सुबह उठ कर खिड़की के परदे हटाये तो आसमान धुंधला सा लगा। सोचा आँखें ठीक से खुली नहीं हैं अँधेरा अभी छटा नहीं है इसलिए ठीक से दिखाई नहीं दे रहा। यहाँ कोई इतनी सुबह परदे नहीं हटाता पारदर्शी शीशों की खिड़कियाँ जो हैं। बाहर अँधेरा और घर के अन्दर उजाला हो तो सामने वाले को आपके घर के अन्दर का हाल साफ़ नजर आता है।मानव स्वभाव है। हम बाहर से चाहें कैसे भी दिखें पर अपने अन्दर की कुछ चीज़ों पर पर्दा डाले रखना चाहते हैं।वो तो अपनी पुरानी भारतीय आदत है कि सुबह उठते ही घर के सारे परदे खिड़कियाँ खोल दो।सूर्य देव की प्रथम किरण घर अन्दर प्रवेश न करे तो दिन के आरम्भ होने का एहसास नहीं होता।अब यहाँ तो सूर्य देवता ही कम प्रकट हुआ करते हैं।उनके दर्शनों से दिन की शुरुआत करने की कोशिश करें तो जाने कब तक दिन ही न हो।अत: सर्दी की मजबूरी है तो खिड़की तो खुलती नहीं परन्तु परदे बिना किसी की परवाह किये मैं खोल ही देती हूँ।
सफ़ेद चादर…
थोड़ी सी आँख मल कर दुबारा देखने की कोशिश कर ही रही थी कि बच्चे चिल्लाते हुए आये ..इट्स स्नोइंग, इट्स स्नोइंग ..ओह तो यह माजरा है वो धुंध नहीं,बर्फ थी। बच्चे जो रात तक स्कूल जाने के नाम पर खिनखिना रहे थे अचानक स्कूल जाने को उतावले होने लगे।पर मेरा मुँह लटक कर घुटने तक को आने लगा। न जाने क्यों ये बर्फ अब मुझे लुभाती नहीं।अब इसे देखकर मुझे रानीखेत की सीजन में ज्यादा से ज्यादा एक बार होने वाली बर्फबारी याद नहीं आती जब पूरे दिन बाहर बर्फ में खेलते हुए उन्हीं बर्फ के गोले बनाकर, उसमें रूह अफ़ज़ाह मिलाकर उसी से पेट भरा करते थे।अब मुझे इस बर्फ से मास्को की ठिठुरती हुई ठण्ड याद आती है। जब हम 3-4 काल्गोथकियां (स्टोकिंग्स).2 टोपी , 2 जेकेट और मोटे बूट्स पहन कर फेकल्टी जाने को मजबूर हुआ करते थे। और झींका करते थे कि अजीब देश है यार, इतनी ठण्ड में स्कूल, कॉलेज खोलते हैं, और गर्मियों में 2 महीने की छुट्टियां करते हैं। हमारे यहाँ तो पहाड़ों में सर्दियों में छुट्टियां हुआ करती हैं कि बच्चे सर्दी से बचे रहें और मैदानों में गर्मियों में, ताकि झुलसती गर्मी से बच्चे बचे रहें। पर अब समझ में आता है। यही फर्क है हममें और इन पश्चिमी देशों में। वह लाइफ एन्जॉय करने का सोचते हैं और हम उससे बचने का।वह छुट्टियां किसी चीज़ से बचने के नहीं करते बल्कि साल के सबसे खुशनुमा मौसम में जिन्दगी का आनंद लेने के लिए करते हैं।
तब अपने उन रूसी दोस्तों की बातें बड़ी अजीब लगा करती थीं जब वह हमारे गर्मियों की छुट्टियों में भारत आने की बात पर आहें भरा करते थे कि हाय ..”कितने नसीब वाले हो तुम लोग। रोज सूरज देखने को मिलता है”। और हम मन ही मन ठहाके लगाते कि हाँ आकर देखो एक बार गर्मियों में सूरज को, सभी ज्ञात,अज्ञात भाषा में नहीं गरियाया तो नाम बदल देना।उनकी वह साल में 8 महीने बर्फ की सफ़ेद चादर के प्रति क्षुब्धता जैसे अब मुझमें भी स्थान्तरित सी हो गई है। अब मुझे गिरते हुए बर्फ के फ़ाए मुलायम फूल से नहीं रुई के उन फायों से लगते हैं जिनसे बुनकर जल्दी ही धरती पर एक सफ़ेद कपड़ा बिछ जायेगा। हाँ अब मुझे ये बर्फीली चादर किसी कफ़न की तरह लगती है। जब कफ़न हटेगा तब रह जाएगी कुचली हुई मैली बर्फ की कीचड़।जिसे हटते हुए लग जाएगा बहुत समय।ठीक उसी तरह जिस तरह कफ़न ओढ़े हुए किसी व्यक्ति के चले जाने के बाद पीछे रह जाता है मातम और अनगिनत समस्याएं।
शायद उम्र का तकाजा है अब यह बर्फ उत्साहित नहीं करती पर शायद कोई बालक अब भी मन में कहीं छिपा बैठा है तो बच्चों का साथ देने के लिए उनके साथ गोलामारी खेल लिया करती हूँ। परन्तु उस समय भी मन के किसी कोने में उन गीले जूतों से घर के अन्दर होने वाली किच – किच को साफ़ करना ही रहता है।सफ़ेद रंग मेरा पसंदीदा रंग होते हुए भी यह बर्फ अब नहीं सुहाती, और लाल रंग को हमेशा भड़काऊ रंग की संज्ञा देने वाली मैं, अब सूरज की उसी रक्तिम प्रभा से मुग्ध होती दिखती हूँ।
कौन कहता है कि मनुष्य का मूल स्वभाव कभी नहीं बदलता , मेरे ख़याल से तो देश, काल ,परिवेश के तहत मनुष्य का स्वभाव तो क्या सबकुछ बदल जाता है।बदल जाती हैं रुचियाँ, आदतें, सपने, सोच पूरा व्यक्तित्व भी।हम कब कैसे बदलते जाते हैं यह अहसास खुद हमें भी कहाँ होता है।
वर्तमान में भूत की यादें! कमाल की हैं!
और परिवेश के हिसाब से बदलना ही उत्तम नियती है!
सुन्दर प्रस्तुति!
बहुत ही जबरदस्त और ज्ञानवर्धक ब्लाग है "स्पंदन"।
कौन कहता है की मनुष्य का मूल स्वभाव कभी नहीं बदलता , मेरे ख़याल से तो देश, काल ,परिवेश के तहत मनुष्य का स्वभाव तो क्या सबकुछ बदल जाता है।बदल जाती हैं रुचियाँ, आदतें, सपने, सोच पूरा व्यक्तित्व भी।हम कब कैसे बदलते जाते हैं यह अहसास खुद हमें भी कहाँ होता है।……………..
सुन्दरतम आलेख पढ़कर रोम रोम प्रफुल्लित हो उठा,मैं किन शब्दों में आपका धन्यवाद् करूँ सभी तो तारीफ में बोने लग रहे हैं ………………..लाजवाब,काबिलेतारीफ
badalta swabhaw … badalta parivesh spandit kar raha:)
जीवन में कितना भी बदलाव आए …पर मन के किसी कोने में एक बच्चा हमेशा जीवित रहता है …….बदलते परिवेश का आनंद लेते हुए ….सादर
पता नहीं…हम तो दीवाने हैं बर्फ़ के …..शायद अब तक ठीक से देखी नहीं इसलिए हो ये पागलपन मगर हमें लगता है कि स्नोफॉल देखे बगैर हमारी रूह भी मुक्ति नहीं पाएगी……सो हमने तो जलन हो रही हैं "आपसे"…आप बेशक बर्फ़ देख कर कुढ़ती रहो 🙂
अनु
Sonal Rastogi की मेल से प्राप्त टिप्पणी
Hamare ehsaas ,umra jagah mauhol ke hisaab se badalte hai ….par apne par ek yakeen waaps wahi laakar khada karta hai jahan se chale the ..muskuraa kar dekho ….kafan jaisa …baadlo jaisaa lagega
उम्र के साथ२ उत्साह में कमी आना स्वाभिक है,लेकिन मूल स्वभाव यथावत रहता है,
recent post: बात न करो,
behtreen post…
इस बारे में तो मैं इतना ही कहूँगी कि पसंद अपनी-अपनी ख्याल अपना-अपना :)मगर हाँ एक बात बहुत सही कही आपने कि हम कब कैसे बदलते जाते हैं यह अहसास खुद हमें भी कहाँ होता है। पर अजीब बात है एक ही जगह रहने के बावजूद आपके यहाँ बेर्फ गिर रही है और यहाँ सूर्य देवता लुका छिपी खेल रहे हैं वह भी बरखा रानी के साथ… 🙂
हम तो स्नोफाल देखने के लिए तरस गए. पता नहीं कभी देख भी पाएंगे या नहीं. एक बार ३१ दिसंबर को shimla भी गए पर नहीं पड़ी. लेकिन यह सच है — excess of everything is bad.
"मेरे दिल के किसी कोने मे एक मासूम सा बच्चा … बड़ो की देख कर दुनिया … बड़ा होने से डरता है … खिलौना है जो मिट्टी का … फना होने से डरता है !!"
बर्फ के बाद धूप भी आएगी … बस थोड़ा सा इंतज़ार कीजिये … तब तक मजबूरी मे ही सही बर्फ का मज़ा लीजिये … 😉
कितना सुन्दर वर्णन है !!!!! हिमपात की शीतल और मद्धम-मद्धम विशेष महक का अहसास देता हुआ ! दृश्य की उस शुभ्र छटा का अलौकिक जग रचता हुआ जो पर्वतशिखरों की उन ऊँचाइयों पर बसा रहता है जहाँ पहुँचते ही मानव-मन स्वयं को उस सान्निध्य में घिरा महसूस करने लगता है जहाँ ईश्वर उसके हाथ बढ़ाकर छू लेने भर की दूरी पर होता है ! उम्र का प्रभाव हमारे चिंतन, विचारप्रवाह को प्रभावित करता है किन्तु इस हद तक भी नहीं कि हमारा मूल स्वभाव ही बदल जाए ! मनस्थिति पर बहुत कुछ निर्भर करता है ! इस वक़्त धवल चादर-सी पसरी बर्फ यदि कल कफ़न-सी प्रतीत होने लगे तो मैं इसे उम्र का तकाजा नहीं बदली मनस्थिति का नतीजा कहना ज्यादा पसंद करूँगा ! भारतीय परंपरा में प्रातःकाल उगते सूर्य के पवित्र दर्शन का बहुत माहात्म्य है, आपने सही लिखा है " सूर्यदेव् की प्रथम किरण घर के अन्दर प्रवेश न करे तो दिन के आरंभ होने का एहसास नहीं होता." महीनों हिमाच्छादित रहने वाले भूभागों के वाशिंदों का यह रश्क करना " कितने नसीबवाले हो तुम लोग! रोज़ सूरज देखने को मिलता है " सूर्य-दर्शन के प्रति उनकी ललक को प्रकट करता है ! रूस तो हरदम आपकी स्मृतियों में रहता ही है ! सूर्य की रक्तिम प्रभा से इसी तरह मुग्ध होती रहिये, बर्फीली चादर के किसी कफ़न की तरह दिखने का एहसास सहस्रकर भगवान भास्कर उजला ही देंगे ! अभिनन्दन शिखा जी आपकी लेखनी का, अलग-अलग विषयों को सदा ही सुरुचिपूर्ण अभिव्यक्ति देती है !!!!!
सजीव और सचित्र वर्णन करने की कला सबको नहीं आती। सुन्दर अभिव्यक्ति
अब जलाइए नहीं, यहाँ जाड़ा पड़ रहा है पर बर्फ नहीं , मजा नहीं आ रहा 🙁
पोस्ट पढ़कर ही सही, पर बर्फ के दर्शन तो हुए 🙂
काश यहाँ भी ऐसा देखने को मिले 🙁
दृश्य निश्चय ही बड़ा प्यारा है,
पर हमें तो ईश्वर का सहारा है।
कभी-कभी बदलने के लिए बदल जाना चाहिए और कभी बदल कर भी हम ना-बदल होते हैं।
समय और परिवेश के साथ बदलाव मनुष्य के मूल स्वाभाव में परिवर्तन तो लाता है लेकिन वो शायद आत्मा पर एक बोझ के सामान ही होता है . वस्तुतः मूल स्वभाव से कालगत विचलन इन्सान के स्वभाविक क्रियाकलापों पर भी प्रभाव डालता है. उदासी की प्रचुर मात्रा का समावेश हुआ है आलेख में , लेकिन सूरज की नई किरण हर तम्सृमय पथ को आलोकित कर जाएगी ये विश्वास भी कही छलक रहा है . बहुत सुन्दर आलेख .
स्थितियाँ अर्थ बदलने में माहिर हैं। ख़ूबसूरत सफ़ेद चादर ….और सफ़ेद कफन। परी के परिधान सी सफ़ेद फ़्रॉक ….और सफ़ेद साड़ी। ग़र्मी की बर्फ़ ….सर्दियों की बर्फ़बारी …। जमी हुयी बर्फ़ …जो अपने सम्पर्क में आने वाली हर चीज़ को जमा देने के लिये बेताब रहती है …ऐसा न होता तो लख़नऊ वाले कुल्फ़ी फ़ालूदा के लिये तरस जाते। मगर फ़िलहाल तो सर्दियों की शुरुआत में ही दिल्ली में कुछ लोगों के भेजे सर्द हो गये हैं …..इतने सर्द कि निर्दयी पत्थर भी शर्मा जायें। सात समन्दर पार के कुछ लोगों को हमारे घर में दुकान खोलने की इज़ाज़त दी गयी है। ज़ाहिर है कि मुनाफ़ा कमा कर हिन्दुस्तानियों को दान नहीं करेंगे वे …..ले जायेंगे अपने मुल्क। कोई ख़िलाफ़त करेगा इसकी तो इन्हें अपनी हिफ़ाज़त के लिये सात समन्दर पार की फ़ौज़ रखने की इज़ाज़त भी पेश कर दी जायेगी। भारत में एक बार फिर ईस्ट-इण्डिया कम्पनी की कहानी उपन्यास बनने की तैयारी की साथ अस्तित्व में आने को उतावली हो रही है ….और इक्कीसवीं सदी का भारत सर्द हो रहा है …अपने दिमाग के साथ …अपने ज़मीर के साथ …अपनी बेशर्मी के साथ ….उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़! ये सर्दी! आर्यपुत्री! मैं फिर उदास हो गया हूँ। बेशक! यहाँ ज़िग़र में गर्मी है …आग है …पर उतनी ही जिससे बीड़ी जलायी जा सके …इतनी नहीं कि भेजों में जमी बर्फ़ को पिघलाया जा सके।
यहां सर्दियों में अगर धूप न निकले तो डिप्रेशन होने लगता है. सोच कर वाकई हैरानी होती है कि वहां कैसे रह लेते हैं लोग
समय के साथ हालात बदलते हैं और हालात के साथ व्यक्ति की सोच भी …बर्फ में रूहअफजा दाल कर बहुत खाया है पर आज यदि यही काम तुम्हारे बच्चे करेंगे तो डांट दोगी उनको :):) मन:sथिति पर निर्भर करता है कि आप दृश्यों को किस अंदाज़ में देख रहे हैं …. यही बर्फ कभी रूई के फाहे लगते थे तो आज एक कफन का बिम्ब दे दिया है ….सूरज की किरण का आनंद लो मन जगमगा उठेगा :):)
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 06-12 -2012 को यहाँ भी है
….
सफ़ेद चादर ….. डर मत मन … आज की नयी पुरानी हलचल में ….संगीता स्वरूप
. .
समय के साथ बदलाव आते हैं… लेकिन फिलहाल आप बर्फ़बारी का लुत्फ़ लीजिये.
फ़ुल फ़िलासफ़ी हो गयी ये तो।
वैसे ये चादर नहीं बर्फ़ का गद्दा लग रहा है। 🙂
अपना मनपसंद खाना भी एक हद तक ही स्वाद देता है . लगातार बर्फ में रहकर उकताना स्वाभाविक ही है !
बतियाना अच्छा लगा आपका , बहुत अपना सा !
सूरज की गर्मी गर्मियों में परेशान भले करे, लेकिन तन-मन को ऊर्जावान रखती है। तभी तो सर्दियों में हम आलसी हो जाया करते हैं और डिप्रेशन के मामले बढ़ जाते हैं। ख़ैर, जब जहां जो मिले, उसी का आनंद उठाना ही तो जीवन है।
हमारे भीतर एक बच्चा रहता है। यह हमारे जिंदा होने का पुख्ता सबूत है।
आखिरी पंक्तियों मे आपने बहुत अच्छा निष्कर्ष दिया।
सादर
मन में धूप खिली हो बस , सब जगह धूप खिली दिख जायेगी | भीतर की प्रकृति का असर बाहर की प्रकृति पर अधिक पड़ता है |
हाँ अब मुझे ये बर्फीली चादर किसी कफ़न की तरह लगती है। ..
जी हाँ ,पोस्ट पढने के पहले ही यही भाव संचारित हुआ -और सुबह ही सुबह मन जाने कैसा हो आया 🙁
किन्तु पूरी पोस्ट पढ़ने के बाद वह भाव तिरोहित हो रहा बल्कि पोस्ट की निष्पत्ति ने तो मन को बिलकुल ही विचारमग्न कर दिया !
वाह ! क्या बात है…
आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगता है…
शुभकामनाएं…
Baith ke padhne me behad takleef hotee hai,lekin aapko padhne ka moh nahee rok patee…!
sarthak lekhan , bahut accha laga badhai aapko
बहुत सुन्दर. विचार भी, प्रवाह भी, शैली भी.
कमाल लिखा है शिखा…बर्फ़ को देख के तुम्हारी खिन्नता लेखनी में उभर आई है. वहां तो महीनों बर्फ़ पसरी रहती है, और हम लोग हैं, कि बारिश में अगर दो से तीसरे दिन सूरज न निकले तो उकता जाते हैं 🙂
वक़्त के साथ स्वभाव, पसंद, आदतें सबकुछ बदल जाती हैं, भई हम आपसे पूरी तरह सहमत हैं, जब हम भी छोटे थे तो बच्चों की तरह से सोचते थे आज बिलकुल माँ की तरह की सोच रखते हैं…आलेख बहुत ही अच्छा लगा
ये कैसे अवचेतन मन बोल उठा
सचमुच सूरज की खिलती धूप अगर कुछ दिन न दिखाई दे तो मन में खिन्नता छाने लगती है.और आप वहाँ का हिमपात महीनों झेलती हैं-ऊब तो लगेगी ही.कामायनी में प्रसाद का 'हिम-दर्शन'दूर से मोहित करता है,उसी के बीच हमेशा रहना पड़े तो ….!
हम कब कैसे बदलते जाते हैं यह अहसास खुद हमें भी कहाँ होता है।bahut sahi bolin hain…..aur likhi bahut achcha hain.
सीसन की पहली बर्फ़बारी हुई है तो आखरी भी आएगी … मन का बच्चा जगा रहे ये जरूरी है …
हमारा मूल स्वभाव नहीं बदलता है, पसन्द नापसन्द बदल सकती हैं।
http://bulletinofblog.blogspot.in/2012/12/2012-8.html
कितना सुन्दर लिखा है …वाकई मन भी अजीब होता है …उसकी उड़ान का कोई जोड़ नहीं ….इतने सुन्दर लेख के लिए सहस्त्र बधाईयाँ शिखा….:)
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