उस शहर से पहली बार नहीं मिल रही थी मैं, बचपन का नाता था. न जाने कितनी बार साक्षात्कार हुआ था. उस स्टेशन से, विधान सभा रोड से और उस एक होटल से. यूँ तब इस शहर से मिलने की वजह पापा के कामकाजी दौरे हुआ करते थे जो उनके लिए अतिरिक्त काम का और हमारे लिए एक छोटे से पहाड़ी शहर से इतर एक बड़े से मैदानी शहर में छुट्टियों का सबब हुआ करता था. स्कूल से दूर कुछ दिन एक बड़े शहर में वक़्त बिताना इतना रोमांचकारी हुआ करता था कि पापा की व्यस्तता के समय, दिन भर होटल में बैठे रहना, टीवी देखना, और खिड़की से बाहर विधान सभा भवन या मुख्य सड़क पर चलते, अंकुरित चने और मूंग की चाट के ठेले झांकते रहना भी नहीं खलता था.
शाम को फिर हजरत गंज की सैर और चाट का कार्यक्रम लगभग फिक्स हुआ करता था. भारत के सबसे बड़े राज्य की इस राजधानी के विधान सभा मार्ग से हजरत गंज तक का यह छोटा सा इलाका हमारे लिए किसी पसंदीदा पिकनिक स्पॉट से कम नहीं था. यदा कदा उस शहर के दर्शनीय स्थल भी देखने चले जाते परन्तु सही मायनों में वह शहर हमारे लिए घर से बाहर एक और घर जैसा ही था टूरिस्ट प्लेस नहीं।
कुछ जगहों, लोगों से, यूँ ही नाते हुआ करते हैं. बिना वजह. शायद इस शहर से भी कुछ ऐसा ही नाता है मेरा। बचपन बीता, जिंदगी ने रफ़्तार पकड़ी तो यह शहर भी पीछे छूट गया. तब कभी नहीं सोचा था कि फिर इस शहर से मुलाकात होगी वह भी किसी काम से. जैसे इतिहास दोहराता है खुद को. माध्यम स्वयं बनते ही जाते हैं. और इस बार यह आधिकारिक दौरा पापा का नहीं उनकी बेटी का था.
एक नास्टॉल्जिया कार्यक्रम की रूपरेखा सामने आते ही आँखों में छाने लगा. और बिना एक भी सवाल किये मैंने आयोजकों को शहर का नाम सुनते ही हाँ कर दी थी. बिना किसी इंतज़ाम के एक अलग ही शहर में जाकर अनजानों के बीच, अकेले एक कार्यक्रम में बतौर चीफ गेस्ट शामिल होकर जाना मेरा पहला अनुभव था. परन्तु शायद वह उस शहर से पुरानी पहचान का नतीजा था जो मुझे कोई भी चिंता करने से रोके हुए था. घर में भी सब शहर का नाम सुनकर पुरानी यादों से भरे हुए थे और काफी हद तक आश्वत थे. कि अरे उसी होटल में जाकर रहना कोई परेशानी नहीं होगी।
परन्तु शायद आपकी जिंदगी में कुछ वाकये, कुछ जगह और कुछ लोग आने फिक्स होते हैं. वे कब कैसे और कहाँ आएंगे यह भी फिक्स होता है और शायद इसीलिए लोग इन बातों को किसी पूर्व जन्म का कनेक्शन कहते हैं.
मैंने पूर्व इंतजाम करने के लिए वेबसाइट खोलकर जैसे ही उस होटल का नाम सर्च बॉक्स में डाला कि दूसरी तरफ ऍफ़ बी पर मेसेज बॉक्स में एक सन्देश उछला। “कब आ रही हैं भारत ? आगत के स्वागत की तमन्ना है”.
यूँ इस सन्देश वाहक से मेरा नाता सिर्फ ब्लॉग पोस्ट और ब्लॉग टिप्पणियों तक ही सिमित था. फिर भी सन्देश में पूछने वाले का यह अंदाज ऐसा था कि जबाब मैं मैंने उनके शहर आने की बात भी बता दी. और उस पुराने पहचाने होटल में दो दिन की बुकिंग कराने की गुजारिश भी साथ में पकड़ा दी. इस इल्तज़ा के पीछे मेरी सिर्फ एक छोटी सी वजह थी. वह यह कि लंदन से बुकिंग करने पर नेट पेमेंट की मुश्किल थी और भारत पहुंचकर करने में देरी हो सकती थी. परन्तु जबाब में मुझे एक बेहद आग्रह भरा आमंत्रण मिला कि बिलकुल नहीं, आप यहाँ आएँगी तो हमारे घर ही रहेंगी यह पक्का है. उस समय मैंने इसे एक सहृदय व्यक्ति का शिष्टाचार समझ कर टाल दिया। और यह समझ कर भारत आ गई कि वह नहीं तो किसी और होटल में इंतज़ाम हो ही जायेगा।
यूँ इस सन्देश वाहक से मेरा नाता सिर्फ ब्लॉग पोस्ट और ब्लॉग टिप्पणियों तक ही सिमित था. फिर भी सन्देश में पूछने वाले का यह अंदाज ऐसा था कि जबाब मैं मैंने उनके शहर आने की बात भी बता दी. और उस पुराने पहचाने होटल में दो दिन की बुकिंग कराने की गुजारिश भी साथ में पकड़ा दी. इस इल्तज़ा के पीछे मेरी सिर्फ एक छोटी सी वजह थी. वह यह कि लंदन से बुकिंग करने पर नेट पेमेंट की मुश्किल थी और भारत पहुंचकर करने में देरी हो सकती थी. परन्तु जबाब में मुझे एक बेहद आग्रह भरा आमंत्रण मिला कि बिलकुल नहीं, आप यहाँ आएँगी तो हमारे घर ही रहेंगी यह पक्का है. उस समय मैंने इसे एक सहृदय व्यक्ति का शिष्टाचार समझ कर टाल दिया। और यह समझ कर भारत आ गई कि वह नहीं तो किसी और होटल में इंतज़ाम हो ही जायेगा।
परन्तु कभी कभी दुनिया आपके अनुभवों और उम्मीदों से अधिक अच्छी निकलती है. और कुछ लोग बेहद अच्छे और सहृदय होने का पूरा भार अपने कन्धों पर उठाये रहते हैं. और ऐसे ही उस हंसों के जोड़े ने मुझे अपनी बातों और अपनेपन के व्यवहार से उनका मेहमान बनने के लिए मना लिया।
मैं नहीं जानती वह क्या था, क्यों मैंने विश्वास किया उन दोनों पति – पत्नी पर जिनसे मैं पहली बार मिली थी. पर कुछ तो था जो वे अनजान नहीं लग रहे थे – तेरा मुझसे से पहले का नाता कोई… यूँ ही नहीं दिल लुभाता कोई… यह गीत वक़्त बे वक़्त बेक ग्राउंड में बजता जा रहा था.
उनकी मेहमाननवाजी में मुझे दो बातों का खटका हुआ था. एक तो यह कि मैं वाकई किसी देश की क्वीन हूँ ? दूसरा यह कि ये लोग कोई एंजल हैं. जाहिर है पहली बात तो बेहद बेबकूफ़ाना और काल्पनिक ही हो सकती थी परन्तु दूसरी बात बहुत जल्दी ही सच साबित हो गई. क्योंकि वह कपल वाकई एंजल था जो अपने घर आये दोस्तों की खातिर तवज्जो बिलकुल “अतिथि देवो भव:” स्टाइल में करता था . खैर इस तथाकथित “आभासी” मित्र जोड़े के साथ बीते २ दिन और ब्लॉगर साथियों के साथ बीता समय पहले ही कई ब्लॉग्स-
“मेरी बातें” http://abhi-cselife.blogspot.in/2015/04/blog-post.html ) पर लिखा जा चुका है. उसे दोहराने का कोई फायदा नहीं। और अमित निवेदिता की भी ज्यादा तारीफ़ की तो नजर लग जाने का ख़तरा है.
तो हम फिर आते हैं उस शहर पर. स्टेशन से घर लाते वक़्त जानबूझकर एक लंबा रास्ता लिया गया जिससे थोड़ा बहुत लखनऊ का मिज़ाज़ मुझे दिखाया जा सके.
कार की खिड़की से झांकते हुए और उस रॉयल हाथी पार्क से गुजरते हुए मुझे अपने बचपन के उस शहर जैसा कुछ नजर नहीं आ रहा था और मेरी आँखें किसी पहचाने रास्ते को खोज रही थीं. पर बराबर की सीट पर कार का स्टेरिंग थामे बैठा वह शख्स शायद कोई जादू जानता था. उसने गाड़ी एक तरफ बढ़ाई और इशारे से कुछ दिखाया। तुरंत ही मेरे नास्टॉल्जिक कीटाणु जाग्रत हो गए और मेरे मन के किसी एक कोने में दबा वह लखनऊ शहर अचानक मेरे सामने आ गया. बाहर अगस्त की गर्मी हवाओं में थी अत: बंद शीशे से ही वह इलाका निहारते हम गोमती नगर में उनके घर आ गए. उसके बाद २ दिन खाने- खिलाने , घुमाने और मिलने -मिलाने के दौर कुछ ऐसे चले कि हँसते हँसते जबड़ों में दर्द होने लगता पर माहौल था कि वह तभी थमा जब लौटती ट्रेन ने लखनऊ का स्टेशन छोड़ा।
कार की खिड़की से झांकते हुए और उस रॉयल हाथी पार्क से गुजरते हुए मुझे अपने बचपन के उस शहर जैसा कुछ नजर नहीं आ रहा था और मेरी आँखें किसी पहचाने रास्ते को खोज रही थीं. पर बराबर की सीट पर कार का स्टेरिंग थामे बैठा वह शख्स शायद कोई जादू जानता था. उसने गाड़ी एक तरफ बढ़ाई और इशारे से कुछ दिखाया। तुरंत ही मेरे नास्टॉल्जिक कीटाणु जाग्रत हो गए और मेरे मन के किसी एक कोने में दबा वह लखनऊ शहर अचानक मेरे सामने आ गया. बाहर अगस्त की गर्मी हवाओं में थी अत: बंद शीशे से ही वह इलाका निहारते हम गोमती नगर में उनके घर आ गए. उसके बाद २ दिन खाने- खिलाने , घुमाने और मिलने -मिलाने के दौर कुछ ऐसे चले कि हँसते हँसते जबड़ों में दर्द होने लगता पर माहौल था कि वह तभी थमा जब लौटती ट्रेन ने लखनऊ का स्टेशन छोड़ा।
स्टेशन तो छूट गया पर उस शहर से जुड़ा बहुत कुछ फिर वहीं छूट गया. शायद यह बार बार मुझे वहां बुलाने का बहाना रहा होगा। और यह बहाना हर बार मुझे अब मिल जाता है फिर से उस शहर में जाने के लिए, हर बार उस रिश्ते में जुड़ जाते हैं कुछ और मोती, हर बार एक धागा और मजबूत हो जाती है रिश्ते की यह माला और हर बार वहां से लौटते वक़्त मैं छोड़ आती हूँ फिर एक बहाना वहां लौटने का. क्योंकि पाश्र्व में अब भी बजता रहता है वह गीत – तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई … ।
वाह दिल को छुता संस्मरण
प्यारी यादों से लबरेज़ सुन्दर पोस्ट । कुछ लोग अनजान होते हुए भी अनजान नहीं होते । वैसे कुछ ही पलों की मुलाक़ात में मैंने निवेदिता को सेन्स ऑफ ह्यूमर से भरपूर पाया था । तो दो दिन में तुम्हारे जबड़े दुखना लाज़मी था । वैसे इस पोस्ट में अगस्त की गर्म हवाओं का ज़िक्र है मार्च की फाल्गुनी हवाएँ कहाँ गयीं ? सच ही कुछ न कुछ नाता तो होता है ऐसे ही मन नहीं मिलते । ईश्वर इस जोड़ी से जिनका भी नाता हो सबकी नज़र से बचाये ।
Such a well written blog, lived the experience in every line!
मार्च लिखा नहीं गया, पर है इसी में 😛
बहुत सालों बाद मैं भी अप्रैल में लखनऊ गई पूरा बचपन लौट आया आपक वृतांत पढ़ा खो गयी हूँ अमीनाबाद महानगर गोमती नगर और न जाने कहाँ कहाँ
आभार
स्मृतियों को भी बहुत रोचक ढंग से उकेरा है। आपको एक बार पढ़ने वाला हर पाठक दूसरी बार पढ़ने की लालसा रखेगा।
आज अचानक … २ साल बाद यह कैसे याद आया आपको … 🙂
खैर जो भी हो … इसी दौरे मे मैं भी आप से मिल पाया और साथ साथ अमित भाई साहब और निवेदिता भाभी जी से भी मिलना हुआ … बाकी इस मे कोई शक़ नहीं तो वे दोनों सच मे किसी एंजल से कम नहीं |
लखनऊ छोड़े हुए लगभग दो साल का वक़्त हो गया। लेकिन यादें यथावत हैं। काफी टाइम बाद आपके ब्लॉग पर आना अच्छा लगा।
http://cricketluverr.blogspot.in/
http://chlachitra.blogspot.in/
सच्ची….बचपन से जुड़े शहर हमेशा लालायित करते हैं। उन शहरों तक पहुँचने का मौका कैसे छोड़ सकता है कोई? ये संस्मरण तो तुमने उस यात्रा का लिखा है जब हम भी मिले थे, लेकिन याद मुझे तुम्हारी हालिया लखनऊ यात्रा आ रही ? बहुत प्यारा संस्मरण है।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ब्रेकिंग न्यूज़ … मोदी बीमार हैं – ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-05-2015) को "लफ्जों का व्यापार" {चर्चा अंक- 1991} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत ख़ूब!
यह भावभीनी मुलाकात और उतना ही बेहतर संस्मरण पढना बहुत अच्छा लगा.
कई बार पूरी पोस्ट पढ़ चुका हूँ । अपनी तारीफ किसे अच्छी नहीं लगती । पर यह सच है कि हम लोगों को भी आप बिलकुल अपरिचित या अनजान सी नहीं लगी ,बस इसीलिए इतनी सहजता से आपका थोड़ा बहुत ध्यान रख सके । बस एक वादा और कर दीजिये कि जब कभी भी अलीगढ आएँगी तो यहाँ भी आना होगा ।
ये मीठी यादें मुबारक ..
ये मीठी यादें मुबारक ..
सुन्दर संस्मरण – 🙂
यही तो फाइदा है ट्क्नोलोजी का… वरना सोचिए ब्लॉग, फोन, फेसबुक न होता था तो कितनी नए लोग मिलते थे….
अब तो हर कोई यूंही मिलता रहता है, किसी न किसी अंजाने शहर में…. किसी अंजाने में हम भी मिल जाएँगे कभी, याद रखिएगा तब तक…. मिले नहीं तो इसका मतलब ये नहीं कि हम हैं नहीं….
बहुत बढ़िया संस्मरण
दिल को छूता हुआ संस्मरण .. कुछ लोग ऐसे होते हैं तो एक बार मिल कर अपना प्रभाव इतना गहरा छोड़ते हैं की निशाँ नहीं जाते उम्र भर …
सुंदर संस्मरण. कुछ व्यक्तित्त्व अविस्मरणीय होते हैं.
पढ़ते – पढ़ते ही उन लम्हों में एक बार फिर से जी उठी 🙂
सच्ची बहुत ही अच्छे और यादगार लम्हों से भर जाता है मन जब – जब भी तुमसे मिलती हूँ …. और वो उन दोनों दौरों में तुम्हारी हँसी की सौगात बस चश्मेबद्दूर !
वैसे आज एक बात सबके सामने ही बता दूँ तुम्हे … तुमसे मिलने के पहले ब्लॉग और ब्लॉगिंग को बस ऐंवे ही लेती थी …. 🙂
हमारी मुलाक़ात की तुम्हारी प्रतिक्रिया ने कुछ बहुत ही अच्छे दोस्त भी मिलाये .. शुक्रिया बोलूं क्या 🙂
अब तो तुम हमारे परिवार का एक अभिन्न अंग बन गयी हो … तुम्हारी हर भारत यात्रा का इन्तजार माँ के साथ ही अब मैं भी करती हूँ … बहुत बहुत सारा दुलार !
संगीता दी ,बहुत छोटी सी ही मुलाक़ात हो पायी थी आपसे पर बहुत अच्छा लगा था आपसे मिलना …. सादर !
सुंदर भावभीना संस्मरण।
पक्का प्रोमिस 🙂
अरे अब तो मैं भी इंतज़ार करुँगी।अभी तो न जाने क्या क्या बचा है आपके हाथ का बना खाना 🙂
मिलेंगे मिलेंगे 🙂
अचानक नहीं। 🙂 तब से पाक रही थी यह पोस्ट 🙂
उम्दा संस्मरण…वाह!!
मिलेंगे मिलेंगे 🙂
अरे अब तो मैं भी इंतज़ार करुँगी।अभी तो न जाने क्या क्या बचा है आपके हाथ का बना खाना 🙂
woww…Loved this post didi 🙂 bahut bahut achhaa laga.
Mujhe to lucknow ki yaad aane lagi post padhne ke baad. fir se wahan jaane ka dil kar raha. aap bhi aaiiyee 🙂
aur
itne din baad padhne ke liye maafi 🙂
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