जब से देश छूटा हिंदी साहित्य से भी संपर्क लगभग छूट गया और
उसकी जगह (उस समय तो मजबूरीवश) रूसी, ग्रीक,
स्पेनिश,अंग्रेजी आदि साहित्य ने ले ली. कभी कभार कुछ हिंदी की
पुस्तकें उपलब्ध होतीं तो पढ़ ली जातीं। कई बार बहुत कोशिशें करके कुछ समकालीन
हिंदी साहित्य खरीदा भी जिनमें कई तथाकथित चर्चित पुस्तकें भी शामिल थीं. परन्तु
उनमें से बहुत कम ही दिल में जगह बना पाईं। उनमें से
ज्यादातर में किसी न किसी “अतिवाद” का एहसास मुझे होता। किसी में
नारीवाद का अतिवाद तो किसी में तथाकथित प्रगतिशीलता का अतिवाद तो कहीं उत्कृष्टता
का अतिवाद जिसमें आखिर तक यही समझ में नहीं आता कि लेखक
आखिर कहना क्या चाहता है. और किसी भी क्षेत्र में किसी भी तरह का “वाद” मुझे रास
नहीं आता, यह मेरी समस्या है. अत: ये पुस्तकें मुझे नींद से
जगाये रखने में असफल होतीं थीं. ऐसे समय में कुछ नया और मौलिक पढ़ने की चाह में मैंने ब्लॉग का रुख किया, वहां से मुझे मेरी अपनी मानसिक खुराक मिलने लगी और हिंदी किताबों को (जो कि, कभी मेरे लिए काली कॉफ़ी का काम करती थीं और अब लोरी का करने लगीं थीं,) उन्हें मैंने खरीदना लगभग बंद कर दिया।
कि शायद यह पुस्तक मुझे पसंद आये और मैंने किसी तरह इस पुस्तक का जुगाड़ किया।पढ़ना
शुरू किया तो शुरू के पन्नो में ही लेखिका का यह वक्तव्य
था –
स्त्रियों को खुद से जोड़ता है, बजाय विचारधारागत अलगाववाद के पुरुष के साथभी अपने को जोड़ पाता है. यह स्त्री होने के अहसास को लेकर ज़्यादा सकारात्मक प्रतीत होता है. बिना अलगाववादी फेमिनिज़्म के हम पारंपरिक तौर पर समतावादी हैं. हमें नाचना पसंद है, चाँद पसंद है, जीवंतता पसन्द है, प्रेम सेप्रेम है. खाने से और अपनी प्राकृतिक मांसलता से प्रेम है. संघर्ष से प्रेम है, लोक से प्रेम है और अंतत: खुद से प्रेम है.”
और कुछ हो न हो पर “अतिवाद” की मेरी समस्या तो शायद इस पुस्तक में नहीं
ही आएगी। इस वक्तव्य से मुझे लगा
कि कहीं न कहीं लेखिका की मानसिकता और विचार धारा मुझसे मेल खाती है अत: पुस्तक
में भी कुछ तो ऐसा होगा ही जो मुझे इसे पूरा पढ़ जाने को विवश करे, और ऐसा ही हुआ. ज्यों ज्यों मैं
पढ़ती गई त्यों त्यों इसे पंक्ति दर पंक्ति पूरा पढ़ जाने की मेरी चाह बढ़ती
गई. वर्तमान परिवेश की सामाजिक परिस्थितियों, और उसके पात्रों के अलावा इसके
कथानक में ऐसे तेवर थे जो कहीं किसी दुसरे ग्रह से आये किसी प्राणी के से नहीं थे.
जिनमें अपने अस्तित्व की लड़ाई तो थी परन्तु प्राकृतिक और व्यवहारिकता से पलायन
नहीं था-
तरह व्यक्त करती है-
शिल्प का तो क ख ग भी मुझे नहीं आता परन्तु एक नियमित पाठक की दृष्टि से इतना मैं
अवश्य कह सकती हूँ कि पंचकन्या के सभी
पात्र अपने जैसे न भी लगें पर अपनों में से ही एक अवश्य ही लगते हैं. पंचकन्या की हर एक नायिका अपने आसपास की ही एक कन्या लगती है. और उनकी कहानी के साथ
साथ चलती हुई विभिन्न परिवेश की विशेषतायें इतनी खूबसूरती से परिलक्षित होती
हैं कि पुस्तक की एक पंक्ति को भी स्किप करने का मन
नहीं करता।हालाँकि पढ़ने से पहले सुना था की शिल्प थोड़ा किलिष्ट है. परन्तु मुझे तो
कल कल बहती नदी सा लगा.
कब आधी हो जाती पता ही न चलता। तो शुक्रिया गीता श्री, “पंचकन्या ” पर तुम्हारी
उन पंक्तियों का और आभार मनीषा कुलश्रेष्ठ, मुझे फिर से हिंदी किताबों की तरफ मोड़ने
के लिए.
हिंदी में मानक और सहनीय पाठ्य सामग्री का अभाव नहीं हैं
manisha ji bahut hi achchha likhti hain .shikha ji aap jitna achchha likhti hai utna hi achchha padhti bhi hain
rachana
पंचकन्याओं को जानने की इच्छा हो गयी है .
ब्लॉगिंग का एक सकारत्मक पक्ष !
अच्छा लगा …. पढ़ना चाहेंगें हम भी….
liked
हाँ, इस पुस्तक को पढ़ने की चाह जगी है आपका पोस्ट पढकर
आपने उत्सुकता जगा दी है पढने के लिए … अच्छी लगी आपकी चर्चा …
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