मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. और आपस में मिलजुल कर उत्सव मनाना उसकी जिंदगी का एक अहम् हिस्सा है। जब से मानवीय सभ्यता ने जन्म लिया उसने मौसम और आसपास के परिवेश के अनुसार अलग अलग उत्सवों की नींव डाली, और उन्हें आनंददायी बनाने के लिए तथा एक दूसरे से जोड़ने के लिए अनेकों रीति रिवाज़ों को बनाया। परिणामस्वरूप स्थान व स्थानीय सुविधाओं को देखते हुए आपस में मिलजुल कर आनंद लेने का बहाना ये आयोजन और उत्सव बनते चले गए।
फिर मानव जैसे जैसे सभ्यता और तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता गया उसकी महत्वाकांक्षाओं ने सरहदें बढ़ा दीं, भेदभाव बढ़ा, आपसी स्वार्थ बढ़ा, परन्तु उसकी स्वभावगत सामाजिकता और उत्सव धर्मिता पर कोई आंच नहीं आई. आज भी अपनी रोजमर्रा की आपाधापी और रोटी – पानी के इंतज़ाम के बाद उसे वक़्त वक़्त पर अपनी ऊर्जा एकत्रित करने के लिए कोई न कोई उत्सव या आयोजन की आवश्यकता होती है और इसीलिए हर देश में, हर समुदाय में, साल में कुछ महीनों के बाद कोई न कोई उत्सव का आयोजन किया ही जाता है.

हालाँकि भौगोलिक विभिन्नताएं होने के कारण हर देश- प्रदेश की जीवन शैली और खानपान भिन्न हुआ करते हैं. फिर भी अगर देखा जाए तो लगभग प्रत्येक देश में एक ही समय पर, एक दूसरे से मिलता जुलता कोई न कोई त्यौहार या उत्सव मनाने की परंपरा है. जहां भारत में साल का सबसे बड़ा त्यौहार दीवाली इस दौरान मनाया जाता है वहीं पश्चिमी देशों में थैंक गिविंग और क्रिसमस मनाया जाता है. यहूदी त्यौहार हनुकाह, जापान में साप्पोरो हिम महोत्सव, और न्यू ऑरलियन्स में मार्डी ग्रास भी सर्दियों के उत्सव हैं और लगभग इसी दौरान मनाये जाते हैं.

बेशक अलग अलग परिवेश में इंसान की त्वचा का रंग, भाषा और पारिधान अलग हों परन्तु शारीरिक संरचना एक प्रकार ही होती है. वही एक दिल , एक दिमाग, दो आँखें, एक मुँह आदि अत: अनेक विभिन्नताएं होने के वावजूद संसार में सभी मनुष्यों की गतिविधियों में एक समानता ही पाई जाती है. उनके उत्सव के नाम बेशक अलग हों, परन्तु उन्हें मनाने का उद्देश्य और तरीका लगभग समान ही पाया जाता है।
और यही कारण है कि संसार में अलग- अलग जगह और परिवेश में होने वाले उत्सव और मेलों का स्वरुप थोड़ा भिन्न अवश्य होता है परन्तु उनके मूल में बेहद समानता होती है.
शायद यही वजह है कि लंदन में आजकल हाइड पार्क में लगा विंटर वंडरलैंड ( शिशिर मेला ) मुझे भारत की नौचंदी मेला या नुमाइश की याद दिलाता है.
नवम्बर के जाते जाते लंदन पूरी तरह उत्सवमयी हो जाता है. मौसम की ठिरन पर, क्रिसमस के जोश की गरमी भारी पड़ने लगती है. घरों से लेकर सडकों तक और दुकानो से लेकर बागों , बाजारों तक सभी कुछ त्यौहारमयी हो जाता है. जगह जगह सजे हुए क्रिसमस ट्री के आसपास अपना उपहारों से भरा झोला उठाये और मोटी तोंद लिए घूमते सैंटा क्लोज यूँ तो हर जगह ही मेला सा लगाए रखते हैं. परन्तु कुछ हफ़्तों के लिए आयोजित यह मेले नुमा विंटर वंडरलैंड इस माहौल को एक अलग की स्तर, आकर्षण और उम्माद प्रदान करता है.
साल में एक बार सर्दियों में लगने वाला यह मेला देखा जाए तो भारत के किसी भी बड़े मेले जैसा ही प्रतीत होता है. हाँ फर्क है तो बस इतना कि बच्चों के लिए छोटे छोटे झूलों की जगह बड़ी बड़ी राइड्स हैं. खाने पीने के लिए भेलपूरी, सोफ्टी और हलवा परांठा की जगह हॉट डॉग, आलू के चिप्स और बीयर है. और नौटंकी की जगह कुछ ओपन लाइव स्टेज शो हैं. जहाँ हो हल्ला भी नौटंकी में होने वाले हो हल्ले जैसा ही होता है.
वही बच्चों की छुक छुक रेलगाड़ी है. हाँ उसे चलाने वाला जरूर सैंटा है. वही जादुई शीशों वाला घर है जहां अपनी मोटी, पतली टेडी आकृतियां दिखलाई पड़ती हैं. और ठण्ड में चुगने के लिए गरम बालू में भुनती मूंगफली की बजाय उसी बालू में भुनते चेस्टनट्स हैं.
यानि कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य कहीं भी रहे किसी भी जाति ,समुदाय या देश से ताल्लुक रखता हो, उसका रस लेने का, प्रसन्न होने का स्वभाव एक ही है व आनंद मनाने के तरीके भी लगभग समान ही हैं. और इसी का उदाहरण है सर्दियों में क्रिसमस महोत्सव के आनंद को बढ़ाने के लिए लंदन में छह: हफ़्तों में लिए लगने वाला यह मेला “विंटर वंडरलैंड” जिसमें हर आयु वर्ग और हर रूचि के लोगों के लिए कुछ न कुछ अवश्य है. और सबसे बड़ी बात – आज के दौर में जहाँ पानी भी पैसे से खरीदा जाता है वहाँ इसमें प्रवेश पूरी तरह मुफ्त है.

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अपने बारे में कुछ कहना कुछ लोगों के लिए बहुत आसान होता है, तो कुछ के लिए बहुत ही मुश्किल और मेरे जैसों के लिए तो नामुमकिन फिर भी अब यहाँ कुछ न कुछ तो लिखना ही पड़ेगा न. तो सुनिए. मैं एक जर्नलिस्ट हूँ मास्को स्टेट यूनिवर्सिटी से गोल्ड मैडल के साथ टीवी जर्नलिज्म में मास्टर्स करने के बाद कुछ समय एक टीवी चैनल में न्यूज़ प्रोड्यूसर के तौर पर काम किया, हिंदी भाषा के साथ ही अंग्रेज़ी,और रूसी भाषा पर भी समान अधिकार है परन्तु खास लगाव अपनी मातृभाषा से ही है.अब लन्दन में निवास है और लिखने का जुनून है.
नौचंदी के मेले की खूब याद दिलाई ….. बचपन में हर साल देखते थे । हॉस्टल से भी जाते थे । क्या दिन थे वो । आप तो क्रिसमस मनाइए और जीवन में उत्साह भरिये । हर त्यौहार उर्जा देते है ।
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सच…..मेला तो मेला है….
बड़ा भाता है हमें……यहाँ लगने वाले हर छोटे बड़े मेले देख आते हैं…यानी प्रदर्शनी भी…..
बहुत डिटेल्ड जानकारी के साथ रंगबिरंगा आलेख है….
बढ़िया!!!
अनु
रोज कि बोरिंग हो चुकी जिंदगी में उत्साह लाते है ये मेले त्यौहार , हमारे बनारस में तो नक्कटैया का मेला होता था , दूर गांव गांव से लोग आते थे , दीवाली के पहले रामलीला में सुपर्णखा की जिस दिन नाक कटती थी उस दिन , बहुत कुछ वहा के कार्निवल जैसा ही होता था बस विषय धार्मिक होता था जुलुस का बड़े बड़े लग विमान रस्ते में मौखुटे लगा कर तलवार चलती दुर्गा और काली ।
badhiya rangarang aalekh
कहा ही गया है उत्सव प्रिया मानवाः
आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार १७/१२/१३को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहाँ हार्दिक स्वागत है —यहाँ भी आयें –वार्षिक रिपोर्ट (लघु कथा )
Rajesh Kumari at HINDI KAVITAYEN ,AAPKE VICHAAR –
मेले तो मेले होते हैं, आनन्द बहुत आता है।
हाँ इस साल तो नहीं, पिछली साल गए थे हम भी इस मेले में, मौसम का मज़ा लेते हुए इन मेलों में घूमने का मज़ा ही कुछ और हैं।
उत्सवधर्मिता तो हमारी संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है , इस विलायती मेले के बहाने आपने मनुष्य के इस पक्ष सशक्त ढंग से उजागर किया है.
अभी भी मन करता है दुनियादारी से अंगुली छुड़ा कर संसार के मेले में अकेले कहीं खो जाऊँ ।
खूब याद दिलाई मेलों की। कितने थोड़े से पैसे और कितना अधिक उत्साह होता था। मेले तो अब भी होते हैं मगर अब भीड़भाड़ में कोई फंसना नहीं चाहता !
सही हैख् मन की मौज को कोई नहीं रोक सकता। गरीबी में भी यह आती है और अमीरी में भी।
मेलों के लिए लगता है सर्दी का मौसम ही अधिकतर देशों में चुना जाता है … हमारे दुबई में भी ऐसे आयोजन शुरू होने लगते हैं दिसंबर/जनवरी में … हां देश, काल समय अनुसार इन मेलों का चेहरा बदल रहा है अब …
सुक्ष्म विश्लेषण
मेले के बहाने दीन-दुनिया के सभी मानवों का अच्छा मनोविश्लेषण किया है। कि उत्सवी महत्वाकांक्षा तो सभी की रहती है।
मेले दरसल संस्कृति की झलक प्रस्तुत करते हैं!! और समाज को जोडती है सो अलग!!
सच है… "मनुष्य कहीं भी रहे किसी भी जाति ,समुदाय या देश से ताल्लुक रखता हो, उसका रस लेने का, प्रसन्न होने का स्वभाव एक ही है व आनंद मनाने के तरीके भी लगभग समान ही हैं."
लगे रहे मेले… कहीं भी हो हम कभी न हों अकेले!
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शिखा जी, जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं!
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आदरणीया शिखा वार्ष्णेय जी
नमस्कार !
आपके जन्मदिवस के मंगलमय अवसर पर
♥ हार्दिक बधाई ! ♥
♥ शुभकामनाएं ! मंगलकामनाएं ! ♥
-राजेन्द्र स्वर्णकार
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सुन्दर लेख
ap ne b huta achaa likha hai.
Vinnie
बहुत बढ़िया प्रस्तुति…आप को मेरी ओर से नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं…
नयी पोस्ट@एक प्यार भरा नग़मा:-तुमसे कोई गिला नहीं है
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