पूरी किताब लिखकर छपवाने के बाद पुस्तक की लेखिका शिखा वार्ष्णेय जब बेहद, मासूमियत से हमसे पूछतीं हैं कि मेरी किताब ‘देशी चश्मे से लंदन डायरी’ किस विधा के अन्तर्गत आएगी तो उनकी सादगी पर बहुत प्यार आता है और कहीं पढ़ी ये पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती है…. ‘लीक पर वे चलें जिनके पग हारे हों’।

अब चाहें किसी भी विधा में आती हो पर उक्त पुस्तक बेहद मनोरंजक, ज्ञानवर्धक व संग्रहणीय है जिसे शिखा वार्ष्णेय ने बहुत दिल से काफी रिसर्च व ऑब्जर्ब करने के पश्चात लिखा है। ऐसा लगता है जैसे हमारे लिए कोई झरोखा खोल दिया है लंदन से या फिर जैसे कोई हमारी बहुत आत्मीय स्वजन दोनों देशों के बीच एक ऐसा दर्पण लेकर खड़ी हैं जिसमें एक तरफ तो लंदन व आसपास की सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, भौगोलिक एवम् सामाजिक झलक देखने को मिलती है तो दूसरी तरफ हम विदेशी परिप्रेक्ष्य में अपनी संस्कृति, सभ्यता व नैतिक मूल्यों को भी तुलनात्मक रूप से तौलते चलते हैं।

जब भी हमारे बच्चे या हम लंदन जाना चाहें या कि जा रहे है या जाकर लौटे हों तो जो प्रश्न लगातार दिमाग में बंवडर मचाते हैं उन सभी का उत्तर है इस पुस्तक में।

लंदन की साफ-सुथरी सड़के, वैभव-पूर्ण ऊँची इमारतें, बहुत सुंदर साफ हरे-भरे पार्क, सभ्यता, तमीज, अनुशासन, खूबसूरत गोरे-चिट्टे, लम्बे जैसे साँचे में ढ़ले मोम के पुतले जैसे लोगों को देख बरबस मूंह से निकलता है- ‘”गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त हमी अस्तो हमी अस्तो”  ’ लगता है स्वर्ग ऐसा ही होता होगा! कहीं कोई समस्या ही नहीं होती होगी यहाँ के लोगों को परन्तु जब शिखा की लंदन डायरी पढ़ी तो सारा भ्रम जाता रहा कि नहीं आखिर तो हम इंसान हैं चाहे जहाँ रहें पूर्ण कैसे हो सकते हैं। सभी की अपनी उपलब्धियाँ हैं तो परेशानियाँ और समस्याएं भी है जिनसे वे लगातार जूझ रहे हैं।

बचपन में जैसे बाइस्कोप वाला चंद पैसों में चुटकियों में हमें भारत भ्रमण करा देता था ठीक वैसे ही 63 आलेखों के माध्यम से शिखा हमें बेहद रोचक-शैली में एक के बाद एक लेख पढ़ने के लिए मजबूर कर देती है। पहले आलेख ‘पुरानी साख व गौरवपूर्ण इतिहास’ में वे वहाँ के राजसी ठाठ-बाठ के बारे में बताते हुए कहती हैं कि आज ब्रिटेन भी बाकी देशों की तरह आर्थिक मंदी से गुजर रहा है ऐसे में इंगलैंड की रानी का हीरक-जयंती पर शाही सेलिब्रेशन में खुल कर खजाना लुटाने पर वे अपनी प्रतिक्रिया देती हैं कि ‘पूरा यूरोप किस आर्थिक मंदी से गुजर रहा है अब यह किसी से छुपा नहीं है पर बढ़ती बेरोजगारी व गरीबी जैसी समस्याओं का असर कहीं पड़ता नहीं दिखाई देता।

दूसरे आलेख ’लोमड़ी का आंतक’ जब हम पढ़ते हैं तो हँसी आ जाती है। ‘लो जी लंदनवासियों, हम जाने कब से बंदरों, गली के आवारा कुत्तों, सांपों, मक्खियों, मच्छरों से दो-दो हाथ कर रहे है और तुमसे एक लोमड़ी मौसी नहीं संभल रहीं, नाक में दम कर रखा है उनका. वे लिखती है कि ‘यू के एक ऐसा देश है जहाँ सर्वोच्च पद पर महारानी के रूप में स्त्री ही आसीन है वहाँ भी स्त्रियों के खिलाफ अपराध व भेदभाव के किस्से प्रायः सुनाई दे जाते हैं’ पढ़ कर हम कुछ सोचने पर विवश हो जाते हैं। पर वहीं जब हम पढ़ते हैं कि स्कूलों में लड़कों व लड़कियों को समान रूप से सिलाई, कुकिंग, छोटी-मोटी रिपेयरिंग, बुजुर्गों की देखभाल सिखाई जाती है तो अच्छा लगता है।

हमारे अंधविश्वास पर, हंसने वालों, तोहमतें लगाने वालों की आँखों में आँखें डाल ‘अंधविश्वास की व्यापकता’ आलेख में शिखा पूछती हैं कि भाई ठीक है हमारी रोजमर्रा की न जाने कितनी बातों को अंधविश्वास या रूढ़िवादिता कहा जाता है परन्तु भारत से बाहर लगभग सभी देशों व समाज में इस तरह की धारणाएं प्रचलित हैं। वे कहती है हाँ हम पत्थर की मूर्ति पूजें तो अंधविश्वासी और ये जो  ‘स्टोन हैज’ को विरासत समझ सहेज रहे हैं वो क्या हैं? हम भूतों चुडैलों को मानते हैं तो आपके यहाँ भी तो हान्टेड हाउस हैं जहाँ प्रेतात्माएं टहलती हैं। हैलोइन जैसे त्यौहार तो आप भी मनाते हैं… ठीक है हम परियों की, फरिश्तों की कहानियों से बच्चों को सपने दिखाते हैं तो आपके सांता क्लॉज भी तो बच्चों को भरमाते ही हैं। यदि हम पुनर्जन्म में आस्था रखते हैं तो मरने के अगले ही दिन पुनः ईसा मसीह का जिंदा हो जाना भी तो वही है न?

अपने देश पर गर्व महसूस होता है जब ये ‘प्रवासी का महत्व’ आलेख में बताती हैं कि ब्रिटेन में भारत का चिकन टिक्का राष्ट्रीय पकवान माना जाता है। वह ब्रिटेन जिसकी आर्थिक उन्नति में विदेशी यात्रियों का बहुमूल्य योगदान है जिसके प्रसिद्ध विश्वविद्यालय की शान विदेशों से आने वाले छात्र ही बढ़ाते हैं।

अच्छा लगा पढ़ कर कि वहाँ के लोग हर संस्कृति को अपना लेते हैं। क्रिसमस के साथ होली, दीवाली, ईद, नवरात्रि, गरबा सब त्यौहारों को मिलजुल कर अनुशासित ढंग से मनाते हैं। वे लिखती हैं कि ‘मतलब साफ है आपको अपने हाथ फैलाने का हक है पर वहीं तक जहाँ से किसी और की नाक नहीं शुरू होती’। वे पतझड़ को भी उत्सव की तरह मनाते हैं।

लिखती हैं कि जब भी इंडिया में कोई बड़ा हादसा होता है तो उसकी धनक लंदन प्रवासी भारतीयों के मन में भी छटपटाहट पैदा करती है। उनको भी बुरा लगता है क्योंकि इससे विदेशों में हमारे देश की छवि खराब होती है। वे मदद करने की भी कोशिश करते हैं।

‘ऐसा भी चुनावी प्रचार’ में लेखिका लिखती है कि हमारी तरह लाउडस्पीकर का शोर नहीं, कहीं कम्बल नहीं बंटते, घर-घर जाकर हाथ जोड़ने की भी परम्परा नहीं, साफ-सुथरी दीवारें, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के स्थान पर वे सब सिर्फ अपनी पॉलिसी एवं कार्यो का ब्यौरा देते हैं। यह सब चुनावी बवंडर से गुजरे हम भारतवासियों को अनुकरणीय लगता है। साथ ही हैरानी होती है यह पढ़ कर कि यू के के प्रधानमंत्री व एम पी भी मेट्रो से ऑफिस जाने में गुरेज नहीं करते। साधारण घर में रहते हैं, आम लोगों की तरह लाइन में लगते हैं। मेयर ‘बोरिस जॉनसन’ साइकिल से ऑफिस जाते थे।

‘गलियों के गैंग’ पढ़कर ज्ञान होता है कि वहाँ गैंग्स की गुंडागर्दी से जूझ रहे समाज व अभिभावकों के लिए कितनी चिंता का विषय है। इसके अलावा बच्चों पर बढ़ता शिक्षा का दबाव, बढ़ती स्वास्थ्य समस्याएं, मंदी की मार पर भी प्रकाश डाला है। अधिकारों की दुविधा जैसे लेख पढ़ कर लगता है कि बहुत कुछ समस्याएं समान हैं। आपने युवकों की समस्याओं लाइफ स्टाइल व मानसिकता पर भी लिखा है। सोलह वर्ष की आयु के पश्चात माता -पिता से अलग रहने की मजबूरी और भविष्य में पुनः संयुक्त-परिवार की संभावना पर भी प्रकाश डाला है। शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन व प्रतियोगिताओं के बढ़ते प्रेशर के कारण वहाँ के बच्चों का दर्द शिखा को द्रवित कर देता है क्योंकि वहाँ भी फ्रस्टेटेड होकर वे आत्महत्या कर रहे हैं।

माँ के भी नौकरी करने के कारण बच्चों की परवरिश की समस्या दोनों देशों में लगभग समान ही है। नैनी व क्रच के विकल्प मौजूद है पर सारे दिन माँ से अलग रहकर बच्चा माँ के सीने से लग रात में यही पूछेगा कि ‘कल स्कूल से लेने आप आओगी न मम्मा…’। इस पुस्तक में बुजुर्गो की समस्याओं पर भी प्रकाश डाला गया है। जहाँ हमारे देश में तीन पीढ़ियाँ आज भी कई परिवारों में हंसी-खुशी साथ रह लेती हैं, एक दूसरे का सहारा बनती हैं वहीं इंग्लैंड में ज्यादातर लोग अकेले जीवन बिता रहे हैं। परन्तु कहीं न कहीं असहिष्णुता व आधुनिकता के चलते हम भारतीय भी इस व्यवस्था को अपनाते जा रहे हैं। जो बहुत दुखद है।

बहुत अच्छा लगा पढ़ कर कि जहाँ हमारे यहाँ हिन्दी की उपेक्षा होती है लोग इंगलिश बोलने में शेखी समझते हैं वहीं लंदन में हिन्दी को बहुत सम्मान प्राप्त है। स्कूलों में भी हिन्दी बहुत चाव से सीखते हैं व समय-समय पर हिन्दी में विभिन्न प्रतियोगिताएं आयोजित होतीं हैं। वे हास्य के मूड में काका हाथरसी को याद करती हैं क्योंकि कभी उन्होंने रूस जाकर हिन्दी सीखने की बात की थी. कहती हैं वे आज होते तो कहते-

‘पुत्र छदम्मी लाल से बोले केसरी नंदन,

हिन्दी पढ़नी होय तो जाओ बेटा लंदन।‘

एक समय था जब दुनिया के हर कोने से बेहतर इलाज़ के लिए लोग लन्दन जाते थे आज उसी लंदन शहर में अपने नागरिकों के लिए बेहतर स्वास्थ्य-व्यवस्था नहीं है। वहाँ की कमजोर होती अर्थव्यवस्था पर भी उक्त पुस्तक प्रकाश डालती है।

‘यहाँ भी बाबा’ पढ़ कर हैरानी होती है कि सैकड़ों एशियन लंदन में झाड़-फूंक या भूत- आत्माओं के भगाने के चक्कर में पैसों व जान से हाथ धो बैठते हैं।

‘योगा डे’ की तर्ज पर ही कुत्तों के लिए ‘डोगा डे’ की भी कक्षाएं चलती हैं। धन्य हो! पढ़ कर हंसी आ जाती है। ‘डब्बा वाला ऑफ़ लंदन वे कहती है कि किसी अंग्रेज को खाने की इतनी चिन्ता करते नहीं देखा जितनी हम भारतीयों को रहती है कि ‘बेटा शादी कर लो तब विदेश जाना वर्ना खाने-पीने की परेशानी होगी’। तो भई जिनके भी बच्चे लंदन जाना चाहते है या जा रहे हैं बेफिक्र होकर जाएं शिखा ने बताया कि हर तरह का डब्बा वाला, भारतीय खाने की व्यवस्था है वहाँ भी।

लिखती है कि हैरानाी होती है कि यहाँ युवाओं में विवाह-संस्था के प्रति सम्मान माता-पिता व बुजुर्गों का सम्मान करने वाली युवा पीढ़ी बेहद सुलझी व इरादों में स्पष्ट है। इसके अतिरिक्त स्कूल बस का महत्व वी.आई.पी. कल्चर खेलों के प्रति बढती आशा, ऐसा भी दान (शुक्राणु दान), हॉर्न- संस्कृति, अधिकारों की दुविधा आदि विषयों पर भी बहुत बेबाकी से रोचक व ज्ञानवर्धक तरीके से लेखिका ने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं।

वे बताती है कि बेशक भारतीय भारत से निकल आयें पर उनके अंदर से भारत को नहीं निकाला जा सकता। भारत और उसकी संस्कृति किसी न किसी रूप में उनके अंदर सांसें लेती ही रहती है। यहाँ के रहन-सहन, व्यवहार, परम्पराओं को भले ही हमने छोड़ दिया है परन्तु अभी भी वहाँ उसे दिल में बसा रखा है और उसमें बहुत बड़ा हाथ टीवी चैनलों से प्रसारित होने वाले धारावाहिक फिल्मों व हिन्दी गानों का भी है।

थेम्स के किनारे लगे साउथ ईस्ट सांस्कृतिक मेले व उसमें सजे भारतीय व्यंजनों के स्टाल देख याद कर वह कह उठती हैं-

‘नींद मिट्टी की महक सब्जे की ठंडक

मुझको अपना घर बहुत याद आ रहा है।

शिखा के रंग-रूप पर बिल्कुल भी न जाएं क्योंकि उनका दिल पक्के हिन्दुस्तानी रंग में रंगा है और वे भारतीय संस्कृति व सभ्यता से पूर्णतः लबरेज है जो कि आपको इस पुस्तक को पढ़कर साफ नजर आ जाएगा।

तो यदि आप या आपके बच्चे या परिचित जो कोई लंदन जा रहे हों या वहां के बारे में कैसी भी उत्सुकता हो तो आपको ‘देशी चश्में से लंदन डायरी’ अवश्य पढ़नी चाहिए और अपने मित्रों व परिचितों को गिफ्ट भी करनी चाहिए।

मैं शिखा को इतनी ज्ञानवर्धक व रोचक पुस्तक लिखने के लिए बधाई देती हूँ। लीक से हट कर लिखी यह पुस्तक कहीं मील का पत्थर साबित होगी।

और अंत में शीतल माहेश्वरी को भी बधाई दिए बिना लेखन अधूरा रह जाएगा। प्रथम प्रयास है यह उनका पर लंदन की जगमगाहट व ग्लैमर को उन्होंने बखूबी कवर पेज में समेटा है.

डॉ. उषा किरण

हेड ऑफ़ दि डिपार्टमेंट(फाइन आर्ट)

मेरठ कॉलेज

मेरठ

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पुस्तक – देशी चश्मे से लन्दन डायरी (2019)

लेखिका – शिखा वार्ष्णेय

प्रकाशक – समय साक्ष्य

मूल्य – 200 रु

पुस्तक amazon.in पर उपलब्ध

 

 (शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 4, अंक : 14 त्रैमासिक : जुलाई-सितम्बर 2019 से साभार)