काव्य

बैठ कुनकुनी धूप में  निहार गुलाब की पंखुड़ी  बुनती हूँ धागे ख्वाब के  अरमानो की  सलाई पर. एक फंदा चाँद की चांदनी  दूजा बूँद बरसात की  कुछ पलटे फंदे तरूणाई के कुछ अगले बुने जज़्बात के. सलाई दर सलाई बढ चली  कल्पना की ऊंगलियाँ थाम के.    बुन गया सपनो का एक झबला  रंग थे जिसमें आसमान से.  जिस दिन कल्पना से…

मैं एक कविता बस छोटी सी  हर दिल की तह में रहती हूँ.   भावो से खिल जाऊं  मैं  शब्दों से निखर जाऊं मैं   मन  के अंतस  से जो उपजे मोती  सी यूँ रच उठती हूँ. मैं एक कविता बस छोटी सी  हर दिल की तह में रहती हूँ.   हर दर्द की एक दवा सी मैं  हर गम में एक दुआ सी…

एक नौनिहाल माँ का एक खिड़की से झाँक रहा था साथ थाल में पड़ी थी रोटी  चाँद अस्मां का मांग रहा था माँ ले कर एक कौर रोटी का उसकी मिन्नत करती थी लाके देंगे पापा शाम को उससे वादा करती थी पास खड़ा एक मासूम सा बच्चा  उसको जाने कब से निहार रहा था. हैरान था उनकी बातों पर…

रिश्तों का बाजार गरम है  पर उनका अहसास नरम है हर रिश्ते का दाम  अलग है  हर तरह का माल  उपलब्ध है कभी हाईट तो कभी रूप कम है   जहाँ  पिता की  इनकम कम है  साथ फेरे, रस्में सब, आडम्बर हैं  अब तो नया लिव इन का फैशन  है हर रिश्ते पर स्वार्थ की  पैकिंग  हर रिश्ते पर एक्सचेंज ऑफर…

आजकल भाव सब सूख से गए हैं आँखों से पानी भी गिरता नहीं परछाई भी जैसे जुदा जुदा सी है मन भी अब पाखी बन उड़ता नहीं पंख भी जैसे क़तर गए हैं. पर फिर भी ये दिल धडकता है ज्यादा इत्मीनान से. ख़ुशी भी झलकती है अपने पूरे गुमान से हाँ पर ख़्वाबों को मेरे ज़ंग लग गई है…

गीली सीली सी रेत में छापते पांवों के छापों में अक्सर यूँ गुमां होता है तू मेरे साथ साथ चलता है .. सुबह की पीली धूप जब मेरे गालों पर पड़ती है शांत समंदर की लहरें जब पाँव मेरे धोती हैं उन उठती गिरती लहरों में अब भी मुझे अक्स तेरा दिखाई देता है . उस गोधुली की बेला में…

नारी बंद खिड़की के पीछे खड़ी वो, सोच रही थी कि खोले पाट खिड़की के, आने दे ताज़े हवा के झोंके को, छूने दे अपना तन सुनहरी धूप को. उसे भी हक़ है इस आसमान की ऊँचाइयों को नापने का, खुली राहों में अपने , अस्तित्व की राह तलाशने का, वो भी कर सकती है अपने, माँ -बाप के अरमानो…

एक दिन मुझसे किसी ने कहा था, कि अपने लिए मांगी दुआ कबूल हो न हो पर किसी और के लिए मांगी दुआ जरुर क़ुबूल होती है.ये अहसास बहुत खूबसूरत लगा मुझे …और सच भी..बस उसी से कुछ ख्याल मन में आये अब ये ग़ज़ल है या नज़्म या कुछ भी नहीं ..ये तो नहीं पता पर एक एहसास जरुर…

प्रेम दिवस कहो या valentine day ..कितना खुबसूरत एहसास है …आज के दौर की इस आपा धापी जिन्दगी में ये एक दिन जैसे ठहराव सा ला देता है .एक दिन के लिए जैसे फिजा ही बदली हुई सी लगती है ..फूलो की बहार सी आ जाती है…हर चेहरा फूल सा खिला दीखता है..कोई गर्व से , कोई ख़ुशी से ,…

तुम्हारे उठने और  मेरे गिरने के बीच  बहुत कम फासला था.  बहुत छोटी सी थी ये जमीं  या तो तुम उठ सकते थे  या मै ही,  मैंने  उठने दिया दिया था तुम्हे  अपने कंधो का सहारा देकर  उसमे झुक गए मेरे कंधे  आहत हुआ अंतर्मन  पर ह्रदय प्रफुल्लित था  आत्मा की आवाज़ सुनकर.  पर आज  सबकुछ नागवार सा है,  भूल…