कभी कभी कुछ भाव ऐसे होते हैं कि वे मन में उथल पुथल तो मचाते हैं पर उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए हमें सही शैली नहीं मिल पाती। समझ में नहीं आता की उन्हें कैसे लिखा जाये कि वह उनके सटीक रूप में अभिव्यक्त हों पायें। ऐसा ही कुछ पिछले कई दिनों से  मेरे मन चल रहा था।  अचानक कैलाश गौतम जी की एक रचना को पढने का सौभाग्य मिला और उसने इतना प्रभावित किया कि लगा, मेरे भावों को भी यही शैली चाहिए बस। और आनन् फानन इन पंक्तियों ने उन भावों का रूप ले लिया।ज़ाहिर है कैलाश गौतम की रचना के आगे मेरी पंक्तियाँ कुछ भी नहीं, पर मेरे मन की उथल पुथल शांत हो गई है।


गई थी गर्व से 

निराश हो आई।

लोगों का सत्कार देखकर 
रिश्तों का व्यापार देखकर 
वाल मार्ट से प्यार देखकर 
धन का तिरस्कार देखकर 
फैशन का बाजार देखकर 
जेबों का आकार देखकर 
गई थी गर्व से 

निराश हो आई।

नेताओं की नीति देखकर 
बाबा की राजनीति देखकर 
कर्तव्यों से अप्रीति देखकर 
राज्यों की रणनीति देखकर 
घोटालों से प्रीति देखकर 
आरोपों से कीर्ति देखकर 
गई थी गर्व से 

निराश हो आई।

शिक्षा की हुंकार देखकर 
संस्थानों की भरमार देखकर 
पल पल बढते भाव देखकर 
अंकों की पड़ताल देखकर 
छात्रों का सुरताल देखकर 
बदलते हालात देखकर 
गई थी गर्व से 

निराश हो आई।

सावन के त्यौहार देखकर 
पतझड़ से रिवाज़ देखकर 
मिठाई में घोल माल देखकर 
गर्मी में बिजली का हाल देखकर 
ए  सी का साम्राज्य देखकर 
पानी का बर्ताव देखकर 
गई थी गर्व से 

निराश हो आई।

(कैलाश गौतम की कविता ” गाँव गया था , गाँव से भागा” से प्रेरित )