सुना है, लिखने वाले रोज नियम से २- ४ घंटे बैठते हैं। लिखना शुरू करते हैं तो लिखते ही चले जाते हैं। मैं आजतक नहीं समझ पाई कि उनके विचारों पर उनका इतना नियंत्रण कैसे रहता है। मैं तो यदि सोच कर बैठूं कि लिखना है तो दो पंक्तियाँ न लिखीं जाएँ .
मेरे विचारों की आवाजाही तो जिन्दगी और मौत की तर्ज़ पर पूरी तरह ऊपर वाले पर निर्भर है। यूँ शायद सभी के होते हों पर उनके घरों में छत होती हो, और ऊपर जाकर वे उतार लाते हों ख्याल। पर यहाँ तो कमबख्त छत भी ऐसी नहीं होती की कोई चढ़ जाए, सीधे दरवाजे के रास्ते आते नहीं, ले देकर एक खिड़की है जिसके रास्ते आ जाया करते हैं कभी उनका मूड हो तो. कभी कभी तो ऐसे टुकड़ों और वैराइटी में, कि दिमाग में उनका मेला सा लग जाता है .
और हर तरह के छोटे मोटे विचार गड्ड मड्ड हो जाया करते हैं. ऐसे में कुछ दोस्त कहते हैं कि अच्छा है, विचारों का विस्फोट होकर निकलेगा रचनाओं में, परन्तु मुझे डर लगता है कि कहीं सब मिक्स होकर कीचड़ सा न बह जाये.
यूँ जब ये विचार आते तो ऐसे ताबड़ तोड़ कि मुझ जैसी महा जल्दबाज को भी शब्दों में ढालने में मुसीबत हो जाती है।और कभी कभी तो ऐसी जगह आते हैं कि संभाला जाना भी संभव नहीं होता. जैसे कल बिना बताये मेट्रो में धावा बोल दिया।अब उन्हें लिखूं तो कहाँ , एक तो इस तथाकथित विकसित देश में मेट्रो में फ़ोन नेटवर्क नहीं आता जो उसी पर लिख लो, पर्स खंखाला तो “लड़कियों का पर्स” से इतर एक टुकडा तक कागज का नसीब नहीं हुआ।पहली बार और्ग्नाइज पर्स रखने का एक नुकसान समझ में आया। तभी बराबर बैठे एक अंकल जी पर नजर पड़ी, एक रूसी अखबार गोद में लिए बैठे थे।कोई “खूबसूरती और स्वास्थ्य “(क्रसाता ई ज्द्रोवे) लेख खुला हुआ था , जाहिर है पढ़ तो रहे नहीं थे।मन किया की उन्हीं से वह अखबार मांग लूं .यूँ भी रूसी में लिखा देख कर बड़ी अपनी अपनी सी फीलिंग आ रही थी .फिर लगा – रूसियों से आजकल कुछ मांगना बेशक अखबार ही क्यों न हो , बड़ी भिखारी टाइप लगोगी यार शिखा , जाने दो .क्या पता उतरते हुए यहीं छोड़ जाएँ .इसी उहा पोह में, जिस स्टेशन पर मुझे उतरना था वह निकल गया , २ स्टेशन बाद होश आया हड़बड़ी में उतरी तो विचार उस मेट्रो के डिब्बे में ही छूट गए। अब बचपन में खाए बादाम, सारे अब तक कंज्यूम हो चुके हैं तो एक बार जो गए ख्याल, वापस उनके आने की संभावनाएं नहीं रहतीं।सो मेट्रो जैसी जगह में उनका आना खतरनाक होता है . पर वो सुनते ही कहाँ हैं, अपनी ही चलाते हैं हमेशा।जब मूड होगा उनका आयेंगे- जायेंगे। बैठे रहो तुम तकते रहो राह उनके मूड की।
काश कभी मौका मिले तो कहूँ उनसे कि यार रहम करो, और कुछ नहीं तो बढ़ती उम्र का ही लिहाज कर लो ,कुछ तो नोटिस देकर आया करो क़ि कम से कम एक कागज पेन का जुगाड़ तो कर सकूँ .
very nice
बाकी सब तो ठीक है पर अपनी बढ़ती उम्र का जिक्र जो आपने किया, वह अच्छा नहीं लगा।
yeh khyaal to us awastha main bhi chalte hain,
jab wo chitr ban khwaabo main aa dhamakte hain.
behtreen post………..
सही है आवारा ख्यालों को कैद करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है..
ये तो गजब हुआ भाई।
हमाए साथ भी कभी ऐसा हुआ था- http://hindini.com/fursatiya/archives/2161
बहुत अच्छा लेख ….
एक अच्छा नुस्खा भी हाथ लगा कि कागज़ , पेन हमेशा साथ रहना ही चाहिए .
aapne sahi likha hae mae bhi maanti hun lekhak to plon me jeeta hae kuchh aise kshn jo aapko lekhak bnaa deten hae ,khuubsurat post ,abhar
यह लिंक तो मिल ही नहीं रहा…
🙂 in par to bilkul control nahi
आइडियाज़ का तो ऐसा है ना कि आते ही रहते हैं ( भले ही घटिया आयें ) | जहाँ दिमाग १५ मिनट के लिए फ्री हुआ की आइडियाज़ आ गए दनदनाते हुए | अब जैसे भरी बाजार में चप्पलों से सजी दुकान देखकर कर विचार आया "कृपया चप्पलों की दुकान के सामने किसी कन्या को ना छेड़ें" ( पहले कहा था ना कि भले ही घटिया हों, पर आते तो हैं ही ) 🙂 🙂 🙂
भगवान आपको ऐसे आइडियाज़ देते रहें पर ये मेट्रो स्टेशन मिस कर जाना थोड़ा गड़बड़ है , इससे बचने का कोई आइडिया है क्या ???
लिखने के अपने अपने सीक्रेट्स होते हैं ! अपनी अपनी रचना प्रक्रिया!
कुछ ऐसी ही स्थिति मेरे साथ भी होती थी,तबसे डायरी पेन साथ रखता हूँ,,,,
Recent post: रंग,
वाह वाह …क्या खूब
उत्तम।
बधाई।
http://yuvaam.blogspot.com/p/katha.html?m=0
सोचकर लिखना तो परीक्षा है और तब भय होगा …. 🙂
विचार सच में योजना बनाकर नहीं लिखे जा सकते …
मैं ,और स्पैम में न जाऊं ,हो ही नहीं सकता ।
again me in spam , ma'm.
एक्चुअली विचार उस 'माहौल' में उत्पन्न होते हैं और जब वह 'माहौल' छूट जाता है तब विचार भी वहीँ रह जाते हैं । और ऐसा हम सभी के साथ अक्सर होता है । आप परेशान न हो ,आप अकेले नहीं हैं । यह ऑटोबाइग्रेफ़ी नहीं है आपकी ,यह तो टैक्सीबाइग्रेफ़ी है यानी सभी की कहानी ।
बहुत सही लिखा है अक्सर मेरे साथ भी यही होता है जब आराम से बैठ कर लिखना चाहों तो विचार ही नहीं आते ..और किचिन में काम करते वक्त आते हैं …मैं एक डायरी पेन वहां भी रखती हूँ …पर कई बार सब्जी में नमक डालना भूल जाती हूँ या कुछ और गड़बड़ होती है पर विचार तो विचार हैं इन पर किसी का जोर नहीं चलता
लिखना वाकई बड़ा श्रमसाध्य होता है.
आपके साथ और ३ लोग थे निकाल लाये सबको :):).
आप कितना भी चाह लो पर वैसा होगा नहीं, शिखा जी…
सर्जनात्मकता तभी हमारे भीतर या दिमाग में पनपती है जब हाथ
में न कलम कागज़ होते है न लेपटोप और न हम होते हैं अपने
स्टडी रूम में …घर ऑफ़िस के बहार हम में जब सर्जनात्मकता
पनपती है तो प्रतिभा के जैसे फ़व्वारे छूटते हैं …हम इस फव्वारों
की कुछ बूँदें (कुछ पॉइंट) याद तो कर लेते हैं अपने दिमाग में कि
घर जाकर कागज़ या लेपटोप पर वैसा का वैसा ही सबकुछ टपका
देंगे …पर हार रे सुन्न मन-मगज़ ! प्रतिभा की एक बूँद नहीं टपकती
लेपटोप पर, कागज़ पर और वैसी बात नहीं बनती जैसा कि रास्ते में
हम सर्जनात्मक हो उठे थे …हारे जुगारी से या कंगाल फ़कीर से हम
रह जाते हैं …
पर जब कभी हम कलम चलाते हैं तो खुद को निचोड़कर आत्मा-संतोष
भी पाते हैं …
तो शिखा जी, ये दोनों प्रक्रियाएं एक के बाद एक चलती रहे …चलती
रहनी चाहिए …
कम्प्यूटर और मोबाईल के अविष्कार के बाद से
इन्सानों की रेण्डम एक्सेस मेमोरी लगभग खत्म हो गई है
कभी-कभी तो स्वयं का फोन नम्बर भी किसी को देना हो तो
सामने वाले के नम्बर में रिंग करके बताते है.
ये विचार कमबख्त ऐसे ही हैं, कहीं भी चले आते हैं। लेकिन मेरे साथ एक बात अच्छी है कि जैसे ही मैं अपनी कुर्सी पर बैठकर कीबोर्ड पर अंगुलियां चलाती हूँ, कुछ न कुछ हाथ लग ही जाता है। इसलिए मैं अपनी कुर्सी को विक्रमादित्य की कुर्सी कहती हूं।
भावो का एक दम सटीक आकलन
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
तुम मुझ पर ऐतबार करो ।
ऐसा ही होता है ,जब चाहो कुछ नहीं मिलता और अनायास भीड़ बना कर चला आता है, बस यही आना-जाना पकड़ में आता है तो बात बन जाती है !
:):)तुमने उम्र का ज़िक्र किया ….तब से सोच रही हूँ कि मेरा क्या होगा ….. अब विचार को आना है तो आ गए कहीं भी ..कभी भी बाकी आपकी प्रोब्लम है बहुत दिनों बाद हलके मूड का लेख पढ़ा मज़ा आया …
भावपूर्ण प्रस्तुति.भावो का एक दम सटीक आकलन .बहुत सही लिखा है अक्सर मेरे साथ भी यही होता है
ऐसा कई बार होता है . विचार दिमाग में दौड़ लगाते थक जाते हैं , लिखने बैठो तो उड़न छू !
सच को लिखा है आपने … ये स्थिति कम से कम मेरे सामने तो कई बार आती है … ओर जो एक बार चला जाता है फिर लौटके मुश्किल से ही आता है …
वैसे हो भी सकता है … पर मुझे उम्र का कसूर तो नहीं लगता …
rochak alekh ….sach bat hai …aisa hi hota hai …!!!vichar jaise hii ayen unhen likh lena chahiye ,nahin to bhag jate hain …..!!
अपने पास विचार आते है तो छुटभैये टाइप . भारी भरकम आते ही नहीं की उनको सही जगह पर रखने के लिए कागज कलम की जरुरत हो. अपन ने उनको बोल दिया है की केवल सुबह शाम आये. बाकि समय अपन खाली नहीं है. चौचक लिखा है.
विचार जिस तेज़ी से आते है उसी तेज़ी से साथ भी छोड़ जाते हैं
सार्थक लेख 🙂
बस आपकी तरह हाल यहाँ भी है, दस मिनट में मन ऊबने लगता है।
दो ही प्राणी यूं टिक के लिख सकते हैं. एक वे जिनके उनके पास वाकई कहने को कुछ होता है दूसरे वे जिनके पास कहने को कुछ नहीं होता है
आपने सही कहा किन्तु विचार कभी कभी ऐसी जगह प्रस्फुटित हो उठते हैं जिसका उल्लेख कर पाना कठिन हो जाता है हाँ वहां लेखन की सुविधा कर पाना कठिन।
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मेरे चाचा कहते थे की सोचने की सबसे अच्छी जगह तो शौचालय है वो असल में सोच +आलय है 🙂
सुबह का समय दिमाग और पेट दोनों साफ होते है और सबसे अच्छे आइडिया वही और तभी आते है 🙂
मुझे हमेसा जागिंग करते हुए आते है जिसे लिखा ही नहीं जा सकता है लिखने बैठ गई तो जागिंग तो गई और जब लिख कर पोस्ट कर देती हूँ तो अगली जागिंग पर याद आता है की ये वाली बात तो लिखना भूल ही गई , बस खाना बनाते समय न आया करे वरना उनका ख़राब होना तय है पर कम्बखत सुनते कहा है ।
''विचार ट्रेन ही में छूट गए'' से याद आया. आनंदमठ के अमर रचयिता बंकिमचंद्र चटर्जी न्यायालय में किसी मुकद्दमे की सुनवाई कर रहे थे. अकस्मात उनके मन में कोई विचार कौंधा. वह तुरंत चैंबर से निकले और सीधे घर गए और अपने आनंदमठ उपन्यास को पूरा किया.
घायल की गति घायल जाने …और इस मामले में तो लगता है …करीब ६० फीसदी लेखकवर्ग की यही त्रासदी है …लेकिन तुमने इस व्यथा को बड़े ही मोहक ढंग से पेश किया ….बधाई .इसी उम्मीद के साथ की अगली बार कागज़ पेंसिल रखना नहीं भूलोगी …:)
बेहद प्रभाव साली बहुत खूब
आप मेरे भी ब्लॉग का अनुसरण करे
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
तुम मुझ पर ऐतबार करो ।
.
बेहतरीन अभिव्यक्ति…बहुत बहुत बधाई…
har bar ki trha bhtreen lekh
ये है लिंक –अमल के इंतजार में आइडिये….
सच कहा. मेरे साथ भी ऐसा होता है
manoranjak…..
विचारों की यह चिंतन अच्छा लगा …
अब आप पर्श में कागज कलम जरुर रखा कीजिये शिखा जी …..:))
इसीलिये ताऊ कहता है कि बरसात और विचार एक समान होते हैं, इन्हें रोकने के लिये बांध बना लेना चाहिये. वैसे घबराने की बात नही है जैसे बरसात बार बार आती है वैसे ही विचार भी बार बार आयेंगे, अगली बार के लिये तैयारी करके रखियेगा.:)
रामराम.
आपके अनुभव से सहमत हूँ और…ये बड़ा ही परेशान करने वाला सच है… खुद मेरे साथ ऐसा ही हिता है जब चाय या कॉफ़ी बनाओ तो साथ में कविता भी कम्पोज़ होने लगती है और जब तक कागज़ कलम तक पहुँचती हूँ… विचार धुँआ धुँआ हो जाते हैं..
भागादौड़ी के इस युग में विचारों की प्रवृत्ति भी इसी तरह की हो गई है. उनमें भी भागमभाग मची रहती है. सुबह घर से निकलने से लेकर देर शाम घर पहुँचने तक, विचार ही विचार, अलग-अलग तरह के विचार, न जाने कहाँ-कहाँ छूटते रह जाते हैं. जहाँ छूटते होंगे वहां से कहीं दूसरी जगह के लिए फूट लेते होंगे, उनके तो पंख भी होते हैं… मुझे लगता है जो इस तरह छूट जाते हैं वे टेम्परामेंट को सूट न होने वाले विचार होते हैं. मन में आते ही बिना दस्तक दिए दिल में घर कर लेने वाले विचार अच्छे लगते हैं…" जिस स्टेशन पर मुझे उतरना था वह निकल गया, २ स्टेशन बाद होश आया हड़बड़ी में उतरी तो विचार उस मेट्रो के डिब्बे में ही छूट गए। अब बचपन में खाए बादाम, सारे अब तक कंज्यूम हो चुके हैं तो एक बार जो गए ख्याल, वापस उनके आने की संभावनाएं नहीं रहतीं। सो मेट्रो जैसी जगह में उनका आना खतरनाक होता है. पर वो सुनते ही कहाँ हैं, अपनी ही चलाते हैं हमेशा। जब मूड होगा उनका आयेंगे- जायेंगे। बैठे रहो तुम तकते रहो राह उनके मूड की।"…बहुत रुचिकर लगा इस अनुभव से जुड़ना!
बहुत सुंदर. विचारों की रिक्तता आजकल बहुत खल रही है.सपने में जरूर आते हैं परन्तु नोट करने की बात सूझती ही नहीं. सुबह सो कर उठने पर कुछ याद नहीं रहता बस इतना की कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात थी.
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