पैर गिराओ भू पर
ये किस की शामत आई है.
.
रख कर पैर किसी के सर
बस अपनी मंजिल पानी है.
ये किस की शामत आई है.
.
रख कर पैर किसी के सर
बस अपनी मंजिल पानी है.
है हाथ दोस्ती का बढा हुआ.
दिल से दुश्मनी निभानी है
कोई तो राह चलो मन की
कोई तो दे दो पनाह इसे
दर दर भीख मांग रही
ये इंसानियत बेचारी है
आज के माहौल के अनुरूप रचना लिखी है….सच है कि आज के वक्त में दोस्ती से ज्यादा दुश्मनी पर भरोसा रहता है ..क्यों कि ये पता होता है कि कम से कम दुश्मन है…
एक शेर की कुछ टूटी फूटी सी लाइन याद आ रही है….
आप दोस्तों को आजमाते जाइये
दुश्मनों से प्यार हो जायेगा….
🙂 🙂
रख कर पैर किसी के सर
बस अपनी मंजिल पानी है.
है हाथ दोस्ती का बढा हुआ.
दिल से दुश्मनी निभानी है
बड़ी कडवी सच्चाई बयाँ कर दी इन शब्दों में…..कोई भी संवेदनशील मन व्यथित हो जाता है यह सब देख .
एकदम सटीक लिखा है .. आज के युग में बेचारी हो गयी है इंसानियत !!
कोई तो राह चलो मन की
कोई तो दे दो पनाह इसे
दर दर भीख मांग रही
ये इंसानियत बेचारी है
बहुत उम्दा..कड़ुवा यथार्थ उकेर दिया.
yehi chal raha hai aajkal dunia me… sundar kavita ka roop diya achchha laga padhke..
रख कर पैर किसी के सर
बस अपनी मंजिल पानी है.
है हाथ दोस्ती का बढा हुआ.
दिल से दुश्मनी निभानी है
यह भी एक सच है..
हमारे यहाँ एक कहावत है..
'मुंह में राम बगल में छुरी, मौका देखि पंजरे में हुरी'
सार्थक, समर्थ और संवेदनशील रचना….
शिखा जी, आदाब
कई ज्वलंत सवालों का समावेश है आपकी कविता में
पढ़कर एक ताज़ा शेर हो गया
मुलाहिज़ा फरमायें-
खंजर था किसके हाथ में ये तो खबर नहीं
हां, दोस्त की तरफ से मैं ग़ाफ़िल ज़रूर था
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
बात तो सही है… मूंह में राम …और बगल में छूरी है…. केकड़े हैं…. टांग ही पकड़ कर खींच देते हैं… दोस्ती का हाथ सब बढाते हैं… लेकिन उँगलियों में कांटे छुपा कर रखते हैं…. इसीलिए इंसानियत बेचारी है…. आज के माहौल को बहुत सही चित्रित किया है आपने…. बहुत अच्छी लगी यह कविता….
आज नेट बहुत दिक्कत दे रहा है… नगर निगम वालों ने फिर से रात में काम चालु कर दिया है… ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ …..
—
http://www.lekhnee.blogspot.com
Regards…
हाथ दोस्ती का बढ़ा हुआ है …दुश्मनी निभानी है
क्या काहे यारा …हर टूटे दिल की यही कहानी है …!!
मिश्री और आरी…
कुछ कहना चाहता हूं…लेकिन कहूंगा नहीं…क्या बिना कहे ही समझ जाइएगा…क्या कहा नहीं…तो ठीक है लेकिन
मुझे अपने खिलाफ मोर्चा नहीं खुलवाना…
जय हिंद…
नजरें कुछ और कह रही लब की अलग कहानी है
देते आगे से मिश्री और पीछे हाथ में आरी है
वाह वाह – आपने तो आज के हमारे स्वभाव और व्यवहार को तराजू में तौलकर छोटा या कहूँ बौना साबित कर दिया –
यूँ ही चलते रहे हमेशा सीधे रस्ते कलम शिखा की
हाथों से आशीष और दिल से यही दुआ हमारी है
रख कर पैर किसी के सर
बस अपनी मंजिल पानी है.
है हाथ दोस्ती का बढा हुआ.
दिल से दुश्मनी निभानी है
बिल्कुल कटु यथार्थ है. शुभकामनाएं.
रामराम.
क्या कहें ! यह एक हकीकत है जो बयां किया आपने , डर लगता है
खुल कर जीने में , सवाल होगा क्यों ? , इस पर यह शेर काबिलेगौर है :
'' कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
यह नए मिजाज का शहर है , यहाँ फासले से मिला करो | ''
………. दोनों हकीकतों के बीच कैसे जिया जाय !
"मेरे हमनशीं , मेरे हमनफस
मुझे दोस्त बन कर दग़ा न दे "
-बेगम अख्तर द्वारा गाई इस ग़ज़ल में भी यही भाव व्यक्त किये गए हैं.
वास्तविकता से बहुत निकट से परिचय कराती सुंदर रचना!
sahi bayaan kiya aapne
थोड़ा और पश्चिम की और रुख कीजिये ये पंक्तियाँ तब और शिद्दत से याद आयेंगीं !
बहुत खूब और एक दम सच कहा आपने, शायद आज की साक्षात तस्वीर है आपकी ये कविता ।
दर दर भीख मांग रही
ये इंसानियत बेचारी है
च्च..च्च..च्च.. बड़ा दुखद है।
बहुत ही उम्दा है…पढके अच्छा लगा…आजकल की येही कहानी है…करवा सच है…
रख कर पैर किसी के सर
बस अपनी मंजिल पानी है.
है हाथ दोस्ती का बढा हुआ.
दिल से दुश्मनी निभानी है
आज के दस्तूर को हूबहू लिख दिया है आपने इस लाजवाब रचना में …….. समाज का यथार्थ की धरातल पर किया चित्रन …..
नजरें. कुछ और कह रही
लब की अलग कहानी है
देते आगे से मिश्री और
पीछे हाथ में आरी है
kya kahna hai!!
itni sughad aur maarak-yathaarth panktiyaan!!!
shahroz
रख कर पैर किसी के सर
बस अपनी मंजिल पानी है.
है हाथ दोस्ती का बढा हुआ.
दिल से दुश्मनी निभानी है
क्या बात है! आज यही माहौल और इच्छा तो रह गई है.
लाजवाब… बहुत ही अच्छी रचना…..
शिखा जी मुबारक हो…
बहुत सधे तरीके से सरल शब्दों में सीधी बात कहती हैं। आपका प्रोफाइल और ब्लाग देखते हुए परदेस की कसक और बदलती सोच पर सख्त आब्जर्वेशन साफ दिखता है। आपका ब्लाग देखते हुए मुझे एक पुराने मित्र कुमार अंबुज की क्रूरता शीर्षक से लिखी कविता याद आ गई जो आपके लिए भेज रहा हूं।
तब आएगी क्रूरता
पहले ह्रदय में आएगी और चेहरे पर न दिखेगी
फिर घटित होगी धर्मग्रंथो की ब्याख्या में
फिर इतिहास में और
भविष्यवाणियों में
फिर वह जनता का आदर्श हो जाएगी
….वह संस्कृति की तरह आएगी,
उसका कोई विरोधी नहीं होगा
कोशिश सिर्फ यह होगी
किस तरह वह अधिक सभ्य
और अधिक ऐतिहासिक हो
…यही ज्यादा संभव है कि वह आए
और लंबे समय तक हमें पता ही न चले उसका आना
… सात समंदर पार यूं ही अपनी भाषा से नाता जोड़े रहें। पहले कभी आपके ब्लाग पर नहीं आया था, लेकिन अब लगता रेगुलर आना-जाना बना रहेगा। खैर… इस बीच एक बात और चूंकि आप हिंदी में भी लिखती हैं तो जाहिर है इसकी महिमा भी जानती हैं, लेकिन आपको एक दुखद तथ्य से अवगत कराए बगैर नहीं रह पा रहा हूं कि गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर गुजरात हाईकोर्ट का राष्ट्रभाषा के संदर्भ में एक जनहित याचिका पर जो फैसला आया, उसमें नियमों और कानूनों से बंधी कोर्ट की बेबसी तड़पा देने वाली है। डिब्बाबंद सामग्री पर हिंदी में निर्देश न छपवा पाने के फैसले का आधार बना हिंदी का राष्ट्रभाषा न होना… कोर्ट ने कहा हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो दिया गया है, लेकिन क्या इसे राष्ट्रभाषा घोषित करने वाला कोई नोटिफिकेशन मौजूद है? गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर यह कालिमा आपको सप्रेम ताकि आप इस स्याही बना कर अपने जानने-पढऩे समझने वालों को जागरुक करने में एक और मजबूत कदम उठाएं। हिंदी की अलख के लिए शुभकामनाएं।
शिखा जी मुबारक हो…
बहुत सधे तरीके से सरल शब्दों में सीधी बात कहती हैं। आपका प्रोफाइल और ब्लाग देखते हुए परदेस की कसक और बदलती सोच पर सख्त आब्जर्वेशन साफ दिखता है। आपका ब्लाग देखते हुए मुझे एक पुराने मित्र कुमार अंबुज की क्रूरता शीर्षक से लिखी कविता याद आ गई जो आपके लिए भेज रहा हूं।
तब आएगी क्रूरता
पहले ह्रदय में आएगी और चेहरे पर न दिखेगी
फिर घटित होगी धर्मग्रंथो की ब्याख्या में
फिर इतिहास में और
भविष्यवाणियों में
फिर वह जनता का आदर्श हो जाएगी
….वह संस्कृति की तरह आएगी,
उसका कोई विरोधी नहीं होगा
कोशिश सिर्फ यह होगी
किस तरह वह अधिक सभ्य
और अधिक ऐतिहासिक हो
…यही ज्यादा संभव है कि वह आए
और लंबे समय तक हमें पता ही न चले उसका आना
… सात समंदर पार यूं ही अपनी भाषा से नाता जोड़े रहें। पहले कभी आपके ब्लाग पर नहीं आया था, लेकिन अब लगता रेगुलर आना-जाना बना रहेगा। खैर… इस बीच एक बात और चूंकि आप हिंदी में भी लिखती हैं तो जाहिर है इसकी महिमा भी जानती हैं, लेकिन आपको एक दुखद तथ्य से अवगत कराए बगैर नहीं रह पा रहा हूं कि गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर गुजरात हाईकोर्ट का राष्ट्रभाषा के संदर्भ में एक जनहित याचिका पर जो फैसला आया, उसमें नियमों और कानूनों से बंधी कोर्ट की बेबसी तड़पा देने वाली है। डिब्बाबंद सामग्री पर हिंदी में निर्देश न छपवा पाने के फैसले का आधार बना हिंदी का राष्ट्रभाषा न होना… कोर्ट ने कहा हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो दिया गया है, लेकिन क्या इसे राष्ट्रभाषा घोषित करने वाला कोई नोटिफिकेशन मौजूद है? गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर यह कालिमा आपको सप्रेम ताकि आप इस स्याही बना कर अपने जानने-पढऩे समझने वालों को जागरुक करने में एक और मजबूत कदम उठाएं। हिंदी की अलख के लिए शुभकामनाएं।
आज के हालात पर बहुर बढ़िया लिखा है आपने .बेहतरीन ..शुक्रिया
acchee rachana…..
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें…….
apki lekhanee me jadoo hai…
maan ki baat aap kah deti hai ab hum kya kahe ….
I was looking through some of your articles on this site and I conceive this internet site is very informative ! Continue posting.
I value the article post. Much obliged.
I have been absent for some time, but now I remember why I used to love this site. Thank you, I’ll try and check back more often. How frequently you update your website?