जब से देश छूटा हिंदी साहित्य से भी संपर्क लगभग छूट गया और
उसकी जगह (उस समय तो मजबूरीवश) रूसी
, ग्रीक,
स्पेनिश,अंग्रेजी आदि साहित्य ने ले ली. कभी कभार कुछ हिंदी की
पुस्तकें उपलब्ध होतीं तो पढ़ ली जातीं। कई बार बहुत कोशिशें करके कुछ समकालीन
हिंदी साहित्य खरीदा भी जिनमें कई तथाकथित चर्चित पुस्तकें भी शामिल थीं. परन्तु
उनमें से बहुत कम
 ही दिल में जगह बना पाईं। उनमें से
ज्यादातर में किसी न किसी “अतिवाद” का एहसास मुझे होता। किसी में
नारीवाद का अतिवाद तो किसी में तथाकथित प्रगतिशीलता का अतिवाद तो कहीं उत्कृष्टता
का अतिवाद जिसमें आखिर तक
 यही समझ में नहीं आता कि लेखक
आखिर कहना क्या चाहता है. और किसी भी क्षेत्र में किसी भी तरह का “वाद” मुझे रास
नहीं आता
, यह मेरी समस्या है. अत: ये पुस्तकें मुझे नींद से
जगाये रखने में
 असफल होतीं थीं. ऐसे समय में कुछ नया और मौलिक पढ़ने की चाह में मैंने ब्लॉग का रुख किया, वहां से मुझे मेरी अपनी मानसिक खुराक मिलने लगी और हिंदी किताबों को (जो कि, कभी मेरे लिए काली कॉफ़ी का काम करती थीं और अब लोरी का करने लगीं थीं,) उन्हें मैंने खरीदना लगभग बंद कर दिया। 

इसी बीच फेसबुक पर एक दिन बिंदिया की संपादक और एक मित्र गीता श्री का एक स्टेटस दिखा जिस पर मनीषा कुलश्रेष्ठ के उपन्यास “पंचकन्या” के विषय में लिखा था. उन कुछ पंक्तियों को पढ़कर मुझे लगा
कि शायद यह पुस्तक मुझे पसंद आये और मैंने किसी तरह इस पुस्तक का जुगाड़ किया।पढ़ना
शुरू किया तो शुरू के पन्नो में ही लेखिका का यह
 वक्तव्य
था –
“निजी तौर पर फेमिनिज़्म शब्द की जगह एलिस वॉकर का दिया शब्द वुमेनिज़्म’ मैं ज़्यादा अपने मन के
करीब पाती हूँ. यह  शब्द  स्त्रियोचित  मुलायमियत लिएज़्यादा उर्वर और  फेमिनिज़्म का एक बेहतर स्वरूप हैजो कि न केवल हरवर्ग  की अधिक
स्त्रियों
 को खुद से जोड़ता है
बजाय विचारधारागत अलगाववाद  के पुरुष के साथभी अपने को जोड़ पाता हैयह स्त्री होने के अहसास को लेकर ज़्यादा सकारात्मक प्रतीत होता है बिना अलगाववादी  फेमिनिज़्म के हम पारंपरिक तौर पर समतावादी हैंहमें नाचना पसंद हैचाँद पसंद है, जीवंतता पसन्द हैप्रेम सेप्रेम हैखाने से और अपनी प्राकृतिक  मांसलता से प्रेम हैसंघर्ष से प्रेम हैलोक से प्रेम है और अंततखुद से प्रेम है.”
इस से मुझे अंदाजा होने लगा कि
और कुछ हो न हो पर “अतिवाद” की मेरी समस्या तो शायद इस पुस्तक में नहीं
ही
 आएगी। इस वक्तव्य से मुझे लगा
कि कहीं न कहीं लेखिका की मानसिकता और विचार धारा मुझसे मेल खाती है अत: पुस्तक
में भी कुछ तो ऐसा होगा ही जो मुझे इसे पूरा पढ़ जाने को विवश करे
, और ऐसा ही हुआ. ज्यों ज्यों मैं
पढ़ती गई त्यों त्यों इसे पंक्ति दर पंक्ति
 पूरा पढ़ जाने की मेरी चाह बढ़ती
गई. वर्तमान परिवेश की सामाजिक परिस्थितियों
, और उसके पात्रों के अलावा इसके
कथानक में ऐसे तेवर थे जो कहीं किसी दुसरे ग्रह से आये किसी प्राणी के से नहीं थे.
जिनमें अपने अस्तित्व की लड़ाई तो थी परन्तु प्राकृतिक और व्यवहारिकता से पलायन
नहीं था-
अपने इस सरोकार को लेखिका पुस्तक के एक अंश में एक पात्र के माध्यम से कुछ इस
तरह व्यक्त करती है-
 
“ये वही पुरुष थे जो औरत की आज़ादी की बात करते थेकई बार आयातित होकर आए इस परकटे फेमिनिज़्म के बिगड़े –विकृत स्वरूप पर वह  सोच में पड़ जाती थी, कि जिसमें आज़ादी  तो थी मगर एक तरफा
 ‘जेंडर बायस्ड’ (लैंगिक भेदभाव के साथशुचिता की ज़िम्मेदारी भी साथ में थीस्वप्नविहीनता, दैहिक दमनऔर आगे बढ़ने और बेहतर होने की आकांक्षा के बिना हम किस और कैसे फेमिनिज्म की बातकर रहे थे ? फिर यह भारतीय फ़ेमिनिस्टहोना
 नहीं किसी विक्टोरियन कान्वेंट की नन बनने का फ़रमान हुआ कि –शुचिता तुम्हारे हिस्सेसद्चरित्रता और वैवाहिक पवित्रता औरसादा जीवन उच्च विचार
भी तुम्हारे हिस्से !  एक तरफ फेमिनिस्ट बन कर  दूसरी तरफ मीराबाई बन कर 
पर पुरुष के लिए प्रेम कविताएं लिखते रहोऔर सारे बेहतरीन पद,
 प्रतिष्ठा पुरुष को दे दो क्योंकि तुमने कुछ माँगा या खुद की श्रेष्ठता को साबित भी कर दिया तो भी 
महत्वाकांक्षातुम्हारे ही गले में ढोल की लटका दीजाएगी! क्योंकि तुम स्त्री हो!”
मैं कोई आलोचक नहीं हूँ और कथा
शिल्प का तो क ख ग भी मुझे नहीं आता परन्तु एक नियमित
 पाठक की दृष्टि से इतना मैं
अवश्य कह सकती हूँ कि पंचकन्या
 के सभी
पात्र अपने जैसे न भी लगें पर अपनों में से ही एक अवश्य ही लगते हैं. पंचकन्या
 की हर एक नायिका अपने आसपास की ही एक कन्या लगती है. और उनकी कहानी के साथ
साथ चलती  हुई विभिन्न परिवेश की विशेषतायें इतनी खूबसूरती से परिलक्षित होती
हैं कि पुस्तक की एक पंक्ति को भी स्किप
 करने का मन
नहीं करता।हालाँकि पढ़ने से पहले सुना था की शिल्प थोड़ा किलिष्ट है. परन्तु मुझे तो
कल कल बहती नदी सा लगा.
अरसे बाद हिंदी की एक ऐसी पुस्तक हाथ लगी जिसे पढ़ते हुए रात
कब आधी हो जाती पता ही न चलता। तो शुक्रिया गीता श्री, “पंचकन्या
 ” पर तुम्हारी
उन पंक्तियों का और आभार मनीषा कुलश्रेष्ठ, मुझे फिर से हिंदी किताबों की तरफ मोड़ने
के लिए.