बंद खिड़की के शीशों से
झांकती एक पेड़ की शाखाएं
लदी – फदी हरे पत्तों से
हर हवा के झोंके के साथ
फैला देतीं हैं अपनी बाहें
चाहती है खोल दूं मैं खिड़की
आ जाएँ वो भीतर
लुभाती तो मुझे भी है
वो सर्द सी ताज़ी हवा
वो घनेरी छाँव
पर मैं नहीं खोलती खिड़की
नहीं आने देती उसे अन्दर
शायद घर में पड़े
पुराने पर्दों के उड़ जाने का
डर लगता है मुझे .
कुछ डर बने भी रहे तो कोई हर्ज़ नहीं !
अनजाने से डर को बहुत सुन्दर प्राकृतिक बिम्ब द्वारा उकेरा है आपने . निकल जाने दो ये डर , स्वागत हो बदलाव का , परदे तो दृष्टि से उठाये जाते है. अत्यंत सूंदर .
सही कहा आपने कुछ पुराना ना खो जाये इस डर से हम नये को भी नही आने देना चाहते
नहीं आने देती उसे अन्दर
शायद घर में पड़े
पुराने पर्दों के उड़ जाने का
डर लगता है मुझे .
कितनी सुन्दरता से व्यक्त िया है आपने इस डर को …
"शायद घर मे पड़े पुराने परदों के उड़ जाने का डर है"
बहुत ही सुंदर चित्रण मन के भावों का……
पेड़,
पेड़ की शाखायें
नहीं देखतीं
महल है या झोपड़ी।
कहीं निभाती है
पर्दे की भूमिका
तो कहीं उड़ा ले जाती है
पुराने पर्दों को………
ताज़ा बिम्ब से सजी सुंदर कविता |
खिड़कियाँ वहां भी बंद रहती है,
खिड़कियाँ यहाँ भी बंद रहती हैं.
वहां सर्द हवाओं का डर रहता है,
यहाँ प्रदूषित हवा से डर लगता है.
पुराने परदे गर उडें , मन ना बिखर जाए कहीं ,
बेलों का क्या ,दे दस्तक खिड़की पे, लौट जायेंगी ,
हाँ !यादें जो लौट आईं अगर, कहर ही बरपायेंगीं |
"कुछ अलग अलग सा , कुछ नया नया सा, खूबसूरत सा डर"
पर मैं नहीं खोलती खिड़की
नहीं आने देती उसे अन्दर
शायद घर में पड़े
पुराने पर्दों के उड़ जाने का
डर लगता है मुझे ….
सुन्दर।
काश की खिड़कियाँ खोलने पर न उड़ें पुराने परदे।
beautiful one
इस डर को दूर कर फ़्रेश एयर आने दें
जमे पर्तों को हवा संग उड़ जाने दे॥
अच्छी रचना है …..ताज़ी हवा हर किसी को चाहिए उन्हें भी जहां आप कभी दस्तक नहीं देती अपनी टिपण्णी से ,चलिए एक तरफ़ा संवाद ही सही ,आप अपनी जिद पे हम अपनी को बनाए रहें …पर कई लोग अपना जड़त्व लिए बैठे हैं बंद कमरों में बस यूं ही …..
वो मेरे घर नहीं आता ,मैं उसके घर नहीं जाता ,
मगर इन एहतियातों से ताल्लुक मर नहीं जाता .
खिड़कियों पर पड़े पर्दे बहुत कुछ राज़ रखते हैं
डरती हो कि खुली खिड़की से आँधी न आ जाए
पर डर कर जो रखा बंद तुमने हर दरीचा, तो
आती हुई बहार कहीं वापस न चली जाये ।
बहुत खूबसूरती से भावों को पिरोया है …
पुराने पर्दों से ढंके एहसास.. पुराने पर्दों से ढँकी यादें… पुराने पर्दों से ढंके कुछ चेरे… शायद उसी हवा के इंतज़ार में हों… शायद उस शाख के लम्स की नरमी पाकर जी उठने को बेचैन हों..!!
अहसासों का खूबशूरत डर,,,
recent post: बात न करो,
हम तो यही कहेंगे- डर लगे तो गाना गा। 🙂
थोड़ा-बहुत पर्दा तो हर जगह चाहिये ही ,हमेशा खुलापन किसे रास आता है!
लाजवाब…
साधू-साधू
बहुत सुन्दर प्रस्तुति । आपकी रचना मन को तरंगायित कर गई । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।
यही डर तो पुराने को बचाए रखता है, वरना नए की आंधी में सब पुराना उड़ जाएगा…
स्त्री हृदय की कोमल सी प्रस्तुति ,
बहुत सुंदर रचना ।
भय कभी खूबसूरत लगता है , कभी बंधन !
नहीं आने देती उसे अन्दर
शायद घर में पड़े
पुराने पर्दों के उड़ जाने का
डर लगता है मुझे .
कोमल भाव
हम सभी ने शुद्ध हवा के झोंको को इसी्प्रकार खिड़कियां बन्द रखकर रोक रखा है।
बात सुन्दर कही लेकिन नव पल्लव को आने दो अन्दर वो हवाएं जो संजो कर रखी है फिर से ताजा हो जायेंगी। परदे भी उड कर थम जायेंगे लेकिन खुशबू माटी और फूलों की एक बार फिर मन को तक महका जायेगी
जीवन में पसरे जड़त्व यथास्थितिवाद ,हमारे बौद्धिक भकुवेपन का इससे ज्यादा सुन्दर चित्रण और क्या होगा .आपने नहीं पता एक टिपण्णी के रूप में कितनी बड़ी जानकारी की सौगात आपने हमें देदी
.शुक्रिया आपकी इस द्रुत टिपण्णी का जो प्रकाश केअपने ही निर्वातीय वेग का अतिक्रमण कर गई . गॉड ब्लेस यू .
डर कर कहीं कोई यथार्थ की खिड़कियाँ बंद करता है???
उड़ने दो पुराने परदे….कोई छिपी दबी चीज़ मन को गुदगुदा जायेगी…
अनु
खिड़की से झाँकती पेड़ की लतायें..अन्दर आने दें…
खोल लीजिये खिड़की, कुछ न होगा तो तजुर्बा होगा, डर काहे का !!!
आपके अद्भुत लेखन को नमन,बहुत सराहनीय प्रस्तुति.बहुत सुंदर
बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी …बेह्तरीन अभिव्यक्ति !शुभकामनायें.
आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
अहसास की सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति |
आशा
क्या बात है शिखा…बहुत खूब.
पुराने पर्दों की यादें उड़ न जाएं पर इन्हें उड़ने दीजिए … नई हवा की नई ताजगी जरूरी है इंसान को जिन्दा रहने के लिए …
शब्दों के साथ गहरी बात को कह दिया …
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