तुम्हारे उठने और
मेरे गिरने के बीच
बहुत कम फासला था.
बहुत छोटी सी थी ये जमीं
या तो तुम उठ सकते थे
या मै ही,
मैंने
उठने दिया दिया था तुम्हे
अपने कंधो का सहारा देकर
उसमे झुक गए मेरे कंधे
आहत हुआ अंतर्मन
पर ह्रदय प्रफुल्लित था
आत्मा की आवाज़ सुनकर.
पर आज
सबकुछ नागवार सा है,
भूल गए हो तुम
अपनी ज़मीन,
मिल जो गया है तुम्हें आसमान
इन कन्धों की अब नहीं जरुरत,
बढ़ जो गया है वजूद तुम्हारा.
पर याद रखना मेरे हमदम
जिस दिन
जिन्दगी की सांझ आएगी न
यही जमीन पास होगी
इन्हीं कंधो पर तेरा हाथ होगा.
और तब होउंगी मैं
बस मैं तेरे पास ,तेरे साथ
तब शायद होगा तुझे
अहसास मेरे जज्बों का..
bahut acchi rachna hai ji ….
aapke andar kavi ki aatma tript hoti he
mere blog par padharkar seva kaavsar de
ह्म्म्म..सोच में डाल दिया इस कविता ने तो….क्या अक्सर ऐसा नहीं होता….आसमां तक उठकर जमीन की याद रहती है,किसीको…और सहारा देकर वहाँ तक पहुंचाने वाले हाथों की…और जब अहसास होता है जज्बों का तब तक कितनी देर हो जाती है….सच से रूबरू करवाती….सुन्दर रचना
bahut sunder bhaav…
जिस दिन जिन्दगी की
सांझ आएगी न
यही जमीन पास होगी
इन्हीं कंधो पर
तेरा हाथ होगा…
bahut khoob…badhaayee
"जिस दिन जिन्दगी की
सांझ आएगी न
यही जमीन पास होगी
इन्हीं कंधो पर
तेरा हाथ होगा.
और तब
होउंगी मैं बस मैं
तेरे पास ,तेरे साथ
तब शायद होगा तुझे
अहसास मेरे जज्बों का.."
बहुत सुंदर भाव और तस्वीर तो सोने पर सुहागा – बधाई
होउंगी मैं बस मैं
तेरे पास ,तेरे साथ
तब शायद होगा तुझे
अहसास मेरे जज्बों का..
बहुत भावपूर्ण रचना है….अक्सर लोग उस सीढ़ी को हटा देते हैं जिस पर सफलता पाने के लिए पहला कदम रखा होता है…इस व्यथा को सुन्दर शब्द दिए हैं….
तुम्हारे उठने और
मेरे गिरने के बीच
बहुत कम फासला था.
nice
बड़ा 'बैलेंस' है कविता में .. आभार ,,,
गिरने-उठने में रिश्ता बन गया,
हमें वो छोड़ गया हो चाहे……
पर अहसासों की इस कदर उधारी हो गई…
कि जिन्दगी की साँझ में मिलन की ख्वाइश दे गया.
शिखा जी आदाब
…..मैंने उठने दिया दिया था तुम्हे
अपने कंधो का सहारा देकर
उसमे झुक गए मेरे कंधे….भूल गए हो तुम अपनी ज़मीन,
..और तब….होउंगी मैं बस मैं
तेरे पास ,तेरे साथ
तब शायद होगा तुझे
अहसास मेरे जज्बों का..
दिल की गहराईयों से निकले हुए जज्बात..
वैसे आपकी रचना के भावों को ये शेर भी बयान कर रहा है शायद-
देखना है क्या करेगा जाके अब साहिल पे वो
डूबता जाता हूं मैं जिसको बचाने के लिये….
अच्छी व भावपूर्ण रचना बन पड़ी है ।
इस मतलब परस्त दुनिया का चेहरा बखूबी दिखाया आपने… सकूं मिला दिल को एक हमख्याल कवि देख कर… picture bhi sundar hai…
जय हिंद…
ह्म्म! सोचना पड़ा..बहुत उम्दा रचना!! वाह! बधाई!
किसी शायर ने क्या खूब लिखा है —
चाहो जिसे, मुक्त कर दो उसे,
प्यार को तोलने का तराजु यही है।
मोहब्बत का मारा चला आएगा,
ना आये तो समझो तुम्हारा नहीं है।
बहुत उम्दा रचना!!वाह!बधाई!
bahut khoob lajawab…….payar to sirf dena janta hai
सुन्दर भाव!
बधाई!
बहुत सटीक और सुंदर रचना. शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत ही अच्छा लिखा है …….. सच है जिंदगी की शाम में इंसान अपनी ज़मीन ढूंढता है ….. पुराने साथी, पुराने लम्हे ही साथ देते हैं ………
bahut bhaavpoorn rachna likh dalee aaj…shikha badhaai…
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
गैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना…
-अटल बिहारी वाजपेयी
जय हिंद…
उठने दो अभी…
आसमान बहुत देर तक नहीं रहने देता किसी को भी अपने पास…
ज़मीन ही सच है..
बहुत खूबसूरत कविता…
एक खूबसूरत भावनात्मक अभिव्यक्ति….बढ़िया रचना…धन्यवाद
सच कहा आपने….बहुत सुन्दर….
बधाई
शिखा जी…..
आपके ब्लोग पर आना अच्छा लगा…..
नारी का समर्पण भाव दर्शाती हुई पंक्तिया.. ठीक ऐसा ही चरित्र फिल्म इश्किया की कृष्णा में मिलता है.. और वजह पूछने पर जो कहती है 'इश्क में सब बेवजह होता है..'
आखिर किस मिट्टी से बनाता है खुदा इनको..? बहुत खूब !
एहसास मेरे जज्बों का भुला दिया उसने आसमान तक जा कर ..मगर किसी दिन कटी पतंग सा आया जो वो कही..थाम लेंगे निगाहे..टकटकी लगाये हैं जो…
सुन्दर कविता..ऐसा सम्पर्पण नारी ही कर सकती है .
सुन्दर कविता ….!!
HELLO
दिन भर उड़ान भटकन के बाद
तुलसी के चौरे दिए के पास
.. आना ही होता है
रहना ही होता है।
Hi..
Sabne khub saraha tujhko,
jab aayi, meri bari..
Ek shabd bhi, kah na paaya..
Bojh aatma par bhari..
Tere prem aur tyaag, tapasya, ka na ko koi asar hoga,
Nishachhal prem na jana jisne, wo sach main pathar hoga..
Par ye sach hai, ek din wo bhi, laut ke vapas aayega.. Jeevan ki sandhya main Deepak,
tere sang jalayega..
DEEPAK..
कुछ ऐसा ही मेरी एक (प्रेमिका) मुझसे कहा करती थी…. इसे पढ़ कर उसकी याद गई…. मगर मैं अपनी सुन्दरता के घमंड में चकनाचूर था…
कुछ चीज़ें दिल में उतर जाती हैं…. बहुत अच्छी जज़्बाती कविता…
नोट: लखनऊ से बाहर होने की वजह से …. काफी दिनों तक नहीं आ पाया ….माफ़ी चाहता हूँ….
शिखा जी बहुत मार्मिक रचना. बधाई.
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