जी हाँ आजकल ये एक ज्वलंत विषय है जो इंग्लैंड और खासकर लन्दन और इसके आस पास रहने वाले लोगों को सालता रहता है .आज से पांच साल पहले तक ये एक ऐसा मुद्दा हुआ करता था जिसपर माता – पिता को सोचने की कतई जरुरत महसूस नहीं हुआ करती थी .बच्चा ५ साल का हुआ तो बस जाकर रजिस्टर करा दो जिस इलाके में आप रह रहे हैं वहां के सबसे पास के स्कूल में आपके बच्चे का दाखिला हो जायेगा .कोई चिंता नहीं कोई परेशानी नहीं .
क्या इतिहास फिर से दोहराएगा खुद को ?
अभी हाल ही में स्थानीय समाचार पत्र में एक समाचार आया कि एक दंपत्ति ने अपने बच्चे का एक स्कूल में रजिस्ट्रेशन उसके पैदा होने से पहले ही करा दिया .क्योंकि उन्हें डर था कि समय पर उन्हें उनके इलाके का और उनकी पसंद का स्कूल नहीं मिलेगा और वो अपनी पसंद के प्रतिकूल स्कूल में बच्चे को भेजने के लिए विवश होंगे.
पर विगत कुछ वर्षों से हालात गंभीर हो गए हैं .
इंग्लैंड जहाँ ९०% बच्चे पब्लिक (सरकारी ) स्कूलों में जाते हैं और जहाँ ५ से १६ साल तक सभी के लिए शिक्षा अनिवार्य है .यहाँ की शिक्षा व्यवस्था के अनुसार आप जहाँ रहते हैं आपका बच्चा उसी इलाके के स्कूल में पढने का अधिकारी है .परन्तु धीरे धीरे स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ने लगी. और कुछ खास अच्छी छवि वाले स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने के चाव में माता पिता उसी इलाके में आकर रहने लगे.
अब आलम ये है कि स्कूल कम हैं और बच्चे ज्यादा . नियम के मुताबिक एक क्लास में ३० से ज्यादा बच्चे नहीं हो सकते क्लासों में सीट नहीं हैं. और इसलिए आप के समीपतम इलाके के स्कूल में जगह नहीं है, तो जहाँ भी जिस स्कूल में जगह है, आपके बच्चे को वहां दाखिला दिया जायेगा और आप उससे इंकार नहीं कर सकते क्योंकि बच्चा अगर ५ साल का हो गया है तो आपको उसे स्कूल भेजना होगा फिर बेशक वो कितना भी दूर क्यों ना हो ..और उसे कैसे भेजना है और लेकर आना है ये भी आपका सर दर्द है क्योंकि आपके रिहायशी इलाके के ही स्कूल में आपका बच्चा पढ़ेगा इस व्यवस्था के मद्देनजर स्कूल बस नाम की कोई व्यवस्था यहाँ नहीं है. नतीजा ये कि २-२ घंटे बस से सफ़र करके माता -पिता बच्चों को स्कूल लाने .लेजाने के लिए विवश हैं वो भी अपनी नापसंदगी के स्कूल में भेजने को भी.एक ऐसे देश में जहाँ माता पिता दोनों को ही जीवन निर्वाह के लिए धन कमाना पड़ता है ,उनका सारा वक़्त बच्चों को स्कूल छोड़ने और वहां से लेकर आने में ही व्यतीत हो जाता है और वे कुछ भी और करने के लिए समय नहीं निकाल पाते .वही निशुल्क शिक्षा होते हुए भी एक बड़ी राशि परिवहन के साधनों में चली जाती है .जाहिर है बच्चों की शिक्षा माता पिता के लिए सरदर्द बनता जा रहा है.
वैसे तो इंग्लेंड में ५ से १६ साल तक की शिक्षा पूर्णत: निशुल्क है परन्तु अब सरकारी फंड की कमी के चलते स्कूलों से अभिभावकों के चंदा देने की गुजारिश की जा रही है .
कुछ जानी पहचानी व्यवस्था की ओर इशारा नहीं करती ये समस्याएं ?
शायद भारत में भी शुरू में यही शिक्षा व्यवस्था थी ..धीरे धीरे सरकारी स्कूलों के गिरते स्तर के चलते निजी स्कूलों का प्रचलन बढ़ गया और आज स्थिति क्या है ये हम सब जानते हैं .
जहाँ तक इंग्लैंड का सवाल है यहाँ भी स्थिति भी मुझे उसी ओर जाती दिखाई दे रही है .जब माता पिता को अपनी पसंद के अनुकूल स्कूल में बच्चे का दाखिला नहीं मिलेगा तो वो कोई ओर रास्ता ढूंढेगा
. इसी राह पर निजी स्कूल ज्यादा बनने लगेंगे और शिक्षा एक व्यवसाय का रूप ले लेगी. फिलहाल यहाँ के निजी स्कूलों की फीस सिर्फ बहुत उच्च वर्ग की ही क्षमता में है. और धीरे धीरे वही हालात होंगे जो आज भारत के है सरकारी स्कूलों में सिर्फ वही बच्चे पढेंगे जिनके अभिभावक निजी स्कूलों की महंगी फीस दे पाने में असमर्थ हैं .
एक समय था जब भारतीय विद्यालयों में देश विदेश से भारी संख्या में छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते थे .कहते हैं वक़्त का पहिया गोल है .
क्या इतिहास फिर से दोहराएगा खुद को ?
सामायिक विषय पर लिखा है आपने ..भारत में स्थिति कम भयावह नहीं है ! शिक्षा एक व्यवसाय का रूप ले चुकी है चूंकि मान बाप अपने बच्चे के भविष्य के लिए लिए कुछ भी खर्च करने को तैयार रहते हैं अतः व्यवसाय करने के लिए यह सबसे बढ़िया मौका है ! पैसे वाले स्कूलों में टीचर भी अच्छे , नतीजा अच्छे शिक्षकों का आभाव हो गया है ! सामान्य स्कूल सिर्फ सामान्य ही रह गए हैं अतः यह बच्चे को अच्छे स्कूल में डालने के लिए भागदौड़ के लिए सोचना भी एक भयावह घटना है !
देखिये आगे कहाँ तक जाता है यह सब ! शुभकामनायें चाहिए !
लगता तो यही है,वहाँ भी यही स्थिति आनेवाली है…और वहाँ की सरकार तो हमारी सरकार की तरह अकर्मण्य नहीं…फिर क्यूँ नहीं इस समस्या की तरफ गंभीरता से सोच रही है??
जबकि वहाँ ,बच्चोंके हित का काफी ख्याल रखा जाता है…..मेरी रिश्तेदार की बेटियाँ वहाँ दो ट्रेन बदल कर स्कूल जाती हैं, शुरू में वो खुद छोड़ने जाती थी….अब अकेले ही भेज देती हैं उन्हें .क्या इतना लम्बा सफ़र कर बच्चे थक नहीं जाएंगे?…वहाँ तो लोगों में भी काफी जागरूकता है…इस तरफ सरकार का ध्यान खींच कर कुछ ठोस कदम उठाने पर मजबूर करना चाहिए.
आज बहुत गहन विषय उठाया है …अभी तक तो हम यही समझते थे की यह समस्या भारत और उसके जैसे देशों में ही है ..यहाँ तो शिक्षा एक व्यवसाय के रूप में पनप चुकी है …लेकिन लन्दन में ऐसी समस्या सच ही चिंतन का विषय है …
जागरूक नागरिक की भूमिका निबाहते हुए आज अच्छी पोस्ट लगायी है …
रश्मि ! यही तो सारी बात है कि यहाँ इस तरह की समस्या है पर कोई हल्ला नहीं ..कोई हड़ताल नहीं .परेशान सब हैं और जाहिर भी करते हैं अपनी परेशानी परन्तु सब अपने अपने तरह से एडजस्ट करने की कोशिश कर रहे हैं फिलहाल …फंड नहीं आ रहे तो सरकार से कोई गिला नहीं मुश्किल समय है ..इसलिए अभिभावकों से चंदे कि गुजारिश की जा रही है और वो देंगे भी .और ११ साल से छोटे बच्चों को आप यहाँ के कानून के हिसाब से अकेले नहीं भेज सकते उनके साथ किसी बड़े का होना आवश्यक है .इसीलिए मैने कहा शायद वर्तमान भारतीय परंपरा की तरफ ही जा रही है ये व्यवस्था.
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इंग्लेंड मै भी यह समस्या है पढ कर हेरानगी हुयी, जर्मन मे जब तक बच्चा पेदा नही हो तब तक उस का नाम रजिस्ट्र नही हो सकता, ओर जन्म के बाद आप का हक बनता है बच्चे को किंडर गार्डन ओर स्कुल भेजने का, ओर जब बच्चे की उम्र स्कुल की होगी तो सरकार की तरफ़ से हमे एक पत्र आ जाता है कि आप अपने बच्चे को स्कुल मै दाखिल करवाये,ओर जो भी स्कुल हमारे एरिया मै होगा उस मै हमारा बच्चा जायेगा, चोथी कलास तक, फ़िर स्कुल अलग अलग स्केल से बंट जाते है, ओर बच्चे जिस भी स्कुल मे जाये गे वहां तक बस सेवा बिलकुल फ़्रि, जब बच्चा१७ साल का हो जाये तो बस का कुछ किराया देना पडता है ज्यादा नही, प्राईवेट स्कुल यहां मैने अभी तक नही देखा, सुना है कि एक हे , ओर यहां सारी पढाई बिलकुल फ़्रि हे अंत तक, बल्कि बडी पढाई मै सरकार मदद भी करती हे, धन्यवाद वहां के बारे मै आप ने विस्तार से बताया
बहुत अच्छा विषय आपने उठाया है.यहां तो शिक्षा एक व्यवसाय बन ही चुकी है.उम्मीद है वहां इस तरह न हो….
शिक्षा के व्यवसायिकरण ने और फिर संसाधनों के निरंतर कमी की वजह से भारत में भी यह स्थिति बहुत दूर नहीं है.
सरकारी विद्यालय का शिक्षक होने के कारण सारी स्थितियों को पूर्वानुमान आसानी से हो जाता है. दिल्ली में स्कूलों की कमी (जबकि हर मुहल्ले के लगभग हर ब्लाक में सरकारी विद्यालय विद्यमान है) और प्रवेश के लिये भयावह मारामारी हमें सोचने को मजबूर कर देती है. आँकड़े कुछ भी कहें पर स्थिति ठीक नहीं है.
पढ़कर आश्चर्य हुआ कि वहाँ इतनी मारामारी है स्कूलों में एडमिशन के लिए. हम तो यही समझते थे कि ये सब सिर्फ भारत में है, विकसित देशों में नहीं.
Aane wale samay ki ek or samasya ke bare main sanket, Badhiya Diosa
हिंदुस्तान में शिक्षा का बाजारीकरण अपने चरम उत्कर्ष पर है , नित नए आयाम बनते जा रहे है . सरकारी विद्यालयों को मिले अनुदान, भर्ष्टाचार के भेट चढ़ जाते है .स्थिति विस्फोटक होती जा रही है . भारतीय संरक्षक अपने पाल्य की शिक्षा के लिए अपने भविष्य की चिंता को भी त्याग देता है . उनके बच्चो की पढाई का असर उनके बटुवे के भारीपन पर पड रहा है .आर्थिक रूप से संपन्न देशो का शिक्षा के व्यावसायिक कारण में पीछे रह जाना थोडा आश्चर्य जनक है .
on lighter note –लन्दन में स्कूल बस का परमिट मिलने लगे तो बता दीजियेगा .
अभिभावकों से चंदा देने की गुजारिश. मुश्किल समय
है|.फंड नहीं आ रहे सरकार से? इतने विकसित और पूरी दुनिया को पाठ सिखाने वाले देश में यह स्थिति है तो समझना बेहद तकलीफदेह है कि वहाँ के आम अभिभावक किन जटिल हालातों से गुजर रहे होंगे| दफतर जाएं या स्कूल छोड़ने , इसी ऊहापोह में वे पिस गए होंगे| यहाँ भारत में तो सिफारिशें कराके दाखिला करा दिया जाता है चाहे जगह हो या नहीं| यह भी होता है कि ख़बरें छप जाती है और संसद-विधानसभा में हल्ला भी हो जाता है मगर आप जैसा कि बता रहीं हैं कि वहाँ परेशान सब हैं मगर समूह की आवाज नहीं आ रही, पेरेंट एसोसिएशनें किस काम की? एक बड़े देश की राजधानी में यह सब होना दुखद है| आपने एक गंभीर मुद्दा उठाया है| मुझे बेहद आश्चर्य होता है यहाँ का कोई नगर-निगम कहे कि सरकार पैसे नहीं देती तो आश्चर्य नहीं होगा मगर ब्रिटेन में ऐसा होना घोर आश्चर्य की बात है| फिर भी शुक्र है कि वहां नब्बे फीसदी बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं और प्राइवेट एजुकेशन की दुकानदारी वहां महामारी की तरह नहीं फ़ैली है|
कुछ कुछ बातें पता थी मुझे, लेकिन ये जा कर सही में आश्चर्य हुआ की वहां की हालत भी ऐसी खराब है…
वैसे आपका ये लेख मैंने कल ही पढ़ लिया था नेटवर्क ६ के वेबसाइट पे.. 🙂
सच कहे तो बस यही सुनना बाकी था। अब तो शादियाँ भी इसी बात होंगी कि होने वाले बच्चे का प्रवेश हो गया है कि नहीं। बच्चे होने के पहले उनका दाखिला न होना सामाजिक अपराध माना जायेगा।
I dont think so
bahut hee jwalant samsya uthaya hai aapne ..aane wale samay me shikchha etna gambheer samsya ka roop le lega .soch kar hee bhay lagta .hai
आपकी पोस्ट पढ़ कर इन हालात की जानकारी मिली. सच में चिंतापूर्ण विषय है और उन अभिभावकों के लिए तो सिरदर्द भी जिनके बच्चे को किसी अन्य इलाके में दाखिला लेना पड़ता है. ऐसी स्थिति देख कर तो लगता है यहाँ भी वो दिन दूर नहीं जब हर डिविजन में निजी स्कूल खुल जायेंगे.
तो आप जल्दी से कोई प्रोपर्टी खरीद डालिए और एक निजी स्कूल खोलने की रूप रेखा जल्दी ही तैयार कर लीजिए…शुरुआत तो कीजिये….शायद आगे अच्छा रिस्पोंस मिले 🙂
खैर ये एक मजाक था…विषय बहुत चिंता का है…लेकिन उम्मीद है यहाँ की सरकार जागरूक है तो कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेगी.
आभार इस लेख के लिए.
सारा खेल टु बी और नॉट टु बी का है… हमरी बिटिया के स्कूल में हर साल फारम भराया जाता है कि क्या यह आपकी इकलौती संतान है. काहे कि सरकार के तरफ से एकमात्र संतान और ऊ भी अगर पुत्री हो तो मुफ्त सिच्छा का ब्यबस्था है. मगर खाली फारम भरवाया गया है आज तक, स्कूल का फीस हर साल बढ जाता है.
दूसरा समस्या नौकरी का है. हर तीन नहीं तो चार साल में ट्रांसफर. ऊ भी साल के कोनो महीना में. नतीजा नया सहर में खोजते रहिये स्कूल, जो साल के बीच में आपका दाखिला कर ले. मन मारकर पूरा पईसा फिर से देकर जइसा तइसा स्कूल में नाम लिखवा दीजिए. अऊर कहीं भारत के उत्तर से दक्खिन या पूरब से पच्छिम जाना पड़ा तो भासा का समस्या अलग.
बहुत अच्छा सवाल उठाईं हैं आप सिखा जी. देखिये हर कोई खुलकर बोल रहा है. लगता है जैसे आप हर आदमी के घाव का सीवन खोल दी हैं, अब देखिए केतना ब्यथा कथा निकलकर सामने आता है. बहुत बहुत सार्थक पोस्ट!!
… समस्या गंभीर जान पड रही है फ़िर भी भयाभह नहीं है, यहां अपने देश में तो शिक्षा का जो व्यवसायीकरण हुआ है उसे देखकर ऎसा लगता है कि अब एक सामान्य ईमानदार व्यक्ति अपने बच्चों को मुश्किल से ही पढा पा रहा है … संभव है आने वाले दिनों में मिडिल क्लास तथा लोवर क्लास फ़ैमिली को अपने बच्चों को पढा पाना ही … !!!
तो यह समस्या सार्वदेशिक हो गई है … हम तो सोचते थे भारत में ही शिक्षा व्यवसाय बन गई है ।
समीपतम शब्द की जगह निकटतम शब्द इस्तेमाल करती तो अच्छा होता ।
आज कल शिक्षा एक व्यवसाय बन चूका है माँ -बाप कैसे फीस देंगे उनको नहीं पता पर स्कूल वाले कैसे कैसे किस फंड में कितना पैसा वसूल करेंगे ये वो जानते है…
एक मुद्दा उठाया ..अच्छा किया
जनसँख्या के साथ साथ दुनिया में शिक्षा का व्यवसाय भी बढेगा… चिंता का विषय है…
मेरे ब्लॉग पर मेरी नयी कविता संघर्ष
Shiksha aur medical tourism,dono hi wyawsaay ban gaye hain. Jahan wruddhon ko leke ham pashchimi deshon kee raahpar chal nikle hain…wruddhashramon me badhautree ho rahee hai,wahan shiksha ko leke pashchimi desh hamare nakshe qadam pe chal nikalen!Is wishayme apne desh ka to fayada haihi!
शायद वही स्थिति आने वाली है…… बड़े प्रासंगिक और सामयिक विषय पर बात की आपने
शिखा जी ,
प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्यता के चलते / बच्चे के भविष्य के प्रति जागरूक होकर / बच्चे को स्कूल तक छोडनें की अपनी कानूनी मजबूरियों और अपनी आर्थिक दिनचर्या की मजबूरियों के चलते ही सही माता पिता एक अच्छे स्कूल के पास बसना चाहते हैं यह समस्या की जड भी है और एक शुभ संकेत भी ! शुभ संकेत यूं कि उस समाज की प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर अच्छे स्कूल / अच्छी शिक्षा का स्थान है , पृष्ठभूमि के कारण चाहे जो भी हों , यकीनन ऐसे समाज विकास की धारा में कभी पिछड़ते नहीं हैं !
आपकी पोस्ट में एक ज्वलंत सवाल सामनें खडा किया गया है किन्तु इसके जबाब के लिए भविष्यवाणी और पूर्वानुमानों की आवश्यकता है जोकि नि:संदेह एक दुष्कर कार्य है ! मिसाल के तौर पर पूर्वानुमान किये जायें तो …
(१)संभवतः आपकी बात सही हो जायेगी इतिहास की पुनरावृत्ति हो सकती है ! अथवा…
(२)वहां की सरकार और राजनेता समय रहते इसका हल निकाल लेंगे ! अथवा…
(३)आवश्यकता के मद्दे नज़र प्राइवेट स्कूलों की संख्या बढ़ जायेगी और इनकी बढ़ती संख्या से होनें वाली प्रतिस्पर्धा की वज़ह से शिक्षा ज्यादा महंगी भी नहीं रह जायेगी ! अथवा…
(४)वहां के लोग इस समस्या के लिए एशियाई /अफ़्रीकी मूल के लोगों को जिम्मेदार मानकर नस्लभेद की ओर प्रवृत्त होंगें जोकि खतरनाक संकेत है ! अथवा…
(५)अब सभी संभावनाएं हम तलाशेंगे तो बाकी लोग क्या करेंगे 🙂
कहनें का आशय ये कि ऐसे मुद्दों पर भविष्यकथन आसान नहीं है पर संभावना वो भी हो सकती है जो आपनें कही है या फिर नहीं भी !
एक और बात जो सूझती है वो ये कि एशियाई /अफ्रीकी देशों में प्राइवेट शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर ईसाई मिशनरियों का लगभग कब्ज़ा है और वे मानवता की सेवा के लिए उतावले हुए जा रहे हैं तो एक ईसाई बाहुल्यता वाले देश में आनें वाले संकट पर उनका ध्यान क्यों नहीं है 🙂
बहुत प्रासंगिक विषय चुना आपने अपने आलेख के लिए ……भारत में तो शिक्षा का इस कदर व्यवसायीकरण हो गया है की बयां करना भी मुश्किल है . लेकिन यहाँ अमेरिका में भी मामला यही रुख लेता जा रहा है . अभी हालत इतने भी गंभीर नहीं हुए लेकिन है आलम यह है की अच्छे स्कूलों के आस पास अपार्टमेंट्स के रेंट बहुत ही ज्यादा हो गए है चाहे वो अपार्टमेंट्स उतने रेंट के लायक हो भी नहीं मेनेजमेंट सुनता ही नहीं उन्हें पता है लोगो के पास दूसरा विकल्प भी तो नहीं है
हम विदेशों से काफी कुछ दुर्गुण आयात करते रहे हैं …ख़ुशी हुई जानकर कि हमारी कुछ कमजोरियां वे भी अपनाने वाले हैं …:):)
मजाक से अलग बात करें …बहुत अच्छा विषय चुना है …
वहां सरकारें जिम्मेदार है शायद इसलिए ही नागरिक ज्यादा हो हल्ला नहीं मचा रहे …!
समय बड़ा बलवान होता है…कौन कह सकता था कि इंग्लैंड और अमेरिका जैसे देशों के लोग इलाज के लिए भारत आएंगे…मेडिकल टूरिज्म के लिए भारत बड़ा डेस्टिनेशन बनता जा रहा है…हो सकता है एजुकेशन को लेकर भी कल ऐसी ही उल्टी गंगा बहे…लेकिन भारत में हर चीज़ पैसे से जुड़ी है…पैसा है तो आप सब कुछ कर सकते हैं…क़ानून भी यहां पैसों वालों के लिए अलग और गरीबों के लिए अलग है…इंग्लैंड के ये हालात इशारा कर रहे हैं कि राजशाही पर किए जाने वाले व्यर्थ के खर्च पर वहां की जनता को गंभीरता से सोचना होगा…यही पैसा बच्चों की पढ़ाई पर खर्च हो तो देश के भविष्य के लिए अच्छा रहेगा…
जय हिंद…
Landon ki samasya aap jano…:):D
waise aapke report me dum hai……
ek aur baat, hame to tab khushi hogi, jab England India ke peeche ho har kshetra me……..
peechle dino CWG ke opening ceromony me suna England ke sportsperson paise ke kami karan Kurta pahan kar aaye, ye achchha laga…:D
भारत की स्थिति तो बहुत ही भयावह है खास कर महा नगरो में यहाँ तो साफ कह दिया जाता है किसी भी निजी स्कुल में की माँ बाप के सामाजिक स्थिति को देख कर ही बच्चे को एडमिशन दिया जायेगा सामाजिक स्थिति का क्या पैमाना है वो भी वो नहीं बताएँगे सब कुछ उनकी मर्जी पर निर्भर है | कुछ स्कुल तो ऐसे है कि माँ बाप यदि फ़ीस किसी तरह से जमा करने के लिए तैयार है और बच्चे का एडमिशन चाहे तो वो सीट खाली रहने पर भी नहीं देंगे क्योकि आपकी हैसियत बाकि बच्चो के माँ बाप से नहीं मिलती है तो कही पर माँ बाप के शिक्षा के आधार पर बच्चो को एडमिशन मिलता है तो कही पर ये देख कर की क्या माँ बाप अंग्रेजी में बात चित कर सकते है की नहीं | एक कान्वेंट तो मुंबई के अपने एक तरफ के लोगों को फार्म ही नहीं देता क्योकि उसके बाद रहने वाले लोग दुसरे समुदाय से है और उनका रहन सहन बोलचाल स्कुल के स्तर से मैच नहीं करता है जबकि उसके दूसरी तरफ के लोगों को देता है | मुझे नहीं लगता है कि वहा पर इस तरह का पैमान कभी बनेगा बच्चो के एडमिशन के लिए |
ाच्छा तो दुनिया अब भारत की राह पर चलने लगी है। ये तो शुरूआत है आगे आगे क्या होगा ये देखना बाके है। बहुत अच्छी जानकारी दी है। मगर फिर भी भारत जैसी हालत कहीं नही हो सकती। जब तक वहाँ भ्र्ष्टाचार भी भारत जितना न हो जाये। भारत की शिक्षा प्रणाली की दुर्गति से उन्हें सबक लेना चाहिये। धन्यवाद।
चिंतापूर्ण विषय है…….हम यही समझते थे की यह समस्या भारत में ही है !लेकिन यहाँ आस्ट्रेलिया में अभी ऐसी कोई समस्या नहीं है !
hi rochak our sarahneey post…badhai.
शिखा जी ….. गलती के लिए वार्ता दल आपसे माफी चाहता है …. हो जाता है कभी कभी ! पर अब भूल सुधर ली गई है ! ध्यान दिलाने के लिए आपका बहुत बहुत आभार ! बस ऐसे ही स्नेह बनाये रखें !
अच्चा लगा मिलकर.फिर कभी फ़ुरसत में टिपियायेंगे !
मुझे तो पढते वक्त यही लगा था कि भारत की बात हो रही है …………बिल्कुल एक जैसे हालात है तो इतिहास खुद को दोहरा भी सकता है।
इतिहास फिर से दोहराएगा खुद को …यक़ीनन
देर सवेर इतिहास खुद को दोहराता जरूर है
अच्छा विषय लिया है. यदि समय रहते जरुरी कदम नहीं लिये गये तो निश्चित ही स्थितियाँ विकराल होंगी और इतिहास को दोहराने में समय नहीं लगेगा..कनाडा में अभी स्थितियाँ बहुत बेहतर हैं और नियम तो इसी तरह के हैं.
अभी कुछ दिन पहले टी वि पर समाचार था की इंग्लैड की सरकार ने वहां के आई .टी इंजिनियर को भारत से ट्रेनिग लेने के निर्देश दिए है |
और अब स्कूलों की पढाई के ये हल ?सचमुच दुनिया गोल है |
बहुत सामयिक विषय पर अच्छी पोस्ट |
सार्थक और सारगरभित आलेख। विदेशों की शिक्षाव्यवस्था के बारे में जानकारी प्राप्त हुई। साथ ही अपने यहां से तुलनात्मक विवेचन भी। स्थिति ग्ण्भीर है, चिंताजनक भी।
अच्छा विषय है। भारत में भी जनसंख्या के दवाब में स्कूलों की संख्या प्रतिदिन कम होती जा रही है।
सदियों पहले दुसरे मुल्को के छात्र भारत में शिक्षा ग्रहण करने आते थे, क्योकि उस समय भारत में नालन्दा एवं तक्षशिला जैसे विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय थे, जिसमे न केवल शिक्षा का बल्कि आध्यात्मिकता का विकास भी होता था|
आज कल भारत में ऐसे विश्वविद्यालय है ही नहीं, यहाँ केवल याद करो रत्त्ता मारो और मार्क्स लाकर पास हो जाओ, ऐसी शिक्षा व्यवस्था है. जिस से सिर्फ गधे ही पैदा हो रहे हैं|
इस विषय के बारे में मैं अपने पोस्ट में विचार जल्द प्रकट करूँगा|
वैसे आप हमें दुसरे मुल्क के बारे में बता कर हम लोगो की बहुत सी मिथ्या को दूर करने का अच्छा प्रयास कर रही हैं|
इस सराहनीय पोस्ट के लिए धन्यवाद |
धरती गोल है … अर्थशास्त्र का सिद्धांत भी यही कहता है … समय का पहिया भी गोल है … तो इतिहास तो अपने आप को दोहराएगा …. और वैसे भी ये व्यावसायिक करण तो पश्चिम की ही देन है …. कभी तो भोगना पढ़ेगा ही …
सच में अपने बच्चों को समुचित शिक्षा प्रदान करना एक चुनौती ही है, चाहे आप रहने वाले कहीं के भी हों, इससे कोई फर्क नहीं पडता।
यूरोप के किसी देश जैसे स्वीडन की ओर बढ़ा जाए जहां बच्चा राष्ट्रिय संपत्ति माना जाता है और उसकी पूरी ज़िम्मेदारी राज्य उठाता है
Sach men yah ek atyant samayik lekh hai—aur ise apne bahut behatareen dhang se prastut kiyahai.
shubhkamnayen.
Poonam
कुछ भी सम्भव है ।
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शिखा जी,
सामायिक विषय पर लिखा है आपने। जागरूक करती इस शानदार प्रस्तुति के लिए आभार।
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मैं क्या कहूँ….. अब…. किसी ने भी कुछ कहने लायक ही नहीं छोड़ा … अब यह तो है ही,……. कि…….. History repeats itself……
मैं क्या कहूँ….. अब…. किसी ने भी कुछ कहने लायक ही नहीं छोड़ा … अब यह तो है ही,……. कि…….. History repeats itself……
namaste london ..shikha ji apka blog bina padhe sukon hi nahin milta hai badhai
shikha ji,
desh koi bhi ho samasya lagbhag ek see hin hai. hamaari aur sarkaar ki soch badalni aawashyak hai tabhi inka samaadhan ho sakta.
ek jaagruk lekh keliye badhai aapko.
एक सटीक, सामयिक एवं शिक्षकीय व्यवस्था पर प्रहारक आलेख .
– विजय
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