तेरी नजरों में अपने ख्वाब समा मैं यूँ खुश हूँ
बर्फ के सीने में फ़ना हो ज्यूँ ओस चमकती है.
बर्फ के सीने में फ़ना हो ज्यूँ ओस चमकती है.
अब बस तू है, तेरी नजर है, तेरा ही नजरिया
मैं चांदनी हूँ जो चाँद की बाँहों में दमकती है.
तेरी सांसों से जो आती है वह खुशबू है मेरी
रात की रानी तो तिमिर के संग ही महकती है.
बेशक फूलों से भरे हों बाग़ बगीचे हर तरफ
दूब फिर भी घास के साये में ही पनपती है.
बेशक फूलों से भरे हों बाग़ बगीचे हर तरफ
दूब फिर भी घास के साये में ही पनपती है.
तू ही है मेरी चाल -ढाल में, हंसी में, करार में
नट की अँगुली पर ही तो कठपुतली मटकती है.
हो आग कहीं लगी या फैला हो उजाला कहीं
साये में दीप के ही मगर “शिखा” दहकती है.
bahut sunder srijan ..Shikha 🙂
सुन्दर रचना
Ye mausam aur ye mood bahut khoob
हो आग कहीं लगी या फैला हो उजाला कहीं
बहुत खूब … हर शेर लाजवाब …. नया सा खयाल लिए ….
bahut sundar rachna …
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (19-12-2014) को "नई तामीर है मेरी ग़ज़ल" (चर्चा-1832) पर भी होगी।
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सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
क्या खूब कहा…
हो आग कहीं लगी या फैला हो उजाला कहीं
साये में दीप के ही मगर "शिखा" दहकती है.
बहुत खूब, बधाई.
बढिया है शिखा. लेकिन बहुत बढिया नहीं कहूंगी. गज़ल को अभी और मांजो.
बहुत सुंदर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
अरे वाह ,
आनंद आ गया, पता ही नहीं था कि शिखा कवियत्री भी हैं !
मंगलकामनाएं !!
यूँ तो उँगलियों पर नाचने वाली कठपुतली तो नहीं हो लेकिन बहुत समर्पण भाव से अभिव्यक्त किया है 🙂
आनंद आ गया,
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