आज कुछ पल सुकून के मिले थे शुक्रवार था .सप्ताहांत शुरू हो चुका था ,फुर्सत के क्षण थे तो यादों के झरोखे खुल गए और कुछ खट्टे मीठे पल याद आते ही जहाँ होठों पर मुस्कराहट आई वहीँ मन में एक सवाल हिल्लोरे लेने लगा… सोचा आपलोगों से बाँट लूं शायद जबाब मिल जाये.
हुआ यूँ कि एक बार एक जबर्दस्त बीमारी ने हमें आ घेरा तकलीफ कुछ ज्यादा ही बढ गई थी जब सहा ना गया तो २-४ आंसूं भी लुढ़क पड़े थे …..मेरी ८ साल की बेटी और ६ साल का बेटा भी पास ही बैठे थे और व्याकुल थे माँ की हालत देख कर . हमारी आँखे गीली देख बिटिया की आँखें भी भर आयीं , उससे रहा न गया तो हमें आराम पहुँचने की गरज से कहने लगी “मम्मा ! नानी को फ़ोन लगाऊं ? उनसे बात कर लो आपको अच्छा लगेगा …दर्द कम हो जायेगा “बेचारी छोटी सी बच्ची को लगा जैसे उसकी तकलीफ माँ की गोद में आकर कम हो जाती है वैसे ही मेरी भी अपनी माँ से बात कर के कम हो जायेगी.वहीँ मेरा ६ वर्षीय बेटा था वो भी व्याकुल था छूटते ही उसने अपना कंसर्न दिखाया और बड़े रोबीले अंदाज में अपने पापा को बोला ” डैड! अब आप बस कल ही किसी काम वाली का इंतजाम करो मम्मी की तबियत ठीक नहीं है फिर खाना कौन बनाएगा?” इतनी तकलीफ के वावजूद एक हलकी सी हंसी हमारे होठों पर आ गई और ये सोच भी …..कि दोनों बच्चों की परवरिश एक ही जैसी कर रहे हैं हम, दोनों बच्चे प्यार भी बराबर करते हैं, पर कितना फर्क है दोनों के प्यार जताने में जहाँ बेटी ने तकलीफ का इलाज़ भावुकता और भावनाओं से निकाला ,वहीँ बेटे ने व्यावहारिकता से ...ये सोच इतनी परिपक्व नहीं थी कि हम कह सके कि माहौल या शिक्षा से मिली थी ..ये एक प्राकृतिक सोच थी जो प्रकृति से ही मिली थी
अचानक ही हमें जोन ग्रे कि पुस्तक “Men are from Mars Women are from Venus कि कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं जहाँ उन्होंने कहा है कि “सोचिये एक बार बहुत पहले मार्स वालों (मंगल गृह ) ने वीनस (शुक्र गृह ) का पता लगाया और उन्हें उन खुबसूरत प्यारे लोगों से प्यार हो गया ..वीनस वालों ने भी खुली बाहों से उनका स्वागत किया और वे खुश रहने लगे उसी तरह अलग- अलग प्लानेट के वासी बनकर. फिर एक बार वे प्रथ्वी पर आये और वहां के माहौल के असर से धीरे धीरे भूल गए कि वो अलग- अलग प्लानेट के वासी हैं, और एक दूसरे से स्वाभाव और गुणों में भिन्न हैं “…बस तब से ये होड़ जारी है.“
तो जब प्रकृति ने ही स्त्री और पुरुष को अलग -अलग गुण और सोच से नवाजा है तो हम क्यों उन्हें समान बनाने पर तुले हुए हैं ?
जहाँ उसने स्त्री को प्रेम, भावनाएं ,भावुकता , कोमलता ,त्याग जैसे गुणों की अधिकता दी है ,वहीँ पुरुषों में जोश, व्यावहारिकता ,ताक़त और नापतोल जैसे गुण अधिक पाए जाते हैं .और फिर दोनों के मिलन से बनता है एक संतुलित समाज …फिर क्यों हम एक समान बनने की होड़ में प्रकृति के संतुलन में बाधा पहुंचा रहे हैं?
क्या हम अपने स्वाभाविक गुणों के साथ एक दूसरे को सम्मान नहीं दे सकते ?
जरा गौर कीजिये आप भी.
aaj ke bikharte hue stri aur purush ke sambndho per bahut hi steek tarike se aapne likha, ki har cheez apni jagha wa maryada me rehkar hi apna sarvshresth output de sakti hai/ to mukabla kis bat ka
शिखा ,
बहुत सार्थक लेख है….सच ही आज स्त्री पुरुशोकी तरह बनाने की राह पर चल पड़ी है…
पर ये ऐसा विषय है जिस पर बहुत कुछ कहा और विचारा जा सकता है.
प्रकृति प्रदत्त गुणों से नारी भावनात्मक रूप से जुडी होती है…और पुरुष अपने पुरोशोचित गुणों से अपनी पहचान रखते हैं…ये बात तुम्हारे लेख में पूरी तरह से परिलक्षित हो रही है.
बहुत सारगर्भित लेख….बहुत बहुत बधाई
bahut achcha laga yeh aalekh…..
तो जब प्रकृति ने ही स्त्री और पुरुष को अलग -अलग गुण और सोच से नवाजा है तो हम क्यों उन्हें समान बनाने पर तुले हुए हैं ?
yeh true fact hai ki stree-purush kabhi bhi baraabar nahi ho sakte…..
अपने,अपने स्थान पर ही,सब चीज अच्छी लगती है,मैने एक मनोवग्यानिक संस्था के बारे में लिखा था,जहाँ पर मनोचिक्त्सक के बारे में लिखा था,इस संस्था में,स्त्रीयोचित गुणों के कारण मनोचिकतसक स्त्रीयाँ,थी,और मानसिक चिकतस्क पुरषुत्व गुण के कारण पुरुष चिकत्सक थे,विचार करने वाला अच्छा लेख ।
सही कहा आपने…दोनों बच्चों ने अपने हिसाब से बिलकुल ठीक कहा है…दोनों के प्रेम की मात्रा में रत्ती भर का भी फर्क नहीं है…सिर्फ अभिव्यक्ति का फर्क है…बहुत अच्छा सार्थक लेख है ये आपका…
नीरज
दोनो अपने अपने स्वाभाविक गुणों के साथ साहचर्य से रह सकते है.
तो जब प्रकृति ने ही स्त्री और पुरुष को अलग -अलग गुण और सोच से नवाजा है तो हम क्यों उन्हें समान बनाने पर तुले हुए हैं ?
Sundar prashn hai aapka aur mera jabab bhi aapki soch se bhinn nahi hai bikul bhi. stri aur Purush dono ek dusre ke purak hote hai aur dono ko apne apne prakritik jhukab ke anusar se karyakshetra nirdharit karna chahiye, sahi mayane me tabhi ek swasthya aur samriddh samaj ka nirman ho sakega.
बहुत ही बढिया विचार से आपने अवगत कराया …….अतिसुन्दर!
kaash sab ye samaj paate ki stree aur purusha ek doosre ke purak hai aur samanta me hi mahanta hia. umda rachna, abhinandan
you are quite right. basically male and female are quite different in all aspect such as physicl, emotional, mental, psychological, biological etc. their approach to the problems are quite different as their solutions. they take the decisions differently. their priorities as well as goals are different so their attachment towards family and parents.
so it is quite natural that they develop differently and it should be so.
actually they are not rivals or opponents but complementary . so the society should be developed in such way.
Aapka kahna sach hai … shayad prakriti ne bhi is baat ka khyaal rakhaa hai ……. shayad isliye purush aur stri ka alag alag swabhaav banaaye hai aur isliye dono ikdooje ke poorak hain …..
एक ही परिवेश से निकले बच्चों में अपने संस्कारगत गुण भी होते हैं,
और बेटी कोमल और बेटा व्यवहारिक अधिक होता है…….दोनों ने ख्याल किया,
इसके लिए उनको प्यार
शिखा जी,
आपके लेख ने वास्तव में आंखें खोलने का काम किया है…स्त्री-पुरुष बराबर हो ही नहीं सकते हैं….दोनों में बहुत फर्क है….दोनों बस पूरक ही हो सकते हैं बराबर नहीं…प्रकृति में भी इसी Balance को बरकरार रखा गया है…पशु-पक्षी भी अगर नर-मादा की समानता की होड़ में लग जाएँ तो दुनिया का अंत कल की जगह आज ही हो जाए….और शायद उन्हीं की वजह से ये दुनिया चल भी रही है..वर्ना हम मनुष्यों ने इसे imbalance करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है…
बहुत ही काम की बात आपने कही है…
आपका धन्यवाद….
आपने बहुत अच्छा लिखा है। विचार और शिल्प प्रभावित करते हैं। मैने भी अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-घरेलू हिंसा से लहूलुहान महिलाओं का तन और मन-मौका लगे तो पढ़ें और अपनी राय भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
मेरी कविताओं पर भी आपकी राय अपेक्षित है। यदि संभव हो तो पढ़ें-
http://drashokpriyaranjan.blogspot.com
आपसे शत प्रतिशत सहमत हूँ। स्त्री विमर्श के नाम पर तथाकथित नारीवाद के झण्डाबरदार इन सब बातों को फालतू मानकर हर हाल में स्त्री को पुरुष के बराबर खड़ा करने की मुहिम में ऊल जलूल तर्क वितर्क गढ़ते रहते हैं। एक दूसरे का पूरक मानने से प्रायः सभी समस्याएं सुलझ सकती हैं। लेकिन उन्हें इस बात से सख़्त एतराज है।
आपकी यह पोस्ट बहुत आशान्वित करती है। शन्यवाद।
हम उन्हें इसलिए अलग बनाने पर तुले हुए हैं क्योंकि जो जैसा है वैसा न रहे तभी सभी महास्वार्थियों के स्वार्थ सिद्ध होते हैं. इनमें राजनीति से लेकर धर्म और बाज़ार तक कई तत्व शामिल हैं. वैसे आपने उदाहरण बहुत अच्छा दिया और तार्किक ढंग से अच्छी बात रखी. बधाई.
शिखा जी ,
आपका लेख तो काफ़ी तार्किक ढग से सोचा और लिखा गया है।
अच्छा लगा आपका लेख्।लेकिन मुझे लगता है कि यह जो आज नारी पुरूष समानता की बात,बराबरी के दर्जे की बातें हैं—-वह उस बर्बर समाज की सोच बदलने के लिये—जहां लड़की को पैदा होते ही मार दिया जाता है,एक ही मां बाप अपने लड़के को ज्यादा और अपनी खुद की लड़की को कम सुविधायें(खान पान, शिक्षा,कपड़ा लत्ता हर चीज में)देते हैं,सड़क पर लड़कियों के साथ दिन में भी छेड़ छाड़ होती है।
इन हालातों को तभी बदला जा सकता है जब हम नारी को समानता का दर्जा दें ।उसका सम्मान करें।आप तो इस समय लंदन में रह रही हैं मैं लखनऊ की बात करूं तो यहां की सड़कों पर शाम छः बजे के बाद लड़कियों का निकलना दूभर है। जबकी यह यू पी की रजधानी है।पूरे प्रदेश की तो बात ही छोड़ दीजिये।
वैसे तो यह काफ़ी बड़े विचार विमर्श का विषय है।
आपका लेख अच्छा और रोचक लगा ।शुभकामनायें।
हेमन्त कुमार
शिखा जी ,
सबसे पहले इतने होनहार बच्चों की माँ होने की बधाई …जो आपका इतना ध्यान रखते हैं …रही पुरुष और स्त्री के सामान अधिकारों की बात …दोनों का अपनी अपनी जगह अस्तित्व है पुरुष के बिना स्त्री कुछ नहीं व् स्त्री के बिना पुरुष अधिकारों की बात इसलिए होती है कि दोनों का समान रूप से सम्मान हो इसका मतलब यह नहीं कि स्त्री अपना स्त्रियोचित गुण छोड़ दे ….!!
बढ़िया लिखा है जी!
आपकी बात से पूरी तरह असहमत हूँ इसलिये कि मस्तिष्क के स्तर पर यानि जिसे आप प्रकृति द्वारा प्रदान किया जाना मान रही है स्त्री और पुरुष एक जैसे होते हैं । उनके सोचने – विचार करने की क्षमता एक सी होती है । भावनाये ,बुद्धि, विवेक चेतना यह सब मस्तिष्क मे होता है । कोई न वीनस से आया है न मार्स से सब मनगढ-अंत बाते हैं । पुरुष इतना जोश वाला हो गया है कि स्त्री को कमज़ोर बताकर उसपर अत्याचार करता है खुद को व्यावहारिक बता कर उस पर भावुक होने का इल्ज़ाम लगाता है और फिर उसे प्रताड़ित करता है । यह पुरुष द्वारा किया ष्ड़यंत्र है जिसकी वज़ह से हज़ारो वर्षों से स्त्री उसकी गुलाम की तरह रह रही है । यहाँ प्रश्न बराबर होने न होने का नही है । पुरुष स्त्री के बराबर कभी हो ही नही सकता । क्या वह संतान को जन्म दे सकता है ? बाकी की बातें सब बेकार हैं । जब तक दोनो सामंजस्य के साथ निर्वाह न करें यह दुनिया नही चल सकती ।
बहुत सुन्दर रचना । आभार
ढेर सारी शुभकामनायें.
SANJAY KUMAR
HARYANA
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
अद्भुत प्रसंग ..वाह वाह..शत-प्रतिशत समर्थन योग्य और चिंतन योग्य भी. लेखिका की एक खासियत है कि उन्हें अपनी भावनाओं या चिंतन को व्यक्त करने के लिए कभी भी ज्यादे शब्दों का सहारा नहीं लेना पड़ता. यह कला और उनकी मौलिक सोच वास्तव में सराहनीय है.साधुवाद.
पंकज झा.
Do you have a spam problem on this website; I also am a blogger, and I was curious about your situation; we have developed some nice procedures and we are looking to trade strategies with others, please shoot me an email if interested.
Hi my loved one! I wish to say that this post is amazing, great written and include almost all vital infos. I¦d like to look more posts like this .