हालाँकि प्रीव्यू देखकर लग रहा था की फिल्म ऐसी नहीं होगी जिसके लिए जेब हल्की की जाये। परन्तु यश चोपड़ा नाम ऐसा था कि, उनके द्वारा निर्देशित अंतिम फिल्म देखना अनिवार्य सा था। आखिरकार एक रविवार यश चोपड़ा को श्रद्धांजलि देने के तौर पर हमने “जब तक है जान” के नाम कर दिया। और जैसा कि अंदाजा लगाया था कि शाहरुख़ का क्रेज तो अब रहा नहीं परन्तु फिल्म में खूबसूरत दृश्य तो कम से कम देखने को मिलेंगे ही, वैसा ही हुआ फिल्म मेरे अंदाजे पर पूरी तरह से खरी उतरी। आधी फिल्म में लन्दन और आधी में लेह लद्दाख व कश्मीर का सौंदर्य खुल कर दिखाया गया है। यश चोपड़ा की फिल्मों की खासियत के मुताबिक कोई टीम टाम नहीं। सहज , स्वाभाविक , प्राकृतिक सौन्दर्य।इसके अलावा फिल्म में यश चोपड़ा ब्रांड बहुत कम दिखाई दिया। 


“जबतक है जान” यश चोपड़ा के निर्देशन में, आदित्य चोपड़ा की कहानी और प्रोडक्शन और यश राज के बैनर तले बनी, एक त्रिकोण प्रेम पर आधारित रोमांटिक फिल्म है। कहानी के बारे में इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं बताऊंगी,वह आप लोग खुद देख कर जानिये।

एक बात जो सबसे अच्छी इस फिल्म में मुझे लगी, वह यह कि और फिल्मों में,जहाँ लन्दन के नाम पर हीथ्रो से निकल कर किसी बार का दरवाजा खुलता ही दिखाया जाता है, जहाँ कोई तथाकथित अल्ट्रा मॉडर्न लड़की हीरो का इंतज़ार करती पाई जाती है, इससे इतर एक सही रूप इस शहर का दर्शाया गया है। फिर वह बात चाहे चरित्रों के परिधानों की हो या लन्दन की सड़कों पर गिटार बजाते हीरो के पंजाबी गाने की।शहर का एक बेहद वास्तविक स्वरुप पेश किया गया है।पर हाँ इसके अलावा कहानी पूरी तरह से इल – लोजिकल लगती है और शाहरुख़ के चरित्र की अधिकाँश बातें हाजमोला खाकर भी पचने को तैयार नहीं होतीं। 

अदाकारी के लिहाज से भी शाहरुख़ ने अपने आप को सिर्फ दोहराया है, कैटरीना अपनी क्षमता से बेहद कमजोर लगीं पर इनसब से बाजी मार ले गई अनुष्का शर्मा। यहाँ तक कि मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि वह इस फिल्म की पैसा वसूल हैं। एक एक भाव जिस शिद्दत और फुर्ती से उनके चेहरे पर आता है कमाल कर जाता है, वह इस फिल्म का एक सबसे सशक्त पहलू हैं और यह फिल्म एक उनकी वजह से ही देखने लायक साबित हो जाती है। 

फिल्म का दूसरा मजबूत पक्ष इसका गीत संगीत है, रहमान के संगीत पर गुलज़ार के गीत सुनने में अच्छे लगते हैं।लन्दन में भारतीय गीतों का सीधा मतलब पंजाबी गीत हैं , फिल्म में पंजाबी गीतों का समावेश इस बात को जाहिर करता है और एक काल्पनिक कहानी को थोड़ा वास्तविक स्वरुप देने की कोशिश करता है।

फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष इसकी कहानी है और उसके बाद फिल्म का संपादन। खूबसूरत और विदेशी दृश्यों से भरी होने की बावजूद कई जगह पर फिल्म “अरे यार कब ख़त्म होगी ” कहने पर मजबूर कर देती है।

फिल्म में छोटी छोटी भूमिकाएं नीतू, ऋषि कपूर और अनुपम खेर की भी हैं। नीतू , ऋषि कपूर तो अब ऐसी छोटी “परफेक्ट, लविंग कपल” की भूमिकाओं के लिए प्रडिकटेबल हो चुके हैं परन्तु अनुपम खेर को पूरी तरह इस भूमिका में व्यर्थ किया गया है।

कहने का मतलब यह कि “जब तक है जान ” किसी भी नजरिये से कभी कभी, सिलसिला, लम्हे या दीवार के स्तर तक नहीं पहुँचती, फिर भी एक बार देखने लायक तो बनती है।