COVID-19 हमारे जीवनकाल की सबसे बड़ी वैश्विक घटना भी है और चुनौती भी.
2019 के अंत में कोरोना वायरस (COVID-19) का प्रकोप फैलना शुरू हुआ और 30 जनवरी, 2020 को अंतर्राष्ट्रीय विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा इसे माहामारी घोषित करते हुए आपातकाल की घोषणा कर दी गई। आज 6 महीने बाद भी पूरी दुनिया की आबादी का एक व्यापक टुकड़ा मुख्य रूप से अपने घरों तक सीमित है. जिसके कारण आज मानवीय दृष्टिकोण और व्यवहार बदल रहा है और समस्त संगठनों को बदलाव करने और रियेक्ट करने के लिए मजबूर कर रहा है। हालाँकि जिस तरह अचानक यह वायरस आया और यदि अचानक ही इसका ख़तरा टल भी जाता है तब भी, तुरंत ही इन प्रतिक्रियाओं की आवश्यकता या मानवीय व्यवहार और सोच अचानक बदल नहीं जायेंगे.
भविष्य में हम जीवन के कई पहलुओं में सामान्य स्थिति में लौट तो पायेंगे परन्तु इसमें भी कोई शक नहीं कि कई चीजें हमेशा के लिए बदल जायेंगी.। COVID-19 ने हमें एक ग्राहक, एक कर्मचारी, एक नागरिक और यहाँ तक कि एक मनुष्य के तौर पर बदल दिया है। इस लॉक डाउन और माहामारी की शुरुआत में लगा था कि अब शायद मनुष्य कुछ सुधर जाएगा. प्रकृति की कीमत समझेगा. शायद एक अच्छा इंसान और एक अच्छा नागरिक बनने की कोशिश करेगा परन्तु वहीँ यह भी देखने में आया कि इंसान शायद अधिक स्वार्थी और आत्म केद्रित हो गया. अधिक आराम तलब और असंवेदनशील भी. अत: आनेवाले कुछ समय के लिए इनमें व्यवहार परिवर्तन तो अवश्य ही देखने को मिलेगा।
हमारे सोचने के तरीके में क्या बदलाव आया है? यह हमारे संवाद करने, काम करने, लोगों के साथ सम्बन्ध बनाने और उन्हें बनाए रखने में किस तरह प्रभाव डालेगा यह चिंतन का विषय हो सकता है. यह इस पर भी निर्भर करेगा कि अब लोग. व्यक्तियों, परिवारों, सामाजिक समूहों, रचनात्मक नवाचार के सभी स्रोतों और जीने के नए तरीकों पर किस प्रकार रिएक्ट करते हैं.
इसमें कई तरह की और विभिन्न पहलुओं में अलग अलग प्रकार से चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है. जैसे – बच्चों पर, युवाओं पर और बुजुर्गों पर इसका अलग प्रभाव पडेगा. उन लोगों पर अलग पड़ेगा जिन्होंने इस माहामारी में अपनों को खो दिया और उनपर अलग जो इसकी वजह से बेरोजगार हो गए.
परन्तु एक असर जो हर उम्र, हर तबके और हर इंसान पर पड़ा है वह है भय का. कोविद 19 ने सामूहिक हिस्टीरिया, आर्थिक बोझ और वित्तीय नुकसान के कारण सार्वभौमिक मनोसामाजिक प्रभाव डाला है। COVID -19 का सामूहिक भय, जिसे “कोरोनाफोबिया” कहा जाता है, ने समाज के विभिन्न स्तरों पर मनोचिकित्सकों के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी की है जिससे जूझने के लिए मेडिकल साइंस को अतिरिक्त श्रम और साधन जुटाने होंगे.
इस महामारी से बचने के लिए लगाए गए और फ़ोर्स किये गए लॉक डाउन की वजह से आगे चल कर acute panic, anxiety, obsessive behaviours, अवसाद, और पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) उत्पन्न हो सकते हैं। जिन्हें सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मों के माध्यम से और फैलाया जा सकता है. विशेष समुदायों के खिलाफ नस्लवाद और ज़ेनोफ़ोबिया के प्रकोप भी व्यापक रूप देखने में आ रहे हैं। फ्रंटलाइन हेल्थकेयर के लोगों में इस बिमारी की वजह से संक्रमण फैलने के भय के साथ-साथ बर्नआउट, चिंता, असंगति, अवसाद की भावना, आदि के रूप में प्रतिकूल मनोवैज्ञानिक असर पड़ने का जोखिम अधिक है। वृद्ध लोगों के मनोसामाजिक पहलू, उनकी देखभाल करने वाले लोगों की मानसिक स्थिति और पहले से ही मनोरोगियों को यह महामारी अलग अलग तरह से प्रभावित करेगी और इस पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।
सामाजिक अलगाव की स्थिति बच्चों की मानसिकता पर गहरा असर डाल सकती है और वे इससे काफी व्यथित हो सकते हैं. उनमें भी वयस्कों की तरह ही चिंता, घबराहट, भय देखा जा सकता है. मृत्यु का भय, अपनों को खोने का भय या फिर इलाज न होने का भय बच्चों में अतिरिक्त भय और चिंता की भावना भर सकता है.
वहीँ विद्यालयों के बंद होने से बच्चों में उस व्यवस्था, संरचना और वातावरण से उत्पन्न होने वाली समझ का अभाव हो सकता है. इसके परिणाम स्वरुप उनके पास अपने मित्रों से मिलने के और उनसे सामाजिक सहारा मिलने के अवसर कम हो जायेंगे जो एक स्वस्थ मस्तिष्क विकास के लिए बेहद जरुरी है. कोविद 19 से लड़ने के लिए किये जा रहे सोशल डिसटेंसिंग बच्चों की सामान्य जीवन शैली को प्रभावित करेंगे. सारा समय बंद घरों में बच्चों का मानसिक विकास व्याधित होगा जिससे वे मानसिक रूप से परेशान हो सकते हैं.
इन तत्वों को देखते हुए कुछ नए नियम हो सकते हैं जो नया सामान्य बनकर मानव स्वभाव एवं मानसिकता पर लागू हो सकते हैं और एक नई जीवन शैली की तरफ उसे मोड़ सकते हैं.
- आत्मविश्वास की कमी – हर अद्रश्य चीज से खतरे का डर, हर इंसान और चीज से संक्रमण का भय आत्मविश्वास में कमी ला सकता है. कहाँ रहना चाहिए, कहाँ काम करना चाहिए , छुट्टियों में कहाँ और कैसे जाना चाहिए ये सारे निर्णय आत्मविश्वास की कमी से प्रभावित होंगे. जिससे रिस्क लेने की क्षमता में और सहन शक्ति कमी आएगी, व् इंसान कोम्फेर्ट जोन को अधिक महत्व देने लगेगा.
- महामारी के दौरान लागू की गई आभासी काम करने की आदत सामाजिकरण के लिए सबसे खराब भी साबित हो सकती है यह सीखने, काम करने, लेन-देन और उपभोग करने में संचार के तरीकों को प्रभावित करेगा। जाहिर है इससे मानवीय सोच पर भी प्रभाव पड़ेगा.
- स्वास्थ्य की समस्या नागरिक सोच पर हावी रहेंगी. वर्तमान संरचना से भरोसा उठने के कारण अब हर जगह स्वास्थय को प्राथमिकता दी जाएगी. और किसी भी कार्यक्षेत्र के तंत्र में सर्वप्रथम स्वास्थ्य सम्बन्धी व्यवस्था की जाने लगेगी.
- कोविद 19 में सबको सेल्फ आयेसोलेट होने को कहा जा रहा है ऐसे में इंसान आत्म केन्द्रित होने लगेगा. वह घर पर अधिक समय बिताएगा और उसकी रचनात्मकता पर भी इसका असर पड़ सकता है.
- इसी तरह लोगों की खरीदारी की क्षमता पर भी प्रभाव पड़ा है जिसका पूरी सामाजिक व्यवस्था और अर्थव्यवस्था पर गहरा असर हो सकता है. जिसके परिणाम स्वरुप हर तबके के लोगों पर उनकी सोच पर महत्पूर्ण परिवर्तन देखने को मिल सकता.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने कोविद -19 को वैश्विक महामारी घोषित किए हुए लगभग सात महीने हो चुके हैं। इस समय में, खुदरा क्षेत्र पूरी तरह से फिर से विकसित करना पड़ा है। अचानक से प्रसिद्द ब्रांडों को, बिना किसी तैयारी के एक ऐसी महामारी के अनुकूल होना पड़ा जिसे किसी ने आते हुए भी नहीं देखा, कोविद 19 के परिणाम स्वरुप कई गैर-जरूरी भौतिक दुकानों को अगली सूचना तक बंद करने के लिए मजबूर किया गया। स्टोर जो खुले रह गए हैं, वहां माल पूरा नहीं आ रहा है. स्टॉक कम है तो जाहिर है सामाजिक वितरण भी कम है. इनके परिणामस्वरूप उपभोक्ताओं ने अपने खरीदारी व्यवहार को बदल दिया है, कई मामलों में अधिक लेनदेन ऑनलाइन हो गए हैं।
इन चुनौतियों और मानसिक सामाजिक बदलाव के कारण पूरी दुनिया के सामाजिक ढाँचे पर प्रभाव पड़ेगा और मानवीय व्यवहार भी नई दिशा लेगा. परन्तु ऐसा नहीं है कि दुनिया ख़त्म हो जाएगी. आपदाएं अतीत में भी आती रही हैं और मानव अपनी बुद्धि विवेक से उनसे लड़ कर सफल भी होता रहा है. किसी यात्रा में बेशक कोई रूकावट आ जाये पर वह फिर से शुरू होती ही है. इसी तरह हमें जीवन की यात्रा फिर से शुरू करनी होगी. शायद कुछ बदलावों के साथ, कुछ नई सोच के साथ. एक नई मानसिकता के साथ.
इस महामारी से उबरने के लिए भी कुछ तरीके अपनाए जा सकते हैं जिनमें सर्वोपरि है –
- सहानुभूति, हमदर्दी और संवेदना की भावना – मनुष्य की दूसरे मनुष्य के प्रति सहारा बनने की भावना. आज हम देखते हैं सामने से कोई आता दिखता है तो दूर हो जाते हैं, कोई खांसता भी दिखता है रास्ता बदल लेते हैं. दूसरे इंसान को छूने से हम घबराने लगने हैं, मदद करना और सहारा देना तो दूर की बात. हमें इस मानसिकता से निकलकर इंसानियत की राह पकड़नी होगी. किसी दूसरे को सान्तवना और मदद देकर हम अपने लिए भी सुकून पा सकते हैं.
- आप घर में अब अधिक समय रह रहे हैं, इस अतिरिक्त समय को लोगों की मदद करने में उपयोग करें. नए रास्ते बनाएं. नई आदतों को अपनाने में एक दूसरे की मदद करें. घर पर ही रह कर जीवन शैली को किस प्रकार रोचक, रचनात्मक और प्रोडेक्टिव बनाया जा सकता है इस पर विचार करें और इसे क्रियान्वित करने के लिए दूसरों को प्रोत्साहित करें, उनकी मदद करें. घर पर रहने के नए सकारात्मक नियम अपनाने से और बाकी लोगों को अपनाने में मदद करने से आपके आपसी रिश्तों में भी घनिष्टता आएगी.
- अब जबकि इस महामारी के दौरान वर्चुअल यानी आभासी दुनिया हमारी जिन्दगी का एक अहम् हिस्सा बन गई है तो इसके बाद भी वह एकदम से लुप्त तो नहीं हो जाएगी. अत: आवश्यक है कि इसका सकारात्मक उपयोग किआ जाए. इस दौरान न जाने कितने ही घेरेलु उद्ध्योग और कार्यशालाएं ऑनलाइन शुरू हुई, न जाने कितने ही लोगों की दबी हुई प्रतिभा बाहर आई, यहाँ तक कि संग्राहलय, प्रदर्शनी और यात्राएं तक भी ऑनलाइन होने लगीं. आगे भी इनका फायदा उठाया जा सकता है.
- नए के प्रति भरोसा जताइए, उसे सामान्य मान कर व्यवहार कीजिये. क्योंकि नए व्यवहार या नियम का पालन करते हुए इंसान को संकोच हो सकता है. उसे ऐसा लग सकता है जैसे वह अकेला ही यह सब कर रहा है, परन्तु यदि वह दूसरे को भी उसी नियम का पालन करते हुए देखता है तो उसे वह नया व्यवहार लागू करने में अधिक आसानी होती होती है. और वह अधिक विश्वास के साथ नियमों का पालन कर पाता है.
- पिछले ‘न्यू नॉर्मल’ से कुछ सीखें: इतिहास गवाह है कि संकट के समय भी कुछ व्यवसाय बहुत बढे. महामंदी के समय भी जहां नेटफ्लिक्स, लेगो, अमेज़ॅन और डोमिनोज़ जैसे ब्रांडों ने निवेश, नई पद्धति, ग्राहक सेवा, वैकल्पिक मूल्य निर्धारण, मॉडल और संचार में पारदर्शिता के माध्यम से अपने क्षितिज का विस्तार किया। वहीँ उनके कई प्रतियोगियों ने या तो संवाद – संचार ही बंद कर दिया या फिर पुराने व्यावसायिक मॉडल पर ही अटके रहे. इन ब्रांडों ने उपभोक्ताओं को सही तरीके से आगे बढ़ाया और व्यवहार परिवर्तन के समय में तरलता दिखाते हुए अपना काम सुचारू रूप से किआ.
ऐसा नहीं है कि ये बदलाव नकारात्मक ही होंगे या लोगों के मनोसामाजिक व्यवहार में सिर्फ नकारात्मक तत्व ही आयेंगे. बहुत से सकारात्मक बदलाव भी देखने को मिल सकते हैं. एक सुलझी, सरल और सहज सोच विक्सित हो सकती है. मनुष्य प्रकृति की और मुड़कर environment को बेहतर बना सकते हैं. और यह हम बच्चों से सीख सकते हैं.
कहा भी जाता है a child is a father of the man – कुछ ऐसा ही मैंने पछले दिनों अनुभव किआ. यहाँ लन्दन में हिन्दी समिति द्वारा 7 से 17 वर्ष के बच्चों की हिन्दी भाषण प्रतियोगिता हुई, जिसमें यूरोप के विभिन्न देशों से करीब 150 बच्चों ने भाग लिया. उस प्रतियोगिता के अनेक विषयों में एक विषय “लॉक डाउन में परिवर्तन” भी था. जिसपर करीब 40 बच्चों ने अपने विचार व्यक्त किये. मुझे यह सुनकर सुखद आश्चर्य हुआ कि इस निराशाजनक समय में भी उन बच्चों ने उसमें से सकारात्मक तत्व और बदलाव ढूंढ निकाले थे. उनके अनुसार अब घर में उनके माता पिता के साथ उन्हें क्वालिटी टाइम मिलता है. घर बना हुआ शुद्ध, पौष्टिक और स्वादिष्ट भोजन मिलता है. छुट्टियों में अब कहीं महँगी जगह जाने का प्लान करने की बजाय वे अब परिवार के साथ घर में या घर के बगीचे में पिकनिक मनाते हैं. उन्होंने न जाने कितनी रुचियाँ विकसित कर ली हैं, कितना कुछ ऐसा सीख लिया है जो न कि केवल उनका समय व्यतीत करता है बल्कि उनके व्यक्तित्व का विकास भी करता है.
आप ही सोच कर देखिये आज इस माहामारी और लॉक डाउन के कारण हम चिंतित हैं कि लोग अवसाद में आयेंगे, आत्म हत्या जैसी घटनाएं होंगी . पर क्या ये पहले नहीं था ? माता पिता के पास बच्चों के लिए समय नहीं था. अकेलापन समाज में बढता जा रहा था. लोग भौतिकतावादी हो गए थे. और इनसब से युवाओं में आत्महत्या की घटनाएं दिनों दिन बढ़ रही थीं. परन्तु इस महामारी में मजबूरन ही सही जीवन शैली में जो बदलाव आये हैं उनसे मनुष्य फिर से प्रकृति से और परिवार से जुड़ा है. उसकी सोच में परिवर्तन आया है और हो सकता है जिस अच्छे बदलाव का पूरा न सही कुछ हिस्सा इसके बाद भी बचा रहे और हमारे समाज में सुधार हो, दुर्घटनाओं में कमी आ जाये. इसी सकारात्मक भाव और सोच के साथ नए सामान्य की ओर कदम बढाने होंगे.