
आज हिंदी दिवस है.और हर जगह हिंदी की ही बातें हो रही हैं .मैं आमतौर पर इस तरह के दिवस या आयोजनों पर लिखने से बचती हूँ पर आज कुछ कहे बिना रहा नहीं जा रहा.आमतौर पर हिंदी भाषा के लिए जितने भी आयोजन होते हैं उनमें हिंदी को मृत तुल्य मान कर शोक ही मनाते देखा है.एक हँसती खेलती भाषा को लाचार, अधमरी और मृतप्राय बनाकर कटघरे में ला खड़ा कर दिया जाता है और दोनों तरफ हिंदी के रखवाले वकील बन खड़े हो जाते हैं बहस करने. बहस दर बहस होती है. हिंदी के स्वरुप को लेकर, इसमें प्रयुक्त शब्दों को लेकर. मेज ठोक ठोक कर कहा जाता है कि हिंदी के शब्दों को क्यों सहज किया जाना चाहिए? क्यों उसमें किसी भी और भाषा के शब्दों को शामिल किया जाना चाहिए. तर्क दिया जाता है कि अंग्रेजी भाषा के लिए तो उसे सहज करने की बात नहीं करते हम. और इन सबके बीच भाषा हंसती हुई सोचती है. वाह रे मेरे पालनहारो! तुमने मुझे समझा ही नहीं. बस लकीर के फ़कीर बने एक लकीर को पिटे जा रहे हो. भाषा का उत्थान उसे एक सिमित दायरे में सिकोड़कर रखने में नहीं बल्कि उसे सम्रद्ध करने में है. अंग्रेजी का तर्क देने वाले क्या यह नहीं जानते कि जो अंग्रेजी आज प्रचलन में है वह किन किन रास्तों से गुजर कर आई है ? उसके शुभचिंतकों ने तो उसे समय के साथ बदलने में या उसमें दूसरी भाषाओँ के शब्द समाहित करने में कोई गुरेज नहीं की.
दूसरी भाषा के शब्द शामिल करने से भाषा रूकती नहीं है बल्कि ज्यादा तेज़ी से चलती है. औरों की बात मैं नहीं जानती. अपनी कहती हूँ. मैं तीन अंतर्राष्ट्रीय भाषाएँ जानती हूँ और कई बार अपने किसी भाव को व्यक्त करने के लिए एकदम उपयुक्त कोई शब्द मुझे एक भाषा में नहीं बल्कि दूसरी भाषा में मिल जाता है. कभी कभी किसी भाव को व्यक्त करने के लिए कोई शब्द मुझे तीनो में से किसी भी भाषा में नहीं मिलता फिर मुझे लगता है काश कुछ और भाषाएँ भी मुझे आती होतीं तो इस भाव को एकदम सटीक शब्द मिल जाता शायद.
शेक्सपियर का साहित्य इंग्लैंड में आज भी स्कूलों में उसी भाषा में पढाया जाता है जिस में वह लिखा गया.पर आम बोलचाल में उस भाषा को उपयोग नहीं किया जाता और ना ही भाषा की शुद्धता के नाम पर ऐसा करने की जिद की जाती है.तो क्या इससे उनकी भाषा अशुद्ध हो गई? या उसके विकास में कोई बाधा आई? आज भी अग्रेजी भाषा को जानने वाला, पढने वाला एक तबका एक अलग ही अंग्रेजी भाषा का (क्लिष्ट ) उपयोग करता है और उसमें रूचि रखने वाले हम आप जैसे कई लोग उन शब्दों को समझने के लिए शब्दकोष खोलते हैं. धीरे धीरे वही शब्द हमारी भाषा में समाहित से हो जाते हैं और हमें किलिष्ट नहीं लगते.पर आम लोगों को ऐसा ना करने पर दुत्कारा नहीं जाता. साहित्य की और आम बोलचाल की भाषा हर देश स्थान में अलग होती है और शायद यही अंग्रेजी की उन्नति का राज़ है .
देखा जाये तो हमारी हिंदी में भी ऐसा होता है. हिंदी साहित्य या शिक्षण से जुड़े लोग एक अलग हिंदी का प्रयोग करते हैं और उनमे रूचि रखने वाले या उनके संपर्क में आने वालों को उन शब्दों को सीखने या समझने में कोई गुरेज नहीं होता.तो क्या बेहतर यही नहीं कि उन्हें अपना काम करने दिया जाये और आम लोगों को सीधे भाषा की क्लिष्टता पर भाषण देने की बजाय उसके सहज रूप में रूचि जगाई जाये जिससे वह उस भाषा के साहित्य को पढने में रूचि ले. जब वह ऐसा करेगा तो उन शब्दों को भी समझना चाहेगा, जब वह उन्हें जानेगा तो सहज ही वह शब्द उसकी अपनी भाषा में जायेंगे और धीरे धीरे जुबान पर आते वक़्त वह शब्द किलिष्ट नहीं लगेंगे. परन्तु उसके लिए पहले जन साधारण की रुचियों से और उनकी क्षमताओं से भाषा को जोड़ना बहुत जरुरी है.
मुझे याद आ रहे हैं, हाल ही में हिंदी सम्मलेन में एक युवा वक्ता गगन शर्मा के कहे शब्द.कि “हम अपनी भाषा और शिक्षा के लिए आज लार्ड मेकाले को जमकर गालियाँ देते हैं परन्तु उसके जाने के बाद स्वतंत्र हुए हमें ६५ साल हो गए. फिर हमें कौन मजबूर कर रहा है कि हम उसी व्यवस्था को ढोए जाएँ? हमने परमाणु बम बना लिया पर एक मेकाले नहीं बना पाए. हम अपने ज्ञानी ध्यानी होने का अपनी भाषा के सम्रद्ध होने का दम भरते हैं तो क्या हममे क्षमता नहीं कि हममे से कोई एक हमारा अपना नया मेकाले पैदा हो सके”.
आज जरुरत इसी सोच की है. जो हो गया उसे रोते रहने की बजाय जो हो रहा है उसे सकारात्मक रूप से देखने की है.या फिर एक गीत की यह पंक्तियाँ हमारे चरित्र पर सही बैठती हैं.?
ये ना होता तो कोई दूसरा गम होना था.
हम तो वे हैं जिन्हें हर हाल में बस रोना था.
दुष्यंत कुमार की एक ग़ज़ल की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं जो किसी भी परिस्थिति के लिए उपयुक्त हैं –
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
जहां एक ओर कई लोग पश्चि मी संस्कृति के प्रभाववश अंग्रेजी का गुणगान करते रहते हैं वहीं सारे संसार में कई ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने भारत के न होते हुए भी हिन्दी प्रचार प्रसार में अहम योगदान दिया है। अपने जीवन के किसी मोड़ पर उनका हिन्दी से परिचय हुआ और वे रंग गए हिंदी के रंग में और कर गए कुछ खास हिंदी भाषा के लिए। बेल्जियम के वेस्टफ्लैडर्स प्रांत में 1909 में जन्मे बुल्के को उनके परिवार वाले तो इंजीनियर बनाना चाहते थे लेकिन रोम के ग्रिगोरियन विश्वेविद्यालय से दर्शनशास्त्र से स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल करते वक्त उनका परिचय भारतीय दर्शन से भी हुआ। बस वे 1935 में भारत चले आए और तुलसी साहित्य पढ़ने के लिए हिंदी सीखने लगे और हिंदी सीखने के क्रम में संस्कृत भी सीख लिए। 1945 में उन्होंने कलकत्ता विश्वसविद्यालय से संस्कृत की डिग्री भी प्राप्त किया। बाद में रामकथा पर शोधकार्य पूरा किया और रामकथा – उत्पत्ति और विकास नमक ग्रंथ भी लिखा। रांची के सेंट जेवियर्स महाविद्यालय में हिंदी पढ़ाते रहें। भारत का हर हिंदी भाषा से प्रेम रखनेवाला उनकी अंग्रजी हिंदी शब्दकोश से ज़रूर परिचित होगा। बाइबिल का नीलपक्षी नाम से हिंदी में अनुवाद किया।
हिंदी के समक्ष मुख्यत: दो चुनौतियां हैं – पहली भूमंडलीकरण के विरुद्ध सार्थक प्रतिरोध दर्ज करने की और दूसरी नवसाक्षरों में उभरी चेतना के उबाल को किन्हीं बड़े मूल्यों से जोड़ने की।
हिंदी तो दो पाटों को जोड़ता पुल है। इसी कारण से इसे उस भाषा की अनुगामिनी बनने की नियति प्रदान की गई जिसके खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में हिंदी तन कर खड़ी हुई थी।
शायद इस देश का मैकाले हो ही ना।
लेखिका को बधाई परंपरा से उलट सकारात्मक भाव लेकर हिन्दी विमर्श करने के लिए.बिलकुल हिन्दी को लेकर किसी को मर्सिया पढ़ने की ज़रूरत नहीं है न ही कोई दैन्य भाव रखने की. वास्तव में हिन्दी आज तेज़ी से बढ़ती बलखाती अपनी चाल में बदस्तूर चल रही है. लेकिन हमें किसी मैकाले की ज़रूरत न कल थी और न आज ही है. मैकाले कभी हमारा आदर्श इसलिए नहीं हो सकता क्यूंकि एक विद्वान होते हुए भी उसका सारा ध्यान अंग्रेज़ी के माध्यम से देशों को गुलाम बनाने तक ही सीमित था, जबकि हमारे यहां विद्या का मतलब ही है ‘सा विद्या या विमुक्तये’यानी विद्या वो है जो आपको मुक्त कर सके न कि गुलाम. तो भाषा के बारे में भी यही बात है कि वह हमारे लिए कभी साम्राज्य बनाने-बढाने या कायम रखने का माध्यम नहीं है. भाषा वो है जो कबीर जैसे नश्तर की तरह भी चुभे तो भी उसमें अपनी भलाई दिखे. तुलसी की तरह क्लिष्ट भाषाओं के बंधन को तोड़कर भी सहज-सरल एवं प्रवाहमय तरीके से जन-जन तक पहुचे. सूर की तरह करोड़ों लोगों को एक दृष्टि देने वाला हो.
तो हमारी कमी ये नहीं है कि हम मैकाले क्यूं नहीं पैदा कर पाए. कमी है तो बस ये कि कबीर, सुर, तुलसी आदि का आधुनिक संस्करण हमें नहीं मिल पाया. दो सौ वर्षों की गुलामी ने हममें शासकों की भाषा उसके रहन सहन को ही श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति भर दी. और नेहरु जैसे काले अंग्रेजों के कारण हम अन्ग्रेज़ी के गुलाम होते गए. फिर भी आज हिन्दी को किसी की मुहताज बनने की ज़रूरत नही है.
लेखिका ने यह ठीक कहा है कि हर तरह की भावनाओं-चीज़ों के लिए एक ही भाषा में शब्द मिलना कठिन है.लेकिन यह भाषा की कमजोरी नहीं है. ज़ाहिर है हर जगह का आचार-विचार, रहन-सहन अलग हुआ करता है, उसी के अनुसार भाषा भी गढी जाती है. जैसे साडी के लिए अंग्रेजों के पास कोई शब्द नहीं था उसी तरह हमें भी कंप्यूटर के लिए (संगणक टाइप) कोई शब्द तलाशने की ज़रूरत नहीं है. तो अलग-अलग परिवेश में आप जाएँ,वहां की तीन नहीं तेरह भाषाए सीखें,लेकिन बस ज़रूरत इस बात की है कि हर सीखी गयी नयी चीज़ आपकी मौलिक चीज़ को खत्म करने वाला न होकर उसे मजबूती प्रदान करने वाला हो .बकौल लेखिका वह खुद कई अंतर्राष्ट्रीय भाषा जानती है लेकिन अगर उन्हें अपनी हिन्दी सबसे प्यारी है तो हिन्दी दिवस पर बधाई उन्हें.
पंकज झा.
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|| सब को हिंदी दिवस पर बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं ||
ये ना होता तो कोई दूसरा गम होना था.
हम तो वे हैं जिन्हें हर हाल में बस रोना था
शिखा तुमने बहुत सटीक लिखा है , हिंदी दयनीय कभी न थी और न है, वह अपने आप में इतनी समर्थ है कि विज्ञान , अभियांत्रिकी भी अपने विकास की सीढियां हिंदी से बनाने लगी हें. हर कोई रोता नहीं शोध की दिशा में जाय तो इसके समृद्धि का डंका बजने लगा है. इस दिशा में मशीन अनुवाद के परिणामों ने ये सिद्ध किया है इसके माध्यम से हम कहीं भी पहुँच सकते हें. बशर्ते कि अपने मन में पूर्वाग्रह पाले चंद उच्च पदस्थ लोग आज भी संस्थानों में हिंदी में लिखे शोध को स्वीकार नहीं कर पा रहे हें.
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मैं गगन शर्मा जी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ।सच ही तो कहा है गगन शर्मा जी ने,
"हमने परमाणु बम बना लिया पर एक मेकाले नहीं बना पाए. हम अपने ज्ञानी ध्यानी होने का अपनी भाषा के सम्रद्ध होने का दम भरते हैं तो क्या हममे क्षमता नहीं कि हममे से कोई एक हमारा अपना नया मेकाले पैदा हो सके".
आपकी पंक्तियों से सहमत हूँ और हिन्दी का दम भरने वालों के लिए कुछ कहना चाहती हूँ।
वो तेरे प्यार का गम इक बहाना था सनम
अपनी किस्मत ही कुछ ऐसी थी कि दिल टूट गया
ये ना होता तो कोई दूसरा गम होना था
मैं तो वो हूँ जिसे हर हाल में बस रोना था।
सार्थक आलेख बहुत कुछ कह गया।
ये ना होता तो कोई दूसरा गम होना था.
हम तो वे हैं जिन्हें हर हाल में बस रोना था <- ऐसा नज़रिया तकलीफ़ देता है.. इतने भी गये गुज़रे नहीं हैं हम… और अगर हैं तो इसी सोच के चलते… तो बस, रोइये नहीं, हाथ बढ़ाइये… 🙂
सार्थक…समसामायिक लेख…बधाई.
एक-एक-बात से सहमत-100%!!
हिंदी सर्वग्राह्य बनने की ओर अग्रसर है .अन्तरराष्ट्रिय पटल पर हिंदी को सम्मान मिलने लगा है. तमाम विदेशी विश्विद्यालयों में हिंदी पढाई जाने लगी है . हिंदी में तकनीकी पुस्तकें भी आने लगी है . मै तो आशान्वित हूँ इसके उज्ज्वल भविष्य के प्रति . जहाँ तक क्लिष्ट शब्द के प्रयोग की बात है . तो ऐसा दुनिया की हर भाषा में पाया जाता है . अब मनोहर कहानी और कामायनी की भाषा में अंतर तो होगा ही ना .
सुन्दर सार्थक पोस्ट है आपकी.
भाषा सहज रूप से प्रवाहित होती
है तो विकसित होती रहती है.
आपके विचारों से मैं सहमत हूँ.
विश्लेषणात्मक प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आईयेगा.
बिलकुल सही कहा आपने शिखा जी, आम बोलचाल की भाषा में शुद्धता के दुराग्रह को मैं भी उचित नहीं मानती.
हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ. अच्छी रचना है.
check my hindi poetry at
http://www.belovedlife-santosh.blogspot.com.
बहुत अच्छा मुद्दा उठाया आपने…
पूर्वाग्रह त्याग कर इस पर सभी को विचार करना चाहिए…
बहुत सार्थक आलेख. आशा है उठाये गये प्रश्नों पर सभी गंभीरता से मनन करेंगे.
बढ़िया आलेख
बहुत सुंदर विचार और आपकी हिंदी प्रति चिंता सराहनीय है.
आज आपका आलेख पढ़ा तो एक बात जहन में आई ..भाषा बनी क्यों ताकि हम अपनी बात एक दुसरे तक पहुंचा सके भावनाए व्यक्त कर सके वो बात समझा सके जो आँखों ,स्पर्श और संकेतों के माध्यम से नहीं कही जा सकती …. सच कहा आपने हर भाषा समृद्ध है और भाषाओ का संगम होने पर ही वो लम्बे समय तक चलन में रहेगी …अब आप बताओ अगर गंगा रास्ते में यमुना ..सरस्वती और कितनी ही नदियों को मिलाने से मना कर दे तो ?
गगन जी का विचार और पंकज जी की टिपण्णी ख़ास पसंद आई
क्यों आज ही के दिन हिंदी का रोना रोया जाता है ……
समझ नहीं आया.
और इन सबके बीच भाषा हंसती हुई सोचती है.वाह रे मेरे पालनहारो! तुमने मुझे समझा ही नहीं.बस लकीर के फ़कीर बने एक लकीर को पिटे जा रहे हो.भाषा का उत्थान उसे एक सिमित दायरे में सिकोड़कर रखने में नहीं बल्कि उसे सम्रद्ध करने में है
शिखा जी सही कहा हिंदी अब इतनी समृद्ध हो गई की हमें रोना धोना बंद कर देना चाहिए ….
सार्थक मुद्दे पर चर्चा के लिए आपको धन्यवाद.
हिंदी तो रग रग , पल पल , दिन रात, घंटों , हप्तों, पखवारों महीनों हर साँस में बसी है " हिंदी है मेरी हिंद की धड़कन, हिंदी है मेरे दिल की धड़कन "
हर लिखी पोस्ट से हमारे हाथ और बली हो रहे हैं।
शिखा जी, एक सार्थक और निरपेक्ष विवेचन!!और उसपर मनोज जी की विस्तृत टिप्पणी, बस दिन बन गया!!
सार्थक आलेख सही समय पर ..
असंतुष्ट ही आविष्कारक होता है। यह ध्यान में रहे। इससे अधिक कहना विद्वान लोगों के बीच ठीक नहीं होगा। चलता हूँ।
आप की हर बात से बिलकुल सहमत हूँ | मुझे ये समझ नहीं आता की हिंदी के विकास की बात अंग्रेजी के विरोध के साथ क्यों शुरू होती है यहाँ मुंबई में लोगो को एक साथ चार चार भाषाए आराम से बोलते देखती हूँ तो लगता है की किसी एक भाषा के विकास में कोई दूसरी भाषा कैसे बाधक बन सकती है वो भी उस देश में जहा कई भाषाए तो है ही जहा खुद हिंदी के कई रूप है | हर बीस पचास किलोमीटर पर हिंदी को बोलने का तरीका बदल जाता है वहा पर बस साहित्यिक हिंदी को ही सही कहना भी समझ नहीं आता है |
सार्थक लेख के साथ सार्थक टिप्पणियों के बाद लिखने को कुछ नहीं रह जाता .. सही है कि बिना पूर्वाग्रह के हम हिंदी को प्रयोग में लाएं ..ऐसी हिंदी जो सरलता से ग्राह्य हो ..हर भाषा अपने आप विकसित होती जाती है … आज हिंदी कि स्थिति इतनी दयनीय नहीं है …पर लोगों का नजरिया अभी भी पिछड़ा हुआ है ..
अंग्रेजों ने अंग्रेज़ी भाषा का प्रचलन अपने फायदे के लिए किया था ..उनको काम करने के लिए बाबू चाहिए थे …भारत इतना विशाल देश था और यहाँ पर इतनी अधिक भाषाएँ थीं कि अंग्रेजों को अपना काम करवाना कठिन होता था ..उस समय इतने जानकारी के साधन भी नहीं थे तो जिस क्षेत्र में जो भाषा बोली जाती थी उसको ही लोग समझते थे ..अंग्रेज़ी ऐसी भाषा बन गयी जो उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक जानी और समझी जाने लगी … आज़ादी के बाद ६५ साल हो जाने पर भी यदि हिंदी को कमतर कहा जाता है तो इसमें कमी हमारी अपनी है ..
बहुत सारगर्भित लेख
अच्छा लेख।
हिंदी दिवस पर इस चिंतन के लिए आपका आभार।
हिंदी दिवस की शुभकामनाएं….
''निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषा को मूल ।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल ॥''
— भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
सार्थक लेख…हमें अपनी कमियां औरों पर नहीं लादनी चाहिए..आपने बिलकुल सही कहा की किसी भी भाषा के विकास में कोई अवरोध नहीं होता यदि उसमें विदेशी शब्द भी शामिल कर लिए जाएँ.संस्कृत ने यह काम नहीं किया…इसलिए ही आज इस स्थिति में है..हिन्दी ने किया है…आज भी बोलचाल में प्रयुक्त हो रही है.
प्रयोग सिमटे नहीं..और बढे…इसके लिए अपने बच्चों को बताना होगा की हिंदी के प्रयोग में शर्म कैसी?उनकी यह कह कर प्रशंसा करने से बचना होगा की अंग्रेजी में अच्छा है,अंग्रेजी पसंद है..हिन्दी नहीं अच्छी लगती .हिन्दी..अपनी भाषा है..वो तो आनी ही चाहिए..बाकी कोई भाषा सीखो गुरेज नहीं .
अपनी गुलामों वाली मानसिकता से बाहर आना होगा ..
मैकाले की शिक्षा पद्धति ने नौकरों की बड़ी फौज बनाई ,इसमें शक नहीं …
मगर हमारी राष्ट्रभाषा अन्य भाषाओ और बोलियों के शब्द जुड़ते जाने से और समृद्ध ही हुई है , दयनीय नहीं!
कहीं पढ़ा था कि नेहरु जी के ज़माने से ही उनके परिवार में खाने की मेज पर सिर्फ हिंदी में बातचीत करने की परम्परा रही है , विदेश में पढ़े बच्चों और विदेशी बहुओं के आने के बाद भी ….
अंग्रेजी अथवा अन्य माध्यम से पढ़े बच्चों में भी अपनी भाषा के प्रति प्रेम और आदरभाव जगाने के लिए इसकी शुरुआत घर से ही करनी होगी !
सार्थक चिंतन!!!
अचूक शेर!!!
आशीष
—
मैंगो शेक!!!
हिंदी दिवस पर बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं
ओके?? 🙂
शेक्सपियर का साहित्य इंग्लेंड में आज भी स्कूलों में उसी भाषा में पढाया जाता है.जिस में वह लिखा गया.पर आम बोलचाल में उस भाषा को उपयोग नहीं किया जाता और ना ही भाषा की शुद्धता के नाम पर ऐसा करने की जिद की जाती है.तो क्या इससे उनकी भाषा अशुद्ध हो गई….
सार्थक चिंतन …आपसे सहमत हूँ मैं
जीवित भाषायें बहती नदी की तरह होती हैं, बदलती हैं, विकसित होती हैं। हाथ बढाने की बात आपने सही कही है, फ़िज़ूल बहसें करने, आरोप-प्रत्यारोप लगाने और रोते रहने से कभी कुछ नहीं होता।
इन्हीं आशाओं-आशंकाओं से गुजरती हिन्दी अपने बेहतर भविष्य की ओर अग्रसर है और अगर नहीं तो हाय-तौबा से तो कल्याण कतई नहीं होने वाला.
हिंदी की जय बोल |
मन की गांठे खोल ||
विश्व-हाट में शीघ्र-
बाजे बम-बम ढोल |
सरस-सरलतम-मधुरिम
जैसे चाहे तोल |
जो भी सीखे हिंदी-
घूमे वो भू-गोल |
उन्नति गर चाहे बन्दा-
ले जाये बिन मोल ||
हिंदी की जय बोल |
हिंदी की जय बोल
शिखा जी बिलकुल सहमत हूँ -आपके विचार स्वयं में इतने पूर्ण और स्पष्ट हैं कि अलग से कुछ कहने की जरुरत नहीं है ….मगर हिन्दी के प्रति अरुचि दुखी करती है
सार्थक आलेख…..हिंदी का मान बना रहे यह ज़रूरी है….
बहुत बढ़िया लेख …सहमत हूँ आपसे !
@ हमने परमाणु बम बना लिया पर एक मेकाले नहीं बना पाए.
इच्छा शक्ति की कमी है, आज आवश्यकता है शिक्षा पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन की.
भाषा में परिवर्तन होना प्रकृति का नियम है!…ये तो सभी जानते है कि संस्कृत ही भारत में बोली जाने वाली लगभग सभी भाषाओं का उद्गमस्थान है!…हिन्दी, गुजराती , मराठी, बंगाली, पंजाबी, राजस्थानी वगैरा सभी भाषाएँ आज अपना अलग अस्तित्व बनाए हुए है!…इसके बावजूद भी इनमें संकृत भाषा समाई हुई है!
…आपने बिलकुल सही कहा है शिखाजी!..भाषा को मर्यादा में बांध कर रखने से उस के प्रचार और प्रसार में बाधा उत्पन्न होती है!…आज हिन्दी भी गुजराती मराठी,बांगला और पंजाबी मिश्रित हो चुके है!…ऐसे में अगर इंग्लिश के शब्द भी प्रयोग में लाए जाते है तो अनुचित नहीं है!
….बहुत सुन्दर आलेख, धन्यवाद!
बधाई आपको हिन्दी का रोना रोने वालों को लताड़ लगाने के लिए।
bahut badhiyaa sarthak
सही दिशा की ओर इंगित करता हुआ आलेख!
—
हिन्दी भाषा का दिवस, बना दिखावा आज।
अंग्रेजी रँग में रँगा, पूरा देश-समाज।१।
हिन्दी-डे कहने लगे, अंग्रेजी के भक्त।
निज भाषा से हो रहे, अपने लोग विरक्त।२।
बिन श्रद्धा के आज हम, मना रहे हैं श्राद्ध।
घर-घर बढ़ती जा रही, अंग्रेजी निर्बाध।३।
हिन्दी है आन हमारी,शान हमारी
हिन्दी है हमको जान से प्यारी….
हिन्दी दिवस की बहुत बहुत बधाई……सार्थक आलेख विचारणीय पोस्ट …शुभकामनाएँ.
दोनों ही प्रयास चलते हैं- विरोध के भी और सहयोग के भी तथा इन्हीं के बीच भाषा का प्रयोग होता रहता है, विकास होता रहता है। एक शब्द है रेलगाड़ी। इसका पूर्वार्ध अंग्रेजी का है और उत्तरार्ध हिन्दी का है। इसका प्रयोग बड़े ही धड़ल्ले से चल रहा है। वैसे हमलोग प्रायः जरूरत पड़ने पर एक वाक्य प्रयोग करते हैं- ट्रेन लेट है। तीन शब्दों के इस वाक्य में दो शब्द अंग्रेजी भाषा के हैं, केवल एक शब्द हिन्दी का है। लेकिन वाक्य हिन्दी का है। हाँ, इसका अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि हिन्दी की मूल प्रवृत्ति को नष्ट कर दिया जाय। आभार।
aapka chintan mahatvpurn hai .sunder lekh ke liye bahut bahut badhai
rachana
Shikha varshney ji
sundar prastuti ke liye badhai sweekaren.
मेरी १०० वीं पोस्ट , पर आप सादर आमंत्रित हैं
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ब्लॉग पर यह मेरी १००वीं प्रविष्टि है / अच्छा या बुरा , पहला शतक ! आपकी टिप्पणियों ने मेरा लगातार मार्गदर्शन तथा उत्साहवर्धन किया है /अपनी अब तक की " काव्य यात्रा " पर आपसे बेबाक प्रतिक्रिया की अपेक्षा करता हूँ / यदि मेरे प्रयास में कोई त्रुटियाँ हैं,तो उनसे भी अवश्य अवगत कराएं , आपका हर फैसला शिरोधार्य होगा . साभार – एस . एन . शुक्ल
जैसे नदी अपने गंतव्य के मध्य पडने वाले सभी छोते बडे नदी नालों को सहज रूप से अपने में समाहित कर लेती है उसी तरह एक सशक्त भाषा बनने के लिये उसे भी आम बोलचाल एवम अन्य उपयुक्त शब्दों को अपने में बिना किसी हिचकिचाहट के समाहित करना होगा. और इसमें किसी भी तरह का दुराग्रह बाधक ही बनेगा.
रामराम
shikha ji
bhaut badhiya—-aapne to mere man ki baat likh di .jo aap kahti hain vahi merra bhi manana hai.hamari bhashha apni bhashh to hai hi par usme any bhashhao ko jodne se gurej kyon karen.
bahut hi sarthak prastuti
aapkoi ek rachna vat -vrich me padhi bahut hi achhi lagi aapko bahut bahut badhai
poonam
सही फ़रमाया आपने
मुझे तो लगता है की हिंदी के तथाकथित कर्णधार/संरक्षक ही सबसे अधिक हानि पहुंचा रहे हैं. ख़ुशी की बात है की हिंदी को अब संयुक्त राष्ट्र संघ ने मान्यता दे दी है.
हिंदी दिवस पर
बहुत ही रोचक और विश्लेष्णात्मक पोस्ट
हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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जय हिंद जय हिंदी राष्ट्र भाषा
HINDI DIWAS BEET GAYA, AB TO AGLE VARSH KUCHH KAHENGE:):)
सार्थक लेख … सार्थक चिंतन … भाषा हमेशा अपना स्वरुप बदलती है और इस रूप को स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है … हाँ भाषा नहीं बदलनी चाहिए … और वो बदलती भी नहीं .. हिंदी आज भी हिंदी है … लोकप्रिय है …
कौन कहता है कि हिन्दी का भविष्य खतरे में है ?
हिन्दी बहुत तेजी से बढ़ रही है | बस रोजगार से जुड़ना बाकी रह गया है |
http://premchand-sahitya.blogspot.com/
यदि आप को प्रेमचन्द की कहानियाँ पसन्द हैं तो यह ब्लॉग आप के ही लिये है |
हिन्दी लेखन को बढ़ावा दें | हिन्दी का प्रचार – प्रसार खुद भी करें तथा करने वालों को प्रोत्साहित भी करें |
यदि यह प्रयास अच्छा लगे तो कृपया फालोअर बनकर उत्साहवर्धन करें तथा अपनी बहुमूल्य राय से अवगत करायें |
हम तो हिंदी वाले ही हैं शिखा जी…हिंदी में आलेख लिखकर ही खुश हो लेते हैं और अपना Hb भी बढा लेते हैं।
sach kaha aapne… hamare paas shikayton ka pulinda hota hai… bar baat ki shikayat…
ab bhasha ki baat… to jis tarah klishtataa khatam ho rahi hai use bachane ka bhi wahi tareeka hai… thoda-thda sa, ek-doosre se seekhen… aur yadi waha Shakespeare ko pahdte hain to ham bhi Tulsi-Soor ko padh k bade hue hain, par wo baatein ya seekh likhne mein ek baar istemaal bhi ki jaa sakti parantu bol-chaal mein nahi… aur fusion to har jagah successful hi raha hai…
lekh bahut hi acchha laga…
ओके?? 🙂 main dam hai 🙂
भाषा एक नदी की तरह है … जितना पानी मिलते जायेगा … नदी का कलेवर बढ़ता जायेगा … एक जगह सिमट गया तो पानी खराब हो जाता है … बढ़िया आलेख
हम तो वे हैं जिन्हें हर हाल में रोना था । पढ कर हंसी आ गई । पर बात तो आपकी एकदम सही है । भाषा में प्रवाह होना चाहिये और इसमें अगर दूसरी भाषाओं के प्रवाह मिल जाये तो उसमें आपत्ति क्यूं । यह तो इस बात का प्रतीक है कि भाषा जीवित ही नही सेहत मंद है । हिंदी का महत्व बढाने के लिये अंग्रेजी के खिलाफ बोलना भी जरूरी नही है । भाषा भाषा है और इन्सान जितनी ज्यादा भाषाएं जाने उतना ही प्रगल्भ होगा । आपका लेख सार्थक, सामयिक और सटीक । ये ब्लॉगिंग हिंदी को अवश्य ऊँचाइयों पर पहुँचायेगी ।
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