आह हा आज तो त्रिशूल दिख रही है. नंदा देवी और मैकतोली आदि की चोटियाँ तो अक्सर दिख जाया करती थीं हमारे घर की खिडकी से। परन्तु त्रिशूल की वो तीन नुकीली चोटियाँ तभी साफ़ दिखतीं थीं जब पड़ती थी उनपर तेज दिवाकर की किरणें.
एकदम किसी तराशे हुए हीरे की तरह लगता था हिमालय। सात रंगों की रोशनियाँ जगमगाया करती थीं. एक अजीब सा सुकून और गर्व का सा एहसास होता था उसे देख. कि यह धीर गंभीर, शांत, श्वेत ,पवित्र सा गिरिराज हमारा है, कोई बेहद अपना सा.
यूँ वो चीड़ के ऊँचे ऊँचे पेड़ भी कम लुभावने नहीं होते. सीधे, लंबे तने हुए वे वृक्ष जैसे संयम और संकल्प का पाठ पढाते हैं. बड़े बड़े आंधी तूफानों में भी सहजता और धीरता के साथ सीधे खड़े रहते हैं.अपनी प्रकृति के अनुरूप उनके फूल भी होते हैं. विभिन्न आकार के उन्हीं फूलों को ढूँढने हम घंटों उन चीड़ के जंगलों में घूमा करते थे, रोज रोज की इन बातों के बावजूद कि जंगल में बाघ है, चीड़ के आपस में रगड़ने से आग लग जाती है या जंगली चीड़ की नुकीली पत्तियाँ चुभ कर खरोंच बना देंगी पैरों में , हम दौड़ते भागते छोटे – छोटे उन पहाड़ों पर उछल कूद मचाते न जाने कितनी दूर निकल जाते फिर शाम ढलने पर होश आता तो इतनी दूर लौटने में नानी याद आ जाती परन्तु फिर भी यह क्रम रुका नहीं करता था. शायद चीड के उन फूलों को रंग कर, खूबसूरत सजावटी कोई वस्तु बनाने का उत्साह और खुशी, जंगल के उन सभी डर पर भारी पड़ा करता था.
फिर उन्हीं जंगलों में तो मिला करते थे किलमोड़े और जंगली बेर (हिसालू) भी, जिन्हें मन भर खाने के बाद अपनी छोटी छोटी जेबों में भर लाया करते थे , और घर में दोपहर को मम्मी की नज़रों से बच कर , घर के बाहर से ही एक अनगढ़ सा सिलबट्टा तलाश कर, उनकी खट्टी मिट्ठी चटनी बना करती थी.और फिर वहीँ पेड़ों से आडू और प्लम तोड़ कर या बड़े से पहाड़ी खीरे पर लगा कर चटखारे लेकर खाई जाती थी. जाने क्यों हम सब के घरवाले यह सब खाने को मना किया करते थे, हमारे स्कूल बंक करने के पेट दर्द के बहाने का कारण उन्हें हमेशा वे किलमोड़े ही लगा करते. पर राज की यह बात कोई नहीं जनता था कि उनसे कभी कोई परेशानी हमें नहीं हुई थी. सिवाय हाथ पैरों में लगी खरोंचों के, जिनके बारे में मम्मी को शायद आज तक पता नहीं.
खीरा , हिसालू, किलमोड़ा
यूँ मम्मी को यह समझाने में भी खासा वक्त लगा था. कि इस भांग में नशा नहीं होता, जिसके बीजों को नमक, हरी मिर्ची के साथ पीस कर हम मसाला बनाया करते थे और फिर उसके साथ उन बड़े बड़े नीबू की चाट, फिर नीबू में दही भी डालना मम्मी के हाजमे से बाहर की बात थी. वो तो भला हो पापा का जिन्होंने मम्मी को स्थानीय व्यंजनों पर व्याख्यान देकर समझा दिया था, हालाँकि पूरी तरह से वो आश्वस्त नहीं हो पाईं कभी.और इसीलिए वर्षों उस इलाके में रहने के वावजूद कभी चखी तक नहीं यह बेमेल चाट उन्होंने.
उन सीढ़ीदार खेतों में ही पत्थर से गाड़ा खोद कर स्टापू बनाना दुनिया का सबसे मुश्किल और महत्वपूर्ण काम हुआ करता था. अत: बारिश का होना और फिर थोड़ी देर में बंद हो जाना हमारे लिए बेहद आवश्यक था, जिससे जमीन थोड़ी मुलायम हो जाए और हम उसपर इक्का दुक्का (स्टापू ) काढ सकें. वर्ना सूखी मिट्टी में घेरा बनाकर सिर्फ गिट्टू ही खेले जा सकते थे.
वैसे वो सूखे खेत धूप में चादर बिछाकर बैठने के काम भी आते थे और ऐसे ही एक शुभ दिन हम दोनों बहने वहीँ एक पड़ोसन से, सुई से ही कान छिदवा कर आ गईं थीं. सोचा था अपनी इस बहादुरी के लिए तमगा न सही एक शाबाशी तो मिलेगी ही, परन्तु जो इन्फेक्शन पर लेक्चर मिला वो आज तक याद है.
मकानों के बीच सीढ़ीदार खेत (पिथौरागढ़)
ये लो हिमालय से खेतों तक पहुँच गए हम यूँ ही बात करते करते ….. आज किसी ने हिमालय के कुछ चित्र भेजे मेल में, तो रानीखेत, पिथौरागढ़ में बिताए बचपन की यादों का यह पिटारा खुल पड़ा.
काश लौट आता फिर से वो बचपन.
अच्छा लगा कि आप पहाड़ी संस्कृति, खानपान से भलीभांति परिचित हैं। चीड़ पेड़ों के बीच टहलना, उनके छयूंतों को रंग-बिरंगा कर के घर में सजाना, हिंस्वला, किन्ग्वड़ा, लिंबा, ककड़ी के बारे में आपकी पहाड़ी जानकारी देख कर दंग रहने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकता मैं। बहुत ही अच्छी प्रस्तुति। त्रिशूल समरुप पहाड़ आपने देखा तो समझो आप ने सब कुछ देख लिया जीवन में।
यादों का पिटारा जाने कितना कुछ समेटे होता है | सुंदर चित्र और बचपन की प्यारी सुखद स्मृतियाँ
यादें कभी साथ नहीं छोडतीं।
सुन्दर यादें…..
बैकवर्ड जर्नी अच्छी लगती है न?? हमेशा !!!
अनु
लेखनी में पहाड़ी जलप्रपात की मस्ती और नदियों का प्रवाह , लगता है बहुत शिद्दत से याद आई . पहाड़ो के कठिन जीवन से इतर बचपन में बिताये सुनहरे दिनों की अद्भुत झांकी पेश की है आपने . सूर्य की रौशनी में चमकते हिमाद्री शिखर , आहा , अद्भुत प्राकृतिक दृश्य. कई सरे पहाड़ी फलों का नाम मैंने पहली बार ही सुना. रोचक और जानकारी भरा आलेख .
खूबसूरत सहजी हुई यादें जब मन के पिटारे से बाहर आती है तो अच्छी लगती है
बहुत खूब
बहुत सुन्दर प्रस्तुति…!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (10-05-2013) के "मेरी विवशता" (चर्चा मंच-1240) पर भी होगी!
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर …. यादों का सफ़र मुबारक हो |
सुंदर यादें बचपन की ..
लौट नहीं सकते ये बीते दिन !!
बचपन किसे नहीं अच्छा लगता…
शुभकामनायें आपको !
हिमालय में पहुँचा दिया आपने तो। श्रीमती जी को वहाँ के खीरे और हिसालू बहुत पसन्द हैं, आज भी याद करती हैं। कभी-कभी हिमालय में बर्फ़ की अद्भुत् आकृतियाँ देखने को मिल जाया करती हैं।
भागीरथी के निर्मल जल की तरह निर्मल लेखनी ने इस संस्मरण को और भी निर्मल बना दिया है।
वाह …. कितनी मधुर यादें ….. पढ़ते पढ़ते जैसे बचपन ही लौट आया हो ….
बचपन की पहाड़ी यादें — मानो सोने पर सुहागा।
सुन्दर संस्मरण चीड के सूखे फूल बड़े अछे लगे ये बडे बडे नीम्बू कश्मीर से कन्याकुमारी तक पाए जाते हैं इनका अचार बढ़िया लगता है.
वो भी जमाने थे … 🙂
रोचक और खूबसूरत.
घर के बाहर से ही एक अनगढ़ सा सिलबट्टा तलाश कर, उनकी खट्टी मिट्ठी चटनी बना करती थी.और फिर वहीँ पेड़ों से आडू और प्लम तोड़ कर या बड़े से पहाड़ी खीरे पर लगा कर चटखारे लेकर खाई जाती थी.
बचपन तो बस बचपन होता है. इसीलिये मन के कोनों में गाहे बगाहे जीवंत हो उठता है.
आपकी चटनी वाले किस्से से तो मुंह में पानी आरहा है.:)
रामराम
ब्लॉग बुलेटिन की ५०० वीं पोस्ट ब्लॉग बुलेटिन की ५०० वीं पोस्ट पर नंगे पाँव मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
बहुत ही खूबसूरत यादें हिमालय जैसी ही ।
स्मृतियों के वातायन में ले आयीं आप
यादों का पिटारा और पहाड़ खुबसूरत
पहाड़ की खूबसूरत स्मृतियाँ , फलों के नाम , चाट बनाने की विधि नई और रोचक है हमारे लिए ! बहुत खूबसूरत था आपका बचपन !
बहुत सुन्दर वर्णन और खूबसूरत चित्र
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन …।
चीड़ के पेड़ो से भरा जंगल ऐसा लगता है जैसे खम्भों पर खड़ा मंदिर। मनोरम।
बचपन की यादें कभी साथ नहीं छोड़तीं…बहुत रोचक वर्णन, एक दूसरे संसार में ही ले गया…
प्रकृति, विशेषतः हिमालय-पर्वतीय अंचल, के रँग, सुरभि, वनस्पति-वैविध्य से अन्तरंग परिचय कराता, लालित्यपूर्ण शब्दयोजना लिए, अति सुन्दर संस्मरण !
कभी कभी इस पिटारे को खोलना बहुत ज़रूरी होता है …
उस उमंग को महसूस करना … दिल को सकून देता है …
वाह शिखा ….हर एक का बचपन एक धरोहर है ..और उससे जुड़ी यादें ….बेसाख्ता मुस्कुराने की वजह …बहुत मज़ा आया तुम्हारे संस्मरण पढ़कर
लेकिन अफसोस ये है की ये हरे भरे जंगल दिन ब दिन सिकुड़ते जा रहे हैं।
बहुत रोचक वर्णन.
आपने तो हिमालय की छाया में पहुँचा दिया -कितना भी दूर जा बसे कोई उस देवतात्मा की पुकार बार-बार सुनाई दे जाती है !
वाह क्या बात है? सभी के बचपन में ऐसी यादे हैं, बस उन्हें पिटारे से निकालकर गुदगुदाने की देर है, बहुत अच्छा लगता है, उन पुरानी यादों के साथ जीना। देर से पढ़ पा रही हूं आपकी पोस्ट को, कारण बाहर गयी हुई थी।
लेख में क्या सुन्दर शब्द चित्र प्रस्तुत किये हैं? एक के बाद एक आँखों के सामने आ जाता है।
अतिसुन्दर॥
कभी मेरे ब्लोग unwarat.com पर आइये तथा मेरे दो नये लेख जरूर देखियेगा–
लन्दन का मौसम और वहाँ के लोग,प्यार एक दूसए के लिये।
पढ़ने के बाद अपने विचार अवश्य व्यक्त कीजियेगा–
विन्नी,
वाह बचपन की मन भावन शरारतों की यादें
बढिया.
प्यारी-प्यारी ढेर सारी बातों से सजी खूब प्यारी पोस्ट।
हम दो दोस्त नैनिताल से होकर शीतला खेत गये थे, आज से लगभग 10 वर्ष पहले। चीड़ के जंगल से होते हुए दुर्गा मंदिर की ओर चढ़ रहे थे। हाथ में कैमरा नहीं था, मोबाइल भी नहीं। वहाँ दूर बड़े भयंकर शेर जैसे कुत्ते दिखलाई दिये। मेरे दोस्त को शैतानी सूझी, उसने कुत्तों को चिढ़ा दिया और कुछ आवाजें निकालीं। हम आगे बढ़े तो देखते क्या हैं कि वो कुत्ता पहाड़ी में लुढ़कता सा भागा चला आ रहा है! पहले तो हम नहीं समझे फिर समझ में आया कि वो हमारी ओर ही आ रहा है!!! मारे डर के हालत खराब। पास ही एक झोपड़ी थी। उसने और भी डरा दिया…तुम लोगों ने कुत्ते को क्यों चिढ़ा दिया? अब भुगतो! आ रहा है वो काटने! हम और भी डर गये। फिर उसी ने हमे कुत्तों से बचाया।
आपकी इस पोस्ट को पढ़कर वो सीन याद आ गया।
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